Analysis Before Election 2024: विपक्षी एकता सीट बंटवारे तक कायम रहेगी?

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Analysis Before Election 2024: विपक्षी एकता सीट बंटवारे तक कायम रहेगी?

तो आखिरकार 2024 में अट्‌ठाहरवीं लोकसभा के लिये चुनाव की तैयारियां प्रारंभ हो ही गईं। विपक्षी नेताओं की अलग-अलग राज्यों की परिक्रमा,मेलजोल तो यही बता रहा है। ये लोग माहौल तो बना रहे हैं कि अगला चुनाव हम साथ-साथ लड़ेंगे। भारतीय लोकतंत्र का वह स्वर्णिम अवसर होगा, जब ज्यादातर या प्रमुख विपक्षी नेता एक जाजम पर बैठेंगे, गले मिलेंगे,गिले-शिकवे दूर करेंगे और शंखनाद करेंगे केंद्र से नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी सरकार को उखाड़ फेंकने के लिये। बस,इनके बीच सीटों का बंटवारा भर शांति से निपट जाये तो समझ लीजिये कि इतिहास करवट ले सकता है। सवाल इतना-सा है कि जिंदगी भर और वर्तमान में भी जो दल एक-दूसरे के खिलाफ तलवारें लहराते रहे हैं, वे एक ही म्यान में तलवारें खोंसने को राजी हो जायेंगे?

जब 20 मई को बैंगलुरु में कांग्रेस सरकार का शपथ ग्रहण समारोह हुआ,

 जब 20 मई को बैंगलुरु में कांग्रेस सरकार का शपथ ग्रहण समारोह हुआ, तब देश भर के विभिन्न राजनीतिक दलों के 27 प्रतिनिधि वहां मौजूद थे।इनकी बड़ी चर्चा थी, लेकिन जो बुलावे के बावजूद नदारद थे या बुलाये ही नहीं गये, उनका मामूली-सा ही जिक्र कहीं-कहीं हो पाया। कश्मीर से पीडीपी ,नेशनल कांफ्रेस,झामुमो,जेडीयू,राकांपा,शिवसेना(उद्धव),राजद आदि के नेता नीतीश कुमार,शरद पवार,तेजस्वी यादव,उद्धव ठाकरे,हेमत सोरेन,एम.के.स्टालिन आदि वहां गये थे, किंतु जो नहीं आये, उनमें ममता बैनर्जी,तेलंगाना के मुख्यमंत्री के.चंद्रशेखर राव,ओड़ीसा के मुख्यमंत्री बीजू पटनायक, बसपा की मायावती,आप के अरविंद केजरीवाल,केरल के मार्क्सवादी मुख्यमंत्री विजयन,आंध्र के मुख्यमंत्री जगन मोहन रेड्‌डी आदि नहीं थे।

यह अब एक चलन और सौजन्य हो चला है कि जिन दलों की सरकारें गठित होती हैं,उनके साथ जिनकी लेन-डोरी मिलती है, वे समारोह में आये-बुलाये जाते हैं। चूंकि अरसे बाद कांग्रेस के हाथ किसी राज्य की सत्ता आई है तो जलसा तो बनता भी है। इसके बाद देश में विपक्षी एकता की स्वर लहरियां फिर से गूंजने लगी हैं। लगे हाथ नीतीश कुमार दिल्ली जाकर अरविंद केजरीवास से मिल लिये । कोशिश है कि इस वर्ष की समाप्ति या अगले बरस की पौ फटने तक विपक्षी जमावड़ी कर लिया जाये। चाहे वह गठबंधन की शक्ल में हो या परस्पर सहमति के तौर पर । ऐसा ही हो तो यह शुभ संकेत है। समान विचारधारा वाले व्यक्तियों-समूहों का जब मिलन होता है तो वे संगठित तरीके से किसी के खिलाफ मोर्चा ले सकते हैं। क्या अगले आम चुनाव में ऐसा संभव है?

Mamta Banerjees

मुझे मुश्किल लगता है और ऐसा इसलिये कि ये तमाम दल ही परस्पर विरोधी रहे हैं और अभी-भी हैं। आम आदमी पार्टी ने दिल्ली और पंजाब की सत्ता कांग्रेस को हटाकर पाई। ममता बैनर्जी ने बंगाल में कांग्रेस और माकपा को परे धकेलकर सरकार बनाई। जगन मोहन रेड्डी और के.चंद्रशेखर राव भला क्यों एक होने लगे। बसपा क्या कांग्रेस,सपा के साथ जाना चाहेगी? बीजू पटनायक न उधो का लेना, न माधौ का देना की तर्ज पर राजनीति करते हैं। वे इस झमेले में क्यों पड़ेंगे।


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 यह सब तो एक तरफ, जब सीटों के बंटवारे की नौबत आयेगी, तब क्या वे दल जो अपने-अपने प्रांतों में वर्चस्व बनाये हुए हैं, वे उत्तर भारत के प्रमुख दलों को अपनी सीटें क्यों देंगे? यह भी कहा जा सकता है कि एक-दूसरे के प्रभुत्व वाले राज्यों में सीटों का तालमेल किये बिना भी चुनाव पूर्व गठबंधन बनाकर मैदान में उतरा जा सकता है। यह व्यावहारिक तौर पर संभव नहीं। वजह यह है कि आम आदमी पार्टी,तृणमुल,भारत राष्ट्र समिति(तेलंगाना),राकांपा,सपा आदि की चाहत राष्ट्रीय स्तर पर अपना जाल फैलाना है। ऐसे में वे दूसरे राज्यों से प्रत्याशी उतारे बिना अपने मंसूबे पूरे नहीं कर सकते। याने उन्हें दूसरे राज्यों में भी समझौते के तहत कुछ सीटे लेने की चाहत रहेगी। तब उस राज्य में प्रभावी दल अपने वर्चस्व की सीटें कम करने की कुल्हाड़ी अपने पैर पर नहीं चलायेगा। जाहिर सी बात है कि तब विपक्षी एकता पारे की तरह बिखर जायेगी, जो किसी सूरत में समेटी नहीं जा सकती।


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हां,इसका एक फायदा यह जरूर है कि तब तक ये दल भाजपा में बेचैनी बढ़ाते रहेंगे और जनता के बीच माहौल बनाये रख सकते हैं कि वे मिलकर भाजपा से टक्कर लेंगे। उनकी यह रणनीति इस मायने में ठीक कही जा सकती है कि ये क्षेत्रीय दल अपने-अपने जिन राज्यों में जातिगत प्रभाव कयम किये हुए हैं, उनका ध्रुवीकरण कर मत प्रतिशत बढ़ाने में सफल हो सकते हैं। सीधे तौर पर कहें तो भाजपा को वणिकों,वैष्णवों,साहूकारों का हितेषी बताकर पिछड़े,दलित,मुस्लिम,अनुसूचित जाति,जनजाति मतदाताओं को अपने छाते के नीचे आने का आव्हान तो कर ही सकते हैं।

(क्रमश:)