पुण्यस्मरण: मोतीलाल वोरा-
कुशाग्रता पर भारी एक कर्मठ व्यक्तित्व!
कविवर रवीन्द्रनाथ टैगोर ने कहा था- जो पीढ़ी अपने “पूर्वजों का इतिहास विस्मृत कर देती है, उसका वर्तमान अभिशप्त और अपाहिज हो जाता है”। मध्यप्रदेश के यशस्वी मुख्यमंत्री और विनयशील कर्मठता के पर्याय रहे मोतीलाल वोरा जी भी वैसे ही बिसरा दिए गए जैसे कि एक दिन पूर्व बीती पुण्यतिथि पर देश के तिलस्मी प्रधानमंत्री रहे पीव्ही नरसिंहराव। 21 दिसंबर को वोरा जी की पुण्यतिथि चुपचाप शीतलहर सी गुजर गई। न कहीं श्रद्धा के सुमन, न कहीं सार्वजनिक जीवन के योगदान के संस्मरण..।
बहरहाल ऐसे गाढ़े दिनों का सच्चा हितैषी फेसबुकावतार धारण करके इस जग-जंगम में आया है, जो बीते को बिसरने नहीं देता। वोरा जी के साथ मेरे न बिसरने वाले कई संस्मरण हैं जो समय-बेसमय स्मृतिपट पर पुरानी फिल्मों सा बार-बार रिलीज होते रहते हैं..यथा—
….मार्च 1985 के दूसरे हफ्ते जब मोतीलाल वोरा मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री के तौरपर शपथ ली तो दूसरे दिन अखबार की सुर्खियों में उनकी योग्यता, कर्मठता के बखान की जगह परिस्थितिजन्य व खड़ाऊँ मुख्यमंत्री का विशेषण मिला। बात स्वाभाविक भी लगती थी। 11मार्च को अर्जुन सिंह ने दूसरी बार शपथ ली, लेकिन राजीव गांधी को जाने क्या सूझा कि उन्हें दूसरे दिन ही चंडीगढ़ के राजभवन में बतौर राज्यपाल शपथ लेने का हुक्म जारी कर दिया।
वोराजी मध्यप्रदेश की राजनीति में दूसरी पंक्ति के नेता थे। उनकी हैसियत का आँकलन इससे लगा सकते हैं कि 80-85 के कार्यकाल में दिग्विजय सिंह कैबिनेट मंत्री सिंचाई थे जबकि वोराजी राज्यमंत्री उच्च शिक्षा। फिर प्रदेश के नेताओं में केंद्र में माधवराव सिंधिया और कमलनाथ जैसे हैवीवेट नेता थे। इन स्थितियों के चलते वोराजी को मुख्यमंत्री के लिए चयनित करना सभी को अस्वाभाविक लगा लिहाजा अर्जुन सिंह के खड़ाऊँ मुख्यमंत्री का विशेषण मिल गया।
वरिष्ठ पत्रकार के.विक्रमराव लिखते हैं कि यद्यपि अर्जुन सिंह ने अपनी आत्मकथा में लिखा- राजीव गांधी ने उत्तराधिकारी सुझाने के लिए कहा तो उन्होंने मोतीलाल वोरा जी का नाम आगे बढ़ा दिया, लेकिन यह पूरा सच नहीं है। वोराजी वस्तुतः राजीव गांधी की ही पसंद थे। वे वोराजी की मेहनत और सादगी के मुरीद थे। किसी भी नेता के प्रभाव का आँकलन करने का उनका एक निजी फीडबैक सिस्टम था।”
वोराजी प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष थे इस नाते वे इसबार अर्जुन सिंह की मंत्रिपरिषद में सीधे-सीधे कैबिनेट मंत्री के आकांक्षी थे लेकिन वे इस असमंजस थे कि उन्हें रखा भी जाएगा कि नहीं। लेकिन किस्मत की बाजी शायद इसे ही कहते हैं जो ऐनवक्त पर पलट गई और वे मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री बन गए।
जाहिर है मंत्रिमंडल गठित करने में वोराजी की रत्तीभर नहीं चली। मंत्रिमण्डल में ज्यादातर अर्जुन सिंह भक्तों को ही जगह मिली। शायद ही वोराजी ने अपने से किसी को नामित किया हो। शुरूआती एक वर्ष हाल यह कि बल्लभभवन को सीधे चंडीगढ़ से अर्जुन सिंह के दूतों के जरिए संदेशनुमा आदेश मिलते थे। वोराजी को सिर्फ अमल करना होता था।
