गजब हो गयो भैया बाघ फांसी लगा के मर गयो…
जंगल में यह खबर बड़ी तेजी से फैल रही है कि युवा बाघ फांसी के फंदे पर झूल गयो। इंसानों की यह बीमारी अब जानवरों में भी फैल रही है। इक्कीसवीं सदी में जानवर भी अब इंसानों से होड़ में पीछे रहने को तैयार नहीं हैं। वैसे भी जंगल के आसपास बस्तियां बन गईं या जंगल में ही रिसोर्ट बन गए, सो बाघ हों या भालू, नीलगाय,चिंकारा,चीतल, बंदर, बारहसिंगा या तेंदुआ ही सही… सबकी जान सांसत में है। पर सबकी समझ में यह अब भी नहीं धंस रयो कि बाघ दाऊ ने फांसी कैसे लगा ली? और अगर शिकारी माफिया ने फंदा में लटका दओ तो फिर का ऊ को दिमाग फिर गयो। यदि मार लओ थौ तो फंदा पर लटकावे की जरूरत का आन पड़ी। जब से बाघ ने फांसी लगाई तब से जंगल के सब जानवर तनाव में हैं। दूसरे बाघ-बाघिन भी टेंशन में हैं कि ऐसा फांसी कांड उनके साथ भी न हो जाए। बंदूक और बिजली के फंदा तो समझ में आने लगे थे, पर अब एक नई आफत कि मारकें फांसी पे लटका रहे। जानवरों के दिमाग में टेंशन इस बात का है कि पन्ना टाइगर रिजर्व कहीं पहले की तरह बर्बादी की कगार पर न पहुंच जाए। जब जंगल में एकऊ बाघ नहीं बचा था। तब जंगल ऐसा लग रहा था जैसे बिना सिर के अकेले धड़ ही बचा हो। वह बुरा वक्त याद कर सब जानवरों की आंखें नम हो गईं। कई जानवरों की आंखों से तो आंसुओं की धार लग गई। इन्हें मालूम है कि बाघ के हमले में इन्हें अपनी जान गंवानी पड़ती है, पर यह भी कड़वी सच्चाई ये जानत हैं कि बाघ न हो तो इंसान कितना उपद्रवी हो जाता है। और काका-बाबा के मुंह से सुनी पुरानी त्रासदी उनकी जुबां पर आ ही गई।
शिकारियों ने इतना कहर ढाया था कि 2009 में पन्ना टाइगर पार्क बाघ विहीन हो गया था और तब जंगल में हाहाकार मच गया था। पन्ना राष्ट्रीय उद्यान सरिस्का के बाद अपने सभी देशी बाघों को खोने वाला भारत का दूसरा बाघ अभयारण्य था। यद्यपि पन्ना से पहले सरिस्का में बाघों को फिर से आबाद किया गया था, बाद में पन्ना में बाघों की संख्या तीन गुना थी। दस साल पहले 3 मार्च 2009 को बांधवगढ़ से टी-1 बाघिन को पन्ना राष्ट्रीय उद्यान में लाया गया था, जिसने पिछले दशक में अवैध शिकार के कारण अपनी पूरी बाघ आबादी खो दी थी और रिजर्व को फिर से भरने का काम – राज्य में एक अग्रणी प्रयास शुरू किया गया। सात संस्थापक बाघों (पांच मादा और दो नर) के समूह ने 30 से अधिक बार संभोग किया है और 80 से अधिक शावकों का उत्पादन किया है और अब यह देश में प्रमुख सफलता की कहानियों में से एक बन गया है। बाघों को एक नए वातावरण से परिचित कराने का कार्य एक चुनौती थी, इसके अलावा स्थानीय लोग शत्रुतापूर्ण थे, और कर्मचारियों को हतोत्साहित किया गया क्योंकि वन विभाग को बाघों के नुकसान के लिए जिम्मेदार ठहराया गया था।
