अपनी भाषा अपना विज्ञान:फिल्म हिचकी में रानी मुखर्जी: टूरेट सिन्ड्रोम और टिक्स
यह खुशी और संतोष की बात है कि भारतीय सिनेमा में नये निर्देशक लीक से हट कर नये विषयों पर, फार्मूला और मसाला के बिना, अच्छी और मनोरंजक फिल्में बना रहे हैं। फिल्म “हिचकी” में अंकुर चौधरी और सिद्धार्थ मल्होत्रा ने अच्छी पटकथा और निर्देशन के द्वारा एक Rare या दुर्लभ न्यूरोलॉजिकल बीमारी “टूरेट सिन्ड्रोम” के बारे में जागरुकता और समझ बढ़ाने का भला काम किया है।
एक अन्तराल के बाद रानी मुखजी की पुनर्वापसी, सफलतापूर्वक अनूठे अन्दाज में हुई है।
टूरेट सिण्ड्रोम का मुख्य लक्षण है “टिक”। बहुवचन में कहें तो “टिक्स”। “टिक” लघु अवधि के मूवमेन्ट होते हैं। एक सेकण्ड से कुछ कम या कुछ ज्यादा। अचानक, अपने आप बिना कारण, हर कहीं, हर कभी आते हैं और चले जाते हैं। शरीर के किसी भी भाग में। पलकें, पुतलियां, होठ, जीभ, चेहरा, गर्दन, कन्धा, भुजाएं, हाथ, बदन, पांव। कहीं भी।
एक समय में एक जगह। अगली बार कहीं और जगह या पुनः पुनः उसी जगह या एक साथ अनेक जगह। टिक्स की गति निराली होती है। कभी जल्दी जल्दी, लगातार जोर-जोर से तो कभी रुक-रुक कर अनेक मिनिटों या घण्टों के अन्तराल पर। पता नहीं रेट-कन्ट्रोल का खटका कैसे संचालित होता है। बड़ी देर तक शान्त रहने के बाद क्यों अचानक फुदक उठते हैं?
छोटे-मोटे, यदा-कदा टिक्स अनेक नार्मल स्वस्थ बच्चों और बड़ों में देखने को मिलते हैं। कुछ बच्चों में थोड़े से ज्यादा होते हैं। लोगों का ध्यान जाता है। कुछ अजीब सा लगता है। हम कहते हैं ‘यह बच्चा, पता नहीं क्यों, ये-ये हरकतें करता है। उसे कैसी आदत पड़ गई है?” कुछ सप्ताहों या महीनों के बाद वे टिक्स चले जाते हैं। गायब हो जाते हैं।
कुछ बच्चों में वे बने रहते हैं। अनेक वर्षों तक चलते रहते हैं। वयस्क होने तक जारी रहते हैं। लागे कहते हैं ‘यह उसका स्वभाव है” अंग्रेजी में Mannerism (मेनरिज्म) और Habit spasm (हेबिट स्पाज्म) कहते हैं।यदि इनकी तीव्रता कम हो, तो लगभग 10 प्रतिशत जनसंख्या में इन्हें कभी न कभी पाया जा सकता है।
मानव मात्र की फिजियालोंजी में छोटी-छोटी, बेमतलब सी, अकारण हरकत करना शायद कोई उपयोगी भूमिका रखता हो? हमारे मोटर सिस्टम को सदैव तैयार रखने के लिये? शरीर और वातावरण से सतत् फीडबेक पाने के लिये.? मानों कि हर कुछ मिनिटों पर माइक टेस्टिंग कर रहे हो? सब ठीक तो है न? या फिर शायद मन की सक्रियता की करंट, मोटर सिस्टम तक, गलती से शार्ट सर्किट के माध्यम से, पहुँच कर उसे बार-बार, गाहे बगाहे उकसाती रहती हो।
कहने का तात्पर्य यह है कि “टिक्स’ नामक मूवमेन्ट हमारी मोटर (प्रेरक) फिजियालॉजी का एक लघु आयाम है। मुश्किल तब होती है जब ये टिक्स अपनी आवृति, आकार, तीव्रता, जटिलता और शारीरिक व्यापकता में जरा ज्यादा ही बढ़ जाते हैं और लम्बे समय तब बने रहते हैं। “जरा ज्यादा की सीमा रेखा खींचना मुश्किल होता है।
