अपनी भाषा अपना विज्ञान: सूर्य – हनुमानजी के  मुख से निकल कर ताप भट्टी तक

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अपनी भाषा अपना विज्ञान: सूर्य – हनुमानजी के  मुख से निकल कर ताप भट्टी तक

16 जुलाई 1945 अलामोगार्दो, न्यू मैक्सिको संयुक्त राज्य अमेरिका के रेगिस्तान में सुबह पौने छ: बजे एटम बम का प्रथम विस्फोट परीक्षण हो रहा था।

महान भौतिक शास्त्री और इस प्रोजेक्ट के लीडर रॉबर्ट ओपेनहाइमर के मुंह से स्वतः गीता की यह पंक्तियां प्रस्फुटित हुई

“एक सहस्त्र सूर्य का तेज, आकाश में देदीप्यमान है
मानो एक विश्वात्मा का स्वरुप है”

“कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो लोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्तः।

ऋतेऽपि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे येऽवस्थिताः प्रत्यनीकेषु योधाः” ||

मै ही काल हूँ, विश्व का संहार करने वाला”

सिर्फ 3 सप्ताह बाद हिरोशिमा और नागासाकी तबाह कर दिए गए थे। राष्ट्रपति ट्रूमेन  ने जापान के सम्राट को चेतावनी दी थी “हमारे पास वह शक्ति है जिससे सूर्य को ऊर्जा मिलती है। “

राष्ट्रपति का दावा और ओपेनहाइमर द्वारा सूर्य से तुलना तथ्यात्मक दृष्टि से गलत थे। सूरज की भट्टी में आग का ईंधन अलग होता है। परमाणु बम और परमाणु / नाभिकीय रिएक्टर में बड़े अणुओं को तोड़कर ऊर्जा पैदा करते हैं। सूर्य की विधि दूसरी है।

विखंडन FISSION

यूरेनियम और प्लूटोनियम जैसे तत्वों के नाभिक बड़े आकार के होते हैं। अस्थिर होते हैं। इनमें प्रोटॉन (धन आवेशित) तथा न्यूट्रॉन (बिना आवेश वाले) की नियत संख्या होती है।

प्रकृति का नियम है कि एक जैसे चार्ज या आवेश एक दूसरे को विकर्षित करते हैं –  दूर धकेलते हैं। विपरीत किस्म के विद्युत आवेश तथा चुंबकीय ध्रुव एक दूसरे को आकर्षित करते हैं।

अब कल्पना कीजिए कि परमाणु जैसी सूक्ष्म रचना के सूक्ष्मतर नाभिक में एक ही जाति के इतने सारे प्रोटान भला कैसे एक दूसरे से चिपक कर बैठे रहते होंगे। एक प्रकार की प्राकृतिक शक्ति (Strong Nuclear Force) उन्हें बांधे रखती है। न्यूट्रान को फर्क नहीं पड़ता। उनकी अपनी कोई छाप नहीं होती।

परमाणु ऊर्जा (युद्ध और शांति दोनों स्थितियों में) पैदा करने के लिए प्लूटोनियम के नाभिक पर न्यूट्रान के बारीक कणों (Particles) की बौछार करते हैं  – उसे तोड़ते हैं – विखंडित करते हैं, टूटते समय नए न्यूट्रान निकलते हैं जो पास के नए नाभिकों को तोड़ते हैं। दिवाली पर पटाखों की लंबी लड़ के समान चैन रिएक्शन शुरू हो जाती है। यदि इसे ऐसा ही होने दिया जाए तो अनियंत्रित होकर परमाणु बम विस्फोट के रूप में समाप्त होती है। अपने पीछे प्लूटोनियम/ यूरेनियम के टुकड़े (दुसरे तत्वों के रेडियोधर्मी आइसोटोप) छोड़ती है जो अत्यंत खतरनाक विकिरण के रूप में लंबे समय तक वातावरण में व्याप्त रहते हैं।

नाभिक को बांधे रखने वाली शक्ति, विखंडन की इस प्रक्रिया में मुक्त होकर अथाह ऊर्जा का स्त्रोत बनती है। थोड़ा सा पदार्थ (Mass) भी कम होता है।

शांतिपूर्ण उपयोग के लिए न्यूक्लियर रिएक्टर में विखंडन पर ब्रेक लगाने के लिए हैवी वाटर और शीशे की छड़ों का मंदक (Moderator) के रूप में उपयोग करते हैं जो टूटने से पैदा होने वाले पार्टिकल्स को रोकते हैं, सोखते हैं ताकि सीमित संख्या के नाभिकों को धीमी गति से टूटने दिया जावे।

