कश्मीर और बंगाल के जुल्मों का जिम्मेदार कौन

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सत्ता में रहते हुए सामान्य लोगों पर ज्यादतियों , हत्याओं पर जिम्मेदार कौन का सवाल हमेशा उठता रहा है | पश्चिम बंगाल में हाल में हत्याओं का सिलसिला अब सारी सीमाएं लाँघ रहा है | रात के अँधेरे में गरीब घरों के ग्यारह लोगों को जिन्दा जलाए जाने की घटना में ममता बनर्जी की पार्टी के समर्थकों की भूमिका के आरोपों से मुद्दा राष्ट्रीय बन गया |  घटना की जांच के साथ ममता से इस्तीफे और  पश्चिम बंगाल में राष्ट्रपति शासन तक की मांग हो गई | इसी बीच कश्मीर फाइल्स फिल्म विवाद में कश्मीरी पंडितों पर 1988 – 89 में  हुए जुल्मों , हत्याओं और उनके पलायन के लिए तत्कालीन मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला और प्रधान मंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह के जिम्मेदार होने के तथ्यों पर भी विवाद गर्माया है | इस्तीफों की राजनीति पर कुछ बातें याद दिलाना आवश्यक लगता है | वास्तव में नेता आसानी से कभी इस्तीफ़ा नहीं देते | यदि किसी घटना और दबाव में इस्तीफा देते भी है , तो उस  समय अपनी छवि बचाने – चमकाने और बाद में उसका लाभ उठाने का प्रयास करते हैं |

शास्त्री युग की बात अलग थी | तब नैतिकता ईमानदारी जीवन के प्रमुख मूल्य थे |बाद के पांखण्ड काल के  बड़े नाम में विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रमुख कहे जा सकते थे | मेरी उनसे पहली मुलाकात 1972 में हुई थी , जब वे इलाहाबाद से युवा शिक्षित नेता के रुप में उभरे और इंदिरा गाँधी की सरकार में वाणिज्य  उप मंत्री बने थे | तब खबरों के साथ कविता और कला में उनकी रुचि देखकर अच्छा लगा था | दो तीन वर्ष बाद उन्हें मेरे एक सहयोगी कार्टूनिस्ट के कार्टून की प्रदर्शनी के उद्घाटन के लिए बुलाया था | फिर 1977 में लोक सभा चुनाव के दौरान उनके फूलपुर –  मांडा इलाके में जाकर उनके कार्यक्रम देखे | लेकिन इंदिरा गाँधी के साथ वह चुनाव हार गए |

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बहरहाल 1980 में इंदिराजी के साथ वह भी जीते | कुछ समय केंद्र में रहकर उन्होंने कभी इंदिरा के करीबी दिनेश सिंह के विकल्प के रुप में उभरने में सफलता पा ली | इसलिए जल्द ही  जून 1980 में    उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बनाकर भेज दिए गए | पुराने तपे तपाए और जातीय समीकरणों वाले नेताओं के बीच जाकर राज करना कठिन था | सामाजिक प्रशासनिक राजनीतिक दबाव और पार्टी की खींचातानी से विचलित होते रहे | तब उत्तर प्रदेश डाकुओं के हमलों – हत्याओं से भी प्रभावित था | इसलिए 1980 और 1981 में सांप्रदायिक दंगे तथा  डाकुओं के हमलों और बड़ी संख्या में हत्याओं के बाद उन्होंने कांग्रेस आला कमान के सामने खुद इस्तीफ़ा देने की पेशकश की |

उनके साथी या विरोधी इस तरह के प्रयास को नाटकबाजी – पाखंड आदि कहते रहे | केन्दीय नेता भी समझते थे कि यह अंदरूनी खींचातानी से बचाव के लिए राजनीतिक हथियार है | बहरहाल उनकी प्रशासनिक विफलता का सबसे बड़ा प्रमाण मार्च 1982 में मिला , जब बाँदा में उनके ही भाई चंद्रशेखर प्रसाद सिंह और भतीजे अजीत प्रताप की हत्या हो गई | फिर 28 जून को मैनपुरी – कानपूर में डाकुओं ने 21 लोगों की हत्या कर दी | तब विश्वनाथ प्रताप सिंह ने सरकार की विफलता की जिम्मेदारी मानकर उसी दिन मुख्यमंत्री पद से इस्तीफ़ा दे दिया | इस्तीफे में उन्होंने अपनी विफलता स्वीकारी | लेकिन इस बार भी उन्होंने चतुराई दिखाई | आला कमान या किसी सहयोगी को बताए बिना त्याग पत्र दिया | मतलब , कांग्रेस की गुटबाजी को आगे बढ़ने दिया तथा अपनी छवि बनाने की कोशिश की |