क्या हम जाग्रत अवस्था में कुछ सेकण्ड से अधिक अचलायमान रह सकते हैं? बच्चों का खेल होता है- “मूर्ति”! “स्टेच्यू”। बच्चे को कुछ समय के लिये पूर्ण रूप से स्थिर, मूर्ति का रूप धारण करना होता है। छोटे बच्चों के लिये कठिन होता है। माता-पिता प्रायः शिकायत करते हैं “यह सीधा तो एक पल नहीं रह सकता”। बड़े होते होते हमारी नियंत्रण क्षमता बढ़ती है, पर उसकी एक लिमिट होती है। तपस्वी साधुओं का अपवाद छोड़ दो वरना, हम सांसारिक लोग प्रति पल हिलते डुलते रहते हैं। कोई काम न कर रहे हो तो भी शरीर के किसी न किसी कोने में, कोई न कोई मांसपेशी, छुटपुट रूप से हरकत जरूर कर रही होती है। एक बार किसी को कुछ दूर से, कुछ देर तक, लगातार, बस देख कर देखना।
फिल्म हिचकी में रानी मुखर्जी (मिस पूजा माथुर) को टूरेट सिण्ड्रोम के कारण बार-बार टिक्स आते हैं। पूजा गर्दन को झटकती है, हथेली को ठुड्डी से रगड़ती है और जोर से “यक” “यक” चिल्लाती है। निर्देशक ने रानी मुखर्जी से ये गिने-चुने प्रकार के टिक्स करवाए, वरना टूरेट सिण्ड्रोम के अधिकांश मरीजों में और भी अधिक-अधिक वैरायटी की हरकतें होती है। हर मरीज में दस-पन्द्रह प्रकार की टिक्स उल्ट-पुल्ट क्रम से होती रहती है। एक ही मरीज में कुछ सप्ताहों या महीनों के अन्तराल पर टिक्स का रूप बदल भी सकता है। पुरानी चली जाती है। नयी आती रहती है।
नाना प्रकार की आवाजें निकालना भी टिक्स का एक स्वरूप है। कोई अस्फुट से स्वर। अर्थहीन ध्वनियां। कुछ जाने पहचाने शब्द या वाक्यांश। वही वही आवाजें, बार-बार या फिर बदल-बदल कर। उन ध्वनियाँ, शब्दों या वाक्यांशों में, कल्पना को खींच कर यदि काई अर्थ ढूंढना चाहाँ, तो शायद कभी कुछ प्रतीत हो, पर प्रायः होता नहीं।
इन हरकतों और आवाजों का दायरा बहुत व्यापक होता है। प्रायः ये सरल और लघु होती है। परन्तु कभी-कभी जटिल और दीर्घ भी। ऐसा अनेक बार होता है कि ये टिक्स हमारे दैनिक जीवन की किसी नार्मल मोटर गतिविधि से मिलती जुलती हॉ। और ऐसा भी कि वैसी गतियां कोई भी सामान्य इन्सान कभी न करता हो।
क्या रानी मुखर्जी की गर्दन के झटके और हिचकियां कहीं न कहीं, किसी न किसी सामान्य गति से मेल खाते हैं? लोगों के उत्तर अलग-अलग हो सकते हैं।
टूरेट सिण्ड्रोम वाले व्यक्ति दूसरों की नकल करते प्रतीत हो सकते हैं। आसपास जो घटित और गुंजित हो रहा हो उसका एक छोटा सा अंश, उनकी टिक की दुकान में शरीक हो जाता है। चारों ओर के वातावरण का बहुत अंसर होता है। पूजा माथुर जैसी लड़कियां चीजों को छूती है, धकेलती हैं, सरकाती है, सूंघती है।
फिल्म हिचकी में रानी मुखर्जी द्वारा बहुत अच्छे संवाद बुलवाए गए है। टूरेट सिण्ड्रोम वाले सभी व्यक्तियों में वही माद्दा, साफगोई, आत्मविश्वास होना चाहिये। शर्म या ग्लानि नहीं होना चाहिये। अपनी अवस्था के बारे में प्रतिदिन बार-बार तमाम लोगों को ठीक तरह बताने की कला होना चाहिए। कभी चिढ़ या उफ् नहीं होना। लोग जानते नहीं है, इसमें उनका क्या दोष? मिस पूजा माथुर अपने टूरेट सिण्ड्रोम को “वह” कर सम्बोधित करती है। तृतीय वचन में। Third person में। “वह” मेरे साथ, मेरे अन्दर रहता है।” “वह अपनी मर्जी का मालिक है, मेरा उस पर जोर नहीं चलता”
फिल्म हिचकी में मिस पूजा माथुर तमाम बाधाओं पर विजय पाती है, लोकप्रिय शिक्षिका रहती है। सफल प्रिन्सिपल बनती है। टूरेट साथ रहता है। उनकी जिन्दगी का हिस्सा बन कर। एक छोटा सा हिस्सा। पूजा को टूरेट नहीं होता। टूरेट को पूजा जैसी खुद्दार स्त्री मिलती है।
