अनुशासन का दावा करने वाली पार्टी में अनुशासनहीनता का तड़का!

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अनुशासन का दावा करने वाली पार्टी में अनुशासनहीनता का तड़का!

 भारतीय जनता पार्टी हमेशा इस बात का दंभ भरती रही है, कि वो सबसे ज्यादा अनुशासित और कॉडर बेस पार्टी है। उनकी पार्टी में ऊपर से नीचे तक एक व्यवस्था बनी हुई है और अनुशासनहीनता करने वालों के लिए उनके यहां कोई जगह नहीं! यह देखा जाता रहा है कि भाजपा में वास्तव में अनुशासन है। लेकिन, वो अनुशासन अब नहीं बचा। पिछले कुछ सालों में मध्य प्रदेश भाजपा के अनुशासन का ढांचा चरमराने आने लगा। नेता बेलगाम हो गए। वे खुलेआम पार्टी के नीतियों के खिलाफ बोलते हैं और सीधी टिप्पणी करने से भी बाज नहीं आते। लेकिन, न तो उन्हें चुप कराने की कोशिश होती है न कोई अनुशासनात्मक कार्रवाई होती है। बल्कि, अब तो ऐसे नेताओं को मनाने का काम शुरू हो गया। क्योंकि, संगठन भी जानता है कि उसकी कमजोरियां क्या है!

भाजपा ने जबसे चुनावी राजनीति में कदम रखा और लंबी कोशिशों के बाद उसे सत्ता मिली, वो रास्ते से भटक गई। ये पार्टी हमेशा इस बात का दावा करती रही कि वो अनुशासित पार्टी है। उसका हर नेता और कार्यकर्ता अनुशासन की डोर से बंधा है। न तो वे पार्टी के खिलाफ मुंह खोलते हैं और न अंदर की कोई बात बाहर आती है। जब तक पार्टी सत्ता में नहीं थी, यह बात सही भी साबित होती रही। पार्टी ने अपना अनुशासन सिखाया और नेताओं और कार्यकर्ताओं ने उसे समझा भी। लेकिन, अब यह धारणा पूरी तरह खंडित हो गई! हाल ही में जिन नेताओं ने अनुशासन की बागड़ तोड़ी, उन्हें अनुशासनहीनता का नोटिस देने के बजाए मनाने की कोशिशें ज्यादा की जा रही है।

Opinion Poll

ताजा मामला मालवा क्षेत्र के तीन भाजपा नेताओं की नाराजगी, विद्रोह और पार्टी के खिलाफ बयानबाजी के रूप में सामने आया। इनमें से एक नेता दीपक जोशी तो पार्टी छोड़कर कांग्रेस में चले गए। जबकि, सत्यनारायण सत्तन और भंवरसिंह शेखावत अभी पार्टी में है। दोनों को मनाने की कोशिशों में सत्तन के तेवर तो मुख्यमंत्री से मिलने के बाद ठंडे पड़ गए। लेकिन, भंवरसिंह शेखावत की नाराजी अभी बरक़रार है। इस पूरे घटनाक्रम में सबसे आश्चर्य की बात यह है इतने दिनों बाद भी पार्टी ने किसी नेता को अनुशासनहीनता का कोई नोटिस नहीं दिया। न उनसे कोई जवाब-तलब ही किया गया।

ऐसा क्यों हुआ, यह बात स्पष्ट समझी जा सकती है कि पार्टी के संगठन को अपनी खुद की कमजोरी का पता है। उनके सामने इन बागी नेताओं ने जो सवाल खड़े किए, उसका संगठन के पास कोई जवाब नहीं है। सभी नाराज नेताओं ने एक ही बात कही कि पार्टी में संवाद के दरवाजे बंद हो गए। अब पार्टी में कार्यकर्ताओं की बात कोई नहीं सुनता! यह बात इस स्थिति में सही लगती है कि इन तीनों नाराज नेताओं का आपस में कोई संबंध नहीं है। इन्होंने कोई योजनाबद्ध तरीके से पार्टी के खिलाफ मोर्चा नहीं खोला और न इन तीनों का ये कोई साझा अभियान था।

लेकिन, तीनों ने संवादहीनता और पार्टी के वरिष्ठ और अनुभवी नेताओं की उपेक्षा की जो बात कही, उसे कई तरीके से समझा जा सकता है। यह स्थिति बीते कुछ सालों में ज्यादा बढ़ी है, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता! ज्योतिरादित्य सिंधिया के भाजपा में अपने समर्थकों के आने के बाद जिस तरह पार्टी की विचारधारा और काम करने की शैली में अंतर आया, उसने भारतीय जनता पार्टी की रीति नीति को पूरी तरह नष्ट कर दिया।

भंवरसिंह शेखावत

भंवरसिंह शेखावत ने तो साफ़ आरोप लगाया कि भाजपा के किसी भी मंत्री पर कभी भ्रष्टाचार के इतने आरोप नहीं लगे, जितने सिंधिया समर्थक मंत्रियों पर कुछ ही दिनों में लग गए। इसका सीधा सा मतलब है कि पार्टी संगठन इन मंत्रियों के खिलाफ उठ रही आवाजों और उन सूचनाओं को नजरअंदाज कर रहा है, जिस पर कार्रवाई होनी चाहिए। अभी तक एक बार भी ऐसा नहीं लगा कि सिंधिया के जिन मंत्रियों के कारनामे बाहर आए, उनमें से किसी को नोटिस दिया गया या उनसे कभी पूछताछ की गई हो! शेखावत ने तो बकायदा नाम एक मंत्री का नाम लेकर आरोप लगाए।