6 मार्च, 2009 को कान्हा से टी2 लाया गया था और उसी साल 6 नवंबर को पेंच से टी3 नर को लाया गया था, ताकि इंब्रीडिंग की किसी भी संभावना से बचा जा सके। लेकिन टी3 नवंबर के मध्य में मादाओं की ओर जाने के बजाय आबादी वाले इलाकों की ओर चली गई और वन अधिकारियों को सतर्क कर दिया। रेडियो कॉलर लगे होने के बावजूद 10 दिनों तक उसका कोई पता नहीं चला। फिर इसकी लोकेशन मिली और अगले 30 दिनों तक हाथियों की मदद से इसे ट्रैक किया गया था। वन विभाग के अधिकारियों के अलावा स्थानीय लोग भी शामिल थे। टी-3 को 25 दिसंबर को फिर से पकड़ा गया, और वापस जंगल में लाया गया और उसकी रिहाई के क्षेत्र में भोपाल चिड़ियाघर से लाई गई मादा बाघिन के मूत्र का छिड़काव किया गया। T3 जंगल में रहा और T1 के साथ संभोग किया और चार में से पहला शावक 16 अप्रैल (2010) को पैदा हुआ, और अन्य चार शावक अक्टूबर में T2 से पैदा हुए। पर अब रह-रह कर वही पुरानी कहानी याद आ रही थी। और फिर केन-वेतवा लिंक परियोजना त्रासदी जेहन में आ गई।
केन-बेतवा लिंक परियोजना ने जान लेने में क्या कोई कसर बाकी रखी थी कि अब सुसाइड केस का मामला जान लेने पर उतारू हो गया। केन-बेतवा लिंक परियोजना के चलते पन्ना टाइगर रिजर्व में बाघों के प्रमुख आवास का 10 फीसदी से ज्यादा हिस्सा पानी में डूब सकता है। यदि इस क्षेत्र के कुल क्षेत्रफल की बात की जाए तो वो करीब 58.03 वर्ग किलोमीटर के बराबर बैठता है। वहीं अप्रत्यक्ष रूप से इस परियोजना के चलते बाघों के प्रमुख आवास का करीब 105.23 वर्ग किलोमीटर का हिस्सा खतरे में है। क्योंकि इस परियोजना के कारण न केवल उनके आवास को नुकसान होगा। साथ ही, उन्हें जोड़े रहने वाले रास्तों पर भी इसका असर पड़ेगा।
केन-बेतवा लिंक परियोजना के चलते जानवर पहले ही तनाव में थे कि अब फांसी कांड ने तो जंगली जानवरों का ब्लड प्रेशर ही बढ़ा दिया। उन्हें चिंता इस बात की भी है कि कहीं ब्रेन हेमरेज के केस के चलते जानवरों के जान गंवाने के मामले सामने न आने लगें। पॉयजन पिलाने की कोशिशें तो पहले भी सामने आई ही थीं। थोड़ी राहत की बात अगर महसूस हुई तो यह कि आनन-फानन में मुख्यमंत्री और खजुराहो सांसद सक्रिय हो गए और कलेक्टर, एसपी, डीएफओ सहित तमाम आला अफसरों की परेड ले ली और एसीएस वन दौड़कर पन्ना टाइगर रिजर्व पहुंच गए। मतलब जानवरों को ऐसा लग रहा था कि मानो एक पल के लिए गम में डूब रहे हों और दूसरे पल सरकारी संवेदनशीलता पर खुशी सी भी महसूस हो रही हो। डर जेहन में यही है कि 2009 की तरह पन्ना बाघों से मुक्त होने की दिशा में कदमताल न करने लगे। क्योंकि शिकारी माफिया ने जिस तरह मारने के बाद फांसी लगाकर युवा बाघ को टांग दिया, उसका संकेत जंगल में आतंक और भय फैलाने की दुस्साहस पूर्ण चुनौती देना ही है। जंगल में यही आवाज रह-रह कर आ रही थी कि गजब हो गयो भैया कि बाघ फांसी लगा के मर गयो…।