लेकिन टूरेट के सब मरीज इतने सौभाग्यशाली नहीं होते। न्यूरोलॉजिस्ट के रुप में हमारा सामना सब प्रकार के मरीजों से पड़ता है। अनेक टूरेटर्स बुद्धि से कमजोर होते हैं। पढ़ाई में आगे नहीं बढ़ पाते। उनके चित्त में एकाग्रता की कमी होती है। किसी एक बात से कुछ ही समय में उनका ध्यान सतत् विचलित होता रहता है। इसलिये नया सीखने की क्षमता कम होती है। न केवल शरीर बल्कि मन में भी अतिचंचलता रहती है। बार-बार कुछ बेमतलब सी हरकत करने का मन करता है। ओ.सी.डी. अर्थात् Obsessive Compulsive Disorder के लक्षण देखने को मिलते हैं।
मूवमेन्ट डिसआर्डस् (गति-रोग) के अनेक उदाहरणों में टिक्स ऐसा है जो कुछ हद तक लघु अवधि के लिये बच्चे द्वारा रोका जा सकता है। डांट पड़ने पर, आदेश मिलने पर बच्चा कट्ठा दिल करके अपनी हरकतों को रोकने की कोशिश करता है। कुछ सेकण्ड्स या एक दो मिनिट के लिये सफल प्रतीत होता है। इस अवधि में उसके मन में टेंशन बढ़ता जाता है। प्रतिपल असहनीय होता जाता है। उन हरकतों पर से ब्रेक हटा देने का मन करता है। मौका मिलते ही या नजर चुरा कर जब ढेर सारे टिक्स की ऊर्जा रिलीज होती है तो मन हल्का हो जाता है।
डॉक्टर के परामर्श कक्ष में बच्चा शान्त बैठता है। वह सोचता है कि मुझे ठीक से बिहेव करना है। माता-पिता कहते हैं ‘सर आपके सामने बड़ा सीधा बैठा है। बाहर जाते ही फिर चालू हो जायेगा”।
इसके विपरीत पूजा माथुर जैसे वयस्क मरीजों में ये टिक्स तनाव, क्रोध, उत्तेजना, व्यग्रता की स्थितियों में बढ़ जाते हैं- जैसे कि इन्टरव्यूह के समय या स्कूल प्रशासन द्वारा उसकी बात न मान कर पूरी क्लास को सस्पेन्ड कर देना। प्रसिद्ध न्यूरोलॉजिस्ट, मेरे प्रिय लेखक दिवंगत डॉ. ऑलिवर सेक्स ने टूरेट सिन्ड्रोम के कुछ मरीजों का विस्तृत, सजीव व हृदयस्पर्शी वर्णन किया है। वे बताते है एक डॉक्टर के बारे में जिसका पूरा शरीर टिक्स के कारण नाचता रहता था। या मानों विदूषक जैसी हरकतें करता था। छूना, सरकाना, झुकना, मुड़ना, घूमना, हाथ फेरना, नाना प्रकार की गतियां। ऊपर से ओ.सी.डी. की मजबूरियां | चश्मा साधा करना, मूंछ के बाल संवारना, गला खंकार के साफ करना, टेबल पर चीजों को एडजस्ट करना। न करो तो परेशानी। बैचेनी बढ़ती जाती, जो करने पर टेम्पेररी कम हो जाती । करो तो परेशानी । काम लम्बा खिंचता है। अनावश्यक ऊर्जा खर्च होती है। अजीब सा दिखता है। लोग हंसते है। परन्तु वही डॉक्टर ऑपरेशन थिएटर में, सर्जरी करते समय, बिना कांपे, बिना बिदके, सधे हुए हाथों से सटीक चाकू चलाता और टांके लगाता था। और पियानो बजाते समय दोनों हाथों से बारीक और द्रुत लय में संगीत का सृजन करता था। काम खत्म होते ही टिक्स का रुका हुआ झरना फिर बहने लगता था।
टूरेट सिण्ड्रोम का कारण अज्ञात है। अनेक दशकों तक इसे मनोवैज्ञानिक या मानसिक रोग माना जाता रहा था। सोचते थे कि व्यक्तित्व या चरित्र में कमी है। बन्दा दिमाग से ढीला है। नैतिक रुप से पतित है, तभी तो स्वयं पर नियंत्रण नहीं रख पाता। कुछ अन्य सायकोलॉजिस्ट, मरीज के बजाय दोष कहीं और देखते थे। “पता नहीं बचपन कैसा बीता?” “माता-पिता ने परवरिश अच्छी न करी”। “जरुर कोई मेन्टल शॉक लगे होंगे।”