अपनी कमजोरियों को राजनैतिक ताकत बनाने में वह माहिर थे | इसलिए इंदिरा गाँधी के बाद वह राजीव गाँधी के सत्ता काल में वित्त और रक्षा मंत्री बन गए , लेकिन प्रदेश में मुख्यमंत्री और देश में प्रधान मंत्री का सपना पालने के कारण उन्होंने बोफोर्स कांड में भ्रष्टाचार का मुद्दा बनाया और अन्य कांग्रेसी नेताओं के साथ विद्रोह कर दिया | कांग्रेस विरोधी दलों ने उन्हें कन्धों पर उठा लिया | 1989 के मध्यावधि चुनाव में उनके समर्थकों ने नारा दिया – राजा नहीं फ़क़ीर है , देश की तकदीर है ‘ | इस तरह वह जनता दल और भारतीय जनता पार्टी के बल पर प्रधान मंत्री बन गए | उनकी सरकार में मुफ़्ती मोहम्मद सईद गृह मंत्री बने |

यहीं से कश्मीर के जुल्मों का सिलसिला शुरु होता है | जम्मू कश्मीर की कमान फारूक अबुल्ला के हाथ में थी | आतंकवादी गुट अपनी गतिविधियां बढ़ा रहे थे कुछ आतंकवादी जेल में थे | तभी मुफ्ती की बेटी रुबिया सईद का अपहरण हो गया | फारूक मुख्यमंत्री रहते हुए भी  मौज मस्ती करने के लिए लंदन जाते रहते थे | अपहरण के दौरान भी वह लंदन में थे | तब केंद्र सरकार की इंटेलीजेंस एजेंसियों , वरिष्ठतम अधिकारियों ने अपहरणकर्ताओं से संपर्क कर सौदेबाजी की | उन दिनों मुफ़्ती और फारूक के खेमे एक दूसरे को नीचा दिखाने और आतंकवादियों को पालने के आरोप लगते थे | इसलिए यहाँ तक कहा गया कि मुफ़्ती ने स्वयं अपहरण का नाटक कराया |

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बहरहाल , फारूक के दिल्ली आने पर वी पी सिंह और उनके अधिकारियों ने अपहरणकर्ताओं की मांग पूरी कर उनके सरगनाओं को जेल से रिहा करने के लिए फारूक अब्दुल्ला पर हर संभव दबाव डाला | इंटेलीजेन्स के तत्कालीन वरिष्ठ अधिकारी ए एस दुलत के अनुसार फारूक उन्हें छोड़ने का विरोध करते रहे और उनकी बात न माने जाने पर तत्काल इस्तीफ़ा भी दे दिया | उनके हटने के साथ आतंकवादियों और उनके समर्थकों ने श्रीनगर तथा अन्य हिस्सों में कश्मीरी पंडितों , उनके घरों पर भयानक हमले किए जिससे लाखों  कश्मीरी पंडित परिवारों को पलायन कर देश के अन्य भागों में शरण लेनी पड़ी | इस तरह की हिंसा और नर संहार पर वी पी सिंह ने इस्तीफ़ा नहीं दिया | इसलिए कश्मीर में पंडितों पर जुल्मों के लिए उन्हें अधिक जिम्मेदार क्यों नहीं माना जाए ?

 कश्मीर में फारूक अब्दुल्ला या उत्तर प्रदेश में वी पी सिंह द्वारा हत्या कांड के बाद इस्तीफे दिए जाने को नैतिक जिम्मेदारी कहा गया , तो पश्चिम बंगाल में निरंतर हो रहे हत्या कांड के लिए क्या मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए इस्तीफे की मांग को कैसे गलत कहा जा सकता है ? वह भी तो वी पी सिंह की तरह कला और कविता से लगाव के नाम पर संवेदनशील होने का दावा करती हैं | यह ठीक है कि ममता को चुनावी सफलताएं मिली हैं | लेकिन किस कीमत पर ? उन्होंने अन्य दलों की तरह अपराधियों , माओवादी पृष्ठभूमि वाले कथित स्थानीय नेताओं को तृणमूल कांग्रेस में शामिल कर लिया | वही लोग पहले भाजपा नेताओं और समर्थकों पर हमले और हत्याएं करते रहे |