राजनीति अपने साथ सकल गुण लेकर सत्ता मिलने के साथ पैतरे सिखाते हुए चलती है। वोराजी को खड़ाऊँ तत्काल उतारकर फेकनी थी। राजीव गांधी का वरदहस्त तो था ही उनपर हाँ उन्हें किसी जामवंत की तलाश थी..। उनदिनों सेठीजी हाशिये पर जा चुके थे और श्यामाचरण शुक्ल कांग्रेस से बाहर थे, लिहाजा माधवराव सिंधिया पर उनकी नजरें टिकीं। सिंधिया जी अटलबिहारी वाजपेयी को ग्वालियर से हराकर केन्द्र में मंत्री होते हुए राजीव गांधी की कोटरी के सदस्य थे।
मोती ने माधव को साधना शुरू किया..अर्जुन सिंह से खार खाए बैठे सिंधिया जल्दी ही सध गए.. और फिर यही जोड़ी मीडिया में मोती-माधव एक्सप्रेस के नाम से सरनाम हुई।
वोराजी की मंत्रिपरिषद में अर्जुन सिंह के पुराने पट्ठे अखाड़ा बदलने की फिराक में थे..। इन सबके अगुआ बने कैप्टन जयपाल सिंह जो पिछले मंत्रिमण्डल में अर्जुन सिंह की कृपा से संसदीय सचिव व उपमंत्री थे। वोरा मंत्रिमंडल में कैप्टन गृह व परिवहन राज्यमंत्री थे। कैप्टन ने वोराजी में अलग लाइन खीचने के लिए जोश भरा।
वोराजी खोल से बाहर आने लगे इधर बाहर वो दिग्गज माला लिए खड़े थे जो बेटिकट मुसाफिर की तरह दो साल से फड़फड़ा रहे थे। 85 के चुनाव में कृष्णपाल सिंह, श्रीनिवास तिवारी, हजारीलाल रघुवंशी जैसे दर्जनों नेताओं की टिकट काट दी गई थी। वोराजी सोशलिस्टी पृष्ठभूमि के थे लिहाजा ऐसे सभी नेता जो सोशलिस्ट छोड़कर आए थे उनके निकट आते गए।
खड़ाऊ मुक्त और अलग अस्तित्व वाले पूरपार मुख्यमंत्री बनने में वोराजी को दो वर्ष का समय लगा यानी कि 1987 तक।
अब आगे की कहानी में यह कि एक पत्रकार के रूप में वोराजी से मेरा कैसे साबिका पड़ा..। वह इसलिए कि वोराजी का पहला बैटलफील्ड विंध्य ही बनने वाला था जो अर्जुन सिंहजी की मातृभूमि है।
2 फरवरी 1985 को विंध्य के सतना शहर से तब का सबसे प्रभावी अखबार देशबंधु लांच हुआ। मायाराम सुरजन जिन्हें हम सब बाबूजी का सम्मान देते थे, ने एक संस्मरण में बताया था कि वे इस अखबार को रीवा से लांच करना चाहते थे..लेकिन रेल हेड न होने की वजह से सतना का चयन करना पड़ा।
सुरजन जी खुले मुँह स्वीकार करते थे कि देशबंधु को विंध्य लाने के पीछे अर्जुन सिंह की ही प्रेरणा थी। दबी जुबान यह भी कहा जाता था कि इसके लिए आर्थिक बंदोबस्त भी अर्जुन सिंह का ही था।
वैसे इसकी दो साफ वजहें थीं पहली यह कि दैनिक जागरण के गुरुदेव गुप्तजी श्यामाचरण जी के निकटतम थे। वे दो बार राज्यसभा सदस्य रह चुके थे अर्जुन सिंह के विरोधी खेमे के वे नेताओं में माने जाते थे।
दैनिक जागरण समय बे समय अर्जुन सिंह की ‘खबर’ लेता भी रहता था। दूसरे अर्जुन सिंह जी सतना में अपनी संसदीय राजनीति देख रहे थे क्योंकि रीवा से महाराज मार्तण्ड सिंह कांग्रेस से लोकसभा लड़ते थे।
अर्जुन सिंह ने सतना से पहला लिटमस टेस्ट किया भोपाली मियां अजीज कुरैशी को लड़ाकर। उन्हें बैरिस्टर गुलशेर अहमद को ठिकाने लगाकर अपनी जमीन तैयार करना था। अजीज कुरैशी सतना पर्चा भरने आए और दुबारा लोकसभा के निर्वाचित प्रत्याशी का प्रमाण पत्र लेने..। इसके अलावा उनका सतना से कोई वास्ता नहीं था। फिर अर्जुन सिंह यहीं से 1991 का लोकसभा चुनाव लड़ा।