अब यह निश्चित है कि टूरेट मानसिक रोग नहीं है। यह ब्रेन की बीमारी है। मस्तिष्क के अनेक खास हिस्सों में व्याप्त मोटर सिस्टम के सर्किट्स में व्यवधान है। यह रोग विकृति अत्यन्त सूक्ष्म है इसलिये सी.टी. स्कैन, एम.आर.आई., ई.ई.जी. आदि किसी भी जांच में पकड़ नहीं आती। अन्दर है जरुर। हार्डवेयर ठीकठाक दिखता है। सॉफ्टवेयर के लेवल पर गड़बड़ी होती है।
कुछ अन्य मरीजों में सम्भावित कारण का अनुमान लग जाता है। मस्तिष्क में किसी भी प्रकार की रोग विकृति (पैथालॉजी) टिक्स और टूरेट सिण्ड्रोम का कारण बन सकती है। जन्मजात खराबी, इन्फेक्शन (मेनिन्जाईटिस, एनसेफेलाइटिस), ऑक्सीजन व रक्त प्रवाह में कमी का हादसा, सिर की चोट आदि। बहुत थोड़े से मरीजो में टिक्स और टूरेट सिण्ड्रोम एक ही परिवार के अनेक सदस्यों में देखने को मिलता है। इसके लिये जिम्मेदार कुछ जीन्स को चिन्हित किया गया है।
टिक्स का औषधि उपचार संतोषजनक नहीं है। हेलोपेरिडॉल, ट्रॉय-हेक्सी-फनिडिल, पीमोझाइड, टेट्रावेनाजीन नाम की दवाइयों से कुछ मरीजों में आंशिक लाभ होता है। हरकतें थोड़ी दब जाती है। दुष्प्रभाव भी होते हैं। सुरती, ढीलापन, उनींदापन, मन का फ्रेश न होना आदि लक्षण कुछ मरीज सहन कर लेते हैं तो कुछ बिल्कुल नहीं। टिक्स के अलावा टूरेट सिण्ड्रोम के अन्य लक्षण जैसे कि बुद्धि का कम तीक्ष्ण होना, अतिचंचलता, एकाग्रता में कमी और ओ.सी.डी. का उपचार और भी कठिन है। हालांकि कुछ दवाईयां
देते हैं। सायकोथेरापी और बिहेवियर थेरापी शायद काम करती हो।
समय समय पर कुछ प्रसिद्ध लोग (Celebrities) खुद होकर अपने आप के बारे में उजागर करते हैं कि उन्हें टोरेट सिन्ड्रोम है, उन्हें टिक्स होती रहती हैं। यह अच्छी बात है। लोगों तक सकारात्मक संदेश जाता है। कोई भी मेडिकल अवस्था लोगों के लिये बाधा नहीं बननी चाहिये। कुछ उदाहरण है डेविड बेकहेम ( ब्रिटिश फुटबाल खिलाड़ी) मोजार्ट ( संगीत कार), बिली आइलिश (गायिका), सेम्युल जानसान (कोश कार) अनेक नाटको और फिल्मों में हास्य की स्थितियों को निर्मित करने के लिये किसी पात्र को टूरेट रोग व टिक्स वाली हरकतों से ग्रस्त दर्शाया जाता है।
सबसे खास संदेश है- टिक्स के साथ जीना सीखना। उन्हें अपनी जिन्दगी का एक लघु पहलू मान लेना। उनकी तरफ ध्यान न देना। उनकी उपेक्षा करना। अपने अन्य काम जारी रखना- बिना व्यवधान के। टिक्स व्यवधान नहीं है। आप अपनी जिन्दगी जियो। टूरेट को उसकी जिन्दगी जीने दो।
टूरेंट वाला व्यक्ति उक्त संदेशों को आसानी से आत्मसात कर लेता है। बहुतेरे तो शुरु से उसे अंगीकार कर, सहज हो चुके होते है। बार-बार की हरकतों और आवाजों से मरीज को कोई पीड़ा नहीं होती। उनका ध्यान भी नहीं जाता। परेशानी तो दूसरों को होती है। उनका चौंकना, डरना, डांटना, आंखें फाड़ना घूरना, घृणा करना, हंसना, टोंकना, मजाक उड़ाना, व्यंग करना, चिढ़ना, चिढ़ाना ये तमाम रिएक्शन्स, ये सारी प्रतिक्रियाएं यदि न हों या कम हों, तो टूरेटर अपनी जिन्दगी में खुश रहेगा।
यह पाठ सबसे पहले मरीज के परिजनों को सीखना पड़ता है। फिर निकट के मित्र, पडौसी, रिश्तेदार । इसके बाद सबसे महत्वपूर्ण स्कूल में टीचर्स और सहपाठी। फिर ऑफीस के सहकर्मी। बाकी दुनिया बहुत बड़ी है। किस किस को बताने जाओगे। उसकी जरुरत नहीं है। वैसा सम्भव भी नहीं है। उससे फर्क क्या पड़ता है। जो अपने हैं बस वे जान कर, समझकर, स्वीकार करें, सम्मान करें और प्यार करें। एक जिन्दगी में इन्सान को इससे अधिक क्या चाहिये।