Mamta Banerjees

अब पराकाष्ठा यह हो गई कि तृणमूल के अपराधी तत्व डाकुओं की तरह अलग अलग गुटों में बाँट गए और एक दूसरे के समर्थकों , उनके घरों पर हमले कर जिन्दा जलाने तक के जघन्य अपराध करने लगे हैं | सत्तारूढ़ लोगों के झगड़ों के कारण पुलिस मूक दर्शक बानी रहती है | एक घटना पर दुःख गुस्सा जताकर एक से पांच लाख का मुआवजा देने से क्या गरीब लोगों को सही न्याय मिल सकेगा ? जरुरत है राज्य और केंद्र सरकारें मिलकर अपराधी तत्वों पर कठोर कार्रवाई करें | सत्तर के दशक में नक्सलियों को कुचलने के लिए जिस तरह बड़े पैमाने पर पुलिस सुरक्षा बलों ने कार्रवाई की थी , उसी तरह दलीय पूर्वाग्रहों से हटकर अपराधियों पर कठोरतम कार्रवाई हो |

( लेखक आई टी वी नेटवर्क – इंडिया न्यूज़ और आज समाज दैनिक के संपादकीय निदेशक हैं )

Author profile
ALOK MEHTA
आलोक मेहता

आलोक मेहता एक भारतीय पत्रकार, टीवी प्रसारक और लेखक हैं। 2009 में, उन्हें भारत सरकार से पद्म श्री का नागरिक सम्मान मिला। मेहताजी के काम ने हमेशा सामाजिक कल्याण के मुद्दों पर ध्यान केंद्रित किया है।

7  सितम्बर 1952  को मध्यप्रदेश के उज्जैन में जन्में आलोक मेहता का पत्रकारिता में सक्रिय रहने का यह पांचवां दशक है। नई दूनिया, हिंदुस्तान समाचार, साप्ताहिक हिंदुस्तान, दिनमान में राजनितिक संवाददाता के रूप में कार्य करने के बाद  वौइस् ऑफ़ जर्मनी, कोलोन में रहे। भारत लौटकर  नवभारत टाइम्स, , दैनिक भास्कर, दैनिक हिंदुस्तान, आउटलुक साप्ताहिक व नै दुनिया में संपादक रहे ।

भारत सरकार के राष्ट्रीय एकता परिषद् के सदस्य, एडिटर गिल्ड ऑफ़ इंडिया के पूर्व अध्यक्ष व महासचिव, रेडियो तथा टीवी चैनलों पर नियमित कार्यक्रमों का प्रसारण किया। लगभग 40 देशों की यात्रायें, अनेक प्रधानमंत्रियों, राष्ट्राध्यक्षों व नेताओं से भेंटवार्ताएं की ।

प्रमुख पुस्तकों में"Naman Narmada- Obeisance to Narmada [2], Social Reforms In India , कलम के सेनापति [3], "पत्रकारिता की लक्ष्मण रेखा" (2000), [4] Indian Journalism Keeping it clean [5], सफर सुहाना दुनिया का [6], चिड़िया फिर नहीं चहकी (कहानी संग्रह), Bird did not Sing Yet Again (छोटी कहानियों का संग्रह), भारत के राष्ट्रपति (राजेंद्र प्रसाद से प्रतिभा पाटिल तक), नामी चेहरे यादगार मुलाकातें ( Interviews of Prominent personalities), तब और अब, [7] स्मृतियाँ ही स्मृतियाँ (TRAVELOGUES OF INDIA AND EUROPE), [8]चरित्र और चेहरे, आस्था का आँगन, सिंहासन का न्याय, आधुनिक भारत : परम्परा और भविष्य इनकी बहुचर्चित पुस्तकें हैं | उनके पुरस्कारों में पदम श्री, विक्रम विश्वविद्यालय द्वारा डी.लिट, भारतेन्दु हरिश्चंद्र पुरस्कार, गणेश शंकर विद्यार्थी पुरस्कार, पत्रकारिता भूषण पुरस्कार, हल्दीघाटी सम्मान,  राष्ट्रीय सद्भावना पुरस्कार, राष्ट्रीय तुलसी पुरस्कार, इंदिरा प्रियदर्शनी पुरस्कार आदि शामिल हैं ।