1984 में जबलपुर विश्वविद्यालय से पत्रकारिता की डिग्री लेकर ऊँचे ख्वाब पाले मैं मुँबई पहुंचा.. वहां बैनेट कोलमैन जो टाइम्स आफ इंडिया समूह चलाता है उसका प्रशिक्षु बनकर। उन दिनों किसी भी पत्रकार के लिए यह सर्वोच्च अवसर माना जाता था। लेकिन किस्मत कब कोई बिसात पलट दे कहा नहीं जा सकता।
टाइम्स समूह में भीषण हड़ताल चली जो छह महीने जारी रही। मैं जबलपुर लौट आया। अगले महीने ही इंदिरा जी की हत्या हो गई। जबलपुर में सिख विरोधी हिंसा भड़क उठी और मेरा दोबारा मुँबई जाना अनंतकाल के लिए टल गया। इसी बीच अखबारों देशबंधु के सतना संस्करण का इश्तहार देखा।
कुछ महीने जबलपुर में देशबंधु सांध्य संस्करण में काम करने के बाद सतना संस्करण से जुड़ गया। अर्जुन सिंह जी के राज्यपाल बन जाने के बाद चुरहट उपचुनाव को कवर करने मोर्चे पर लगा दिया गया। इस चुनाव में पहली बार अजयसिंह राहुल चुनाव जीते।
इसके बाद मेरा मुख्यालय रीवा हो गया। अखबार भले ही सतना से छप रहा हो पर विंध्य का दिल तो रीवा में धड़कता था। सो यहां की पत्रकारिता शुरू हुई। अर्जुन सिंह से जुड़े हर राजनीतिक मसलों की रिपोर्टिंग का दायित्व तो था ही..कुछ दिन बाद स्थिति यह बनी कि उनसे मेरे सीधे संवाद होने लगे। वे लैंडलाइन पर सीधे फोन करते व यहां की राजनीतिक ब्रीफिंग प्राप्त करते।
इस बीच एक बड़ी घटना हुई। 21सितंबर 1987 को टीआरएस कालेज के छात्रों पर भीषण लाठी चार्ज हुआ। छात्र फीस माफी को लेकर हड़ताल कर रहे थे। प्रशासन सुन नहीं रहा था। एक दिन सभी छात्रनेता मेरे पास आए और जुगत पूछी मैंने..मजाक में ही सुझा दिया कि मुख्यमंत्री समेत सभी मंत्रियों का गदहा जुलूस निकालो पूरे देश में छा जाओगे।
दूसरे दिन वोराजी समेत सभी मंत्रियों की नाम लिखी पट्टियां गदहों के गले में डालकर जुलूस निकलपड़ा। किसी बैठक के सिलसिले में सर्किट हाउस में संभागभर के कलेक्टर एसपी थे। बस क्या..! रीवा के तत्कालीन कलेक्टर एचके मीणा(अब स्वर्गीय) व एसपी एसएच खान ने छात्रों को सबक सिखाने का हुक्म दिया।
उत्साही पुलिस वालों ने छात्रों को ही क्या छात्राओं, अध्यापकों सबको सबक सिखा दिया। छात्रों पर तड़ातड़ पड़ती लाठियां देखकर मुझसे भी नहीं रहा गया मैं भी प्रतिकार करते नारे लगाते छात्रों के बीच घुस गया। आठ दस लाठियां मुझे भी पड़ी, बाँए हाथ में फ्रैक्चर हो गया। बस क्या, लगे हाथ ‘ एक पत्रकार पर हमला, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कुचली गई’ जैसा मुद्दा भी उठ खड़ा हुआ।
इस आंदोलन की गूंज पूरे देश में हुई। मध्यप्रदेश में अर्जुन सिंह समर्थक 36 विधायकों ने आंदोलन के समर्थन में हस्ताक्षरित पत्र लिखकर अपनी ही सरकार को आड़े हाथों लिया। वोराजी तक ब्रीफिंग पहुंची कि यह उनके खिलाफ एक अभियान है जिसमें एक पत्रकार(यानी मेरी) की सूत्रधार की भूमिका है।
अब यहां से वोराजी के व्यक्तित्व का वह स्वरूप जो उन्हें महान बनाता है देखने को मिला। वोराजी मेरी शिकायत मालिक यानी मायाराम सुरजन या संपादक श्यामसुंदर शर्मा से करने की बजाय। सीधे मुझसे बातकी, मुझपर पड़ी लाठियों के प्रति अफसोस व्यक्त किया..और कहा कल ही रामकिशोर शुक्ल जी आपसे मिलने पहुँचेंगे।