आश्चर्य की बात है कि पार्टी की तरफ से न तो शेखावत को अनुशासनहीनता का नोटिस दिया गया और न अपनी तरफ से सफाई दी गई। यही स्थिति सत्यनारायण सत्तन के साथ भी है। उन्होंने तो ऊपर से नीचे तक पार्टी को धोकर रख दिया। उन्होंने नरेंद्र मोदी से लगाकर अमित शाह तक को नहीं छोड़ा। यह सवाल भी किया कि यदि चुनाव में खड़े होने के लिए कोई उम्र का बंधन है, तो वह नरेंद्र मोदी और अमित शाह पर लागू क्यों नहीं होता! सवाल गलत नहीं है! आप पार्टी के बड़े नेता हैं, तो भी आप पार्टी की रीति नीति से विलग नहीं रह सकते।

बात यहीं तक सीमित नहीं है। पार्टी के पुराने नेता रघुनंदन शर्मा ने भी जिस तरह पार्टी की धज्जियां उड़ाई, वह सबसे ज्यादा चिंता की बात है। उन्होंने भाजपा तुलना पांचाली की। यह तुलना कितनी सही है या गलत है ये अलग बात है। लेकिन, उन्होंने जो कहा वह पार्टी संगठन के लिए बेहद चिंतन का विषय तो है! उन्होंने कहा कि प्रदेश में संगठन के पांच प्रभारी हैं और वे कुछ नहीं कर रहे! इसलिए पार्टी की हालत उस द्रोपदी जैसी हो गई है जिसके पांच पति थे। उन्होंने पांचों प्रभारियों पर सीधी उंगली उठाई, जिनकी भूमिका सिर्फ मीटिंग तक सीमित हो गई।

यह सही है कि भाजपा अब महज मीटिंग वाली पार्टी बनकर रह गई। वही चार चेहरे भोपाल से लगाकर इंदौर तक दिखाई देते हैं। पर, कोई इस बात की चिंता नहीं करता कि संवादहीनता के बेड़ियां तोड़ी जाए! जो पार्टी के अनुभवी और चिंतक नेता हैं, उनकी बातों को सुना जाए। पुराने नेताओं के अनुभवों का लाभ लिया जाए। तीन साल में ये हालात ज्यादा बिगड़े दिखाई दिए हैं।

अभी पार्टी में ऐसे नेता मौजूद हैं, जिन्होंने हिंदू महासभा से लगाकर जनसंघ और भारतीय जनता पार्टी तक में चुनाव जीते हैं। उन्होंने पार्टी का उत्थान भी देखा है और आज वैचारिक पतन भी देख रहे हैं। जिन्होंने आपातकाल में जेल भी भोगी। उसके बाद भी वे पार्टी के नियम-कायदों से बंधे हैं। रघुनंदन शर्मा की पीड़ा भी वही है, जो फूटकर बाहर आई।

जबकि, आज हर समय पार्टी संगठन को सत्ता का भोग ही दिखाई देता है। युवा नेतृत्व के नाम पर ऐसे लोगों को जिम्मेदारी दी जा रही है, जिन्हें भाजपा या संघ की विचारधारा से कोई सरोकार नहीं! वे अब न तो किसी वरिष्ठ नेता से मिलते हैं न कभी बात करते हैं। यहां तक कि उन्हें मीटिंग में भी नहीं बुलाया जाता। ऐसी स्थिति में पार्टी के इन जमीनी नेताओं का भधड़कना स्वाभाविक है, जो अब सामने आया!

इसके पीछे सिर्फ संगठन को ही दोषी ठहराया जा सकता है और किसी को नहीं! क्योंकि, जब संगठन के जवाबदार नेता गैर जिम्मेदारी से काम करेंगे तो स्वाभाविक है, कि उनके चेले भी उनसे दो कदम आगे निकलने का मौका नहीं छोड़ेंगे! यह स्थिति चुनाव के सात महीने पहले सामने आना उस पार्टी के लिए बेहद चिंताजनक बात है, जो अनुशासन का दंभ भरती रही है। क्योंकि, सिर्फ सरकारी योजनाओं का लाभ पहुंचाकर लोगों से वोट नहीं लिए जा सकते। ऐसे लोगों की संख्या बहुत सीमित है। जब पार्टी अनुशासन तोड़ने वालों को नोटिस देने के बजाए उन्हें पुचकारने लगेगी, तो उनकी तरह विद्रोह करने वालों को शह ज्यादा मिलेगी! इसका नतीजा क्या होगा, इसका अनुमान लगाया जा सकता है!

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Hemant pal
हेमंत पाल

चार दशक से हिंदी पत्रकारिता से जुड़े हेमंत पाल ने देश के सभी प्रतिष्ठित अख़बारों और पत्रिकाओं में कई विषयों पर अपनी लेखनी चलाई। लेकिन, राजनीति और फिल्म पर लेखन उनके प्रिय विषय हैं। दो दशक से ज्यादा समय तक 'नईदुनिया' में पत्रकारिता की, लम्बे समय तक 'चुनाव डेस्क' के प्रभारी रहे। वे 'जनसत्ता' (मुंबई) में भी रहे और सभी संस्करणों के लिए फिल्म/टीवी पेज के प्रभारी के रूप में काम किया। फ़िलहाल 'सुबह सवेरे' इंदौर संस्करण के स्थानीय संपादक हैं।

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