रामकिशोर जी वित्तमंत्री के साथ ही सरकार में दूसरे नंबर की हैसियत में थे। वे रीवा के प्राख्यात डाक्टर सीबी शुक्ल के साथ उनकी फिएट में मुझसे मिलने मेरे कमरे आए। शुक्ल जी से मैंने कहा- बाबूजी इसमें किसी का राजनीतिक टूल बनने जैसी बात ही नहीं पत्रकारिता के कौतुक में यह सब कैसे हो गया मैं भी हतप्रभ हूँ। बहरहाल मुख्यमंत्री वोराजी ने दूसरे ही दिन जाँच के लिए न्यायिक आयोग गठित कर दिया। संभवतः यह पहली घटना रही होगी जब महज लाठीचार्ज की जाँच को लेकर कोई आयोग बैठा हो..नहीं तो अमूमन ऐसे मामलों को मजिस्ट्रीरियल जाँच ही निपटा देती है।
संवेदनशील राजनेता का तमगा लिए भले ही कोई फिरे पर निजीतौर पर वोराजी से संवेदनशील मुख्यमंत्री मैंने आज तक नहीं देखा। एक बार वोराजी का बयान छपा कि मध्यप्रदेश में कोई भूखा प्यासा नहीं सोएगा..। दूसरे दिन ही गोविंदगढ के संवाददाता ने खबर भेजी कि..एक बेसहारा आदमी भूख से मर गया।
मैं खुद वहां जाकर स्पाट रिपोर्टिंग की और अखबार में शीर्षक दिया- “लेकिन मुख्यमंत्री जी फते मोहम्मद तो भूख से ही मरा।” खबर का तत्काल संग्यान लिया गया। प्रमुख सचिव के स्तर के अधिकारी को जाँच के लिए भेजा। तीसरे दिन ही हर पंचायतों में पर्याप्त मात्रा में रिजर्व राशन भेजा गया ताकि ऐसी स्थिति में तत्काल राशन मुहैया कराया जा सके।
ऐसी कई घटनाएं हैं जब मुख्यमंत्री ने अखबार की खबरों पर सीधे संग्यान लिया। वोराजी स्वयं कस्बाई संवाददाता रह चुके थे इसलिए जमीनी हकीकत जानते थे।
सन् 1988 में जब वोराजी को केंद्र में भेजकर अर्जुन सिंह को दुबारा मुख्यमंत्री बनाया गया..। इसके बाद प्रदेश में अर्जुन सिंह के खिलाफ जब सिंधिया के साथ उनकी मुहिम शुरू हुई तो पहला ठिकाना विंध्य ही बना।
तबतक वोराजी से संवाद शुरू हो चुके थे। अब मैं दो बड़े नेताओं अर्जुन सिंह के समानांतर वोराजी को भी यहां की पालटिकल ब्रीफिंग देने लगा। इस ब्रीफिंग में रहता एक ही तथ्य था बस कहने का अंदाज अलग-अलग।
मसलन वोराजी को बताया कि अर्जुन सिंंह खेमे के कई विधायक.. मसलन..गरुण मिश्र, वृंदा प्रसाद, कमलेश्वर द्विवेदी आदि आपसे जुड़ने को बेताब हैं..तो अर्जुन सिंह जी को ब्रीफ किया विंध्य से आपके इतने विधायक सटकने वाले हैं। वोराजी के राज में अखबारों का प्रभाव था और पत्रकारों का रसूख। बाद में ऊपर के तीनों नेता मंत्रिपरिषद के सदस्य बने।
आगे चलकर संवेदनहीनता ऐसी आई कि मैहर में रमेश तिवारी हत्याकांड के बाद हुए पुलिस के गोलीकांड में सात लोग मारे गए। सड़क पर तड़पते/मरते हुए घायलों को मैंने देखा। पूरा पहला पन्ना जीवंत रिपोर्टिंग से भर दिया। सरकार ने चूँ से चाँ तक नहीं की..तब सूबे के मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह थे।
वोराजी जीनियस नहीं कर्मठ थे। उनका कर्मठ व्यक्तित्व ही था जिसकी बदौलत उनपर सभी ने विश्वास किया राजीव गांधी ने, नरसिंहराव ने और सोनिया जी के तो वे ताउम्र ओल्डगार्ड बने रहे। अपनेपन के साथ नापतौलकर बोलना उनके व्यक्तित्व में था।
अंतिम बार सांसद सुंदरलाल तिवारी जी के साथ दिल्ली में मिला था 2003 में। उन्हें सबकुछ याद था..मेरे ऊपर उनके सरकार की पड़ी लाठियां भी और वह वाकया भी जिसमें मेरी अर्जी पर एक उम्रदराज दिव्यांग को समस्त नियमों को शिथिल करते तत्काल सरकारी नियुक्ति देदी थी। वोराजी जैसे नेता सदियों में जन्म लेते हैं..जो ‘जस की तस धर दीन्हीं चदरिया’ को चरितार्थ करते हुए इहलोक से प्रस्थान करते हैं।