हाइड्रोजन बम

एटम बम से अधिक शक्तिशाली होता है हाइड्रोजन बम। इसका प्रथम परीक्षण 1952 में किया गया था। भारत ने 1974 में नहीं, दूसरे पोखरण के समय 1998 में किया था

हाइड्रोजन बम में विखंडन नहीं करते हैं। Fusion करते है। संयलन। तोड़ते नहीं, जोड़ते हैं। इसके विस्फोट की उर्जा परमाणु बम से कई गुना अधिक होती है।

अपनी भाषा अपना विज्ञान: सूर्य - हनुमानजी के  मुख से निकल कर ताप भट्टी तक

परमाणु बम में बड़े आकार वाले परमाणु (यूरेनियम, प्लूटोनियम) आदि ईधन का काम करते हैं तो हाइड्रोजन बम में  सबसे छोटा परमाणु हाइड्रोजन, ऊर्जा का स्त्रोत बनता है।

हाइड्रोजन के दो परमाणु को मिलाकर (Fusion), हीलियम का एक परमाणु बनाते हैं। यह कठिन काम है। इसके लिए बहुत ऊंचा तापमान (गर्मी) निर्मित करना होता है। उच्च दबाव की परिस्थिति बनानी होती है। एक बार शुरू हो जावे तो Chain Reaction चल पड़ती है जो अनियंत्रित होकर हाइड्रोजन बम विस्फोट में समाप्त होती है।


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दोनों ही प्रकार की नाभिकीय भट्टी में पदार्थ(Mass) थोड़ा सा कम होता जो Energy में परिवर्तित होता है। आइन्सटाइन की सुप्रसिद्ध समीकरण का अनुसरण करनते हुए

– E = MC2       जहाँ E है, Energy, M है Mass या पदार्थ, C है प्रकाश की गति।

अब सोचो प्रकाश की गति कितनी अधिक होती है। लगभग तीन लाख किलोमीटर प्रति सेकंड। यदि M या पदार्थ बहुत कम हो तो भी    C2 से उसका गुणा करने पर अनुमान लगा लो कि कितनी सारी उर्जा पैदा होगी।

हाइड्रोजन बम की क्रिया को नियंत्रित करने वाले न्यूक्लियर रिएक्टर अभी तक नहीं बन पाए हैं। पिछले 60-70 वर्षों से शोध प्रयोग जारी है। बीच-बीच में खबरें आती है। कुछ प्रगति हुई है। कुछ कदम आगे बढ़े हैं। लेकिन निकट भविष्य में यह फलीभूत होता दिखाई नहीं पड़ता।

1985 में अमेरिका और रूस के तत्कालीन राष्ट्रपति रोनाल्ड रेगन और मिखाईल गोर्बाचोक ने संयुक्त घोषणा करी थी ITER के बारे में –  International Thermonuclear Reactor – अंतरराष्ट्रीय ताप नाभिकीय भट्टी। आने वाले वर्षों में धीरे-धीरे इसने रूप लेना शुरू किया। दक्षिणी फ्रांस के प्रोवेंस प्रांत में विशालकाय इमारतों, मशीनों, प्रयोगशालाओं में अमेरिका, रूस, चीन, जापान, यूरोपियन संघ और भारत सहित 35 देशों ने अरबों डॉलर लगाएं और हजारों वैज्ञानिक, तकनीशियन, इंजीनियरों की सेवाएं प्रदान करी। इस भट्टी में कोशिशें जारी है। प्रगति धीमी है। उच्च तापमान (अनेक लाख डिग्री सेल्सियस) और अति गहन दबाव की स्थिति बनाने के लिए जंगी चुम्बकों की शक्ति को काम में लिया जाता है।

विद्युत्                                                                                                             चुम्बक

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चित्र : ITER – अन्तराष्ट्रीय ताप नाभिकीय भट्टी – Provence State France

शक्तिशाली चुंबक कैसे बना सकते हैं? साधारण लोहे से नहीं। यहां चाहिए विद्युत चुंबक।

लोहे की एक विशाल बीम को यदि बिजली के तारों की एक कुंडली के अंदर रखें तो बिजली ‘ऑन’ करते ही वह बीम चुंबक में परिवर्तित हो जाती है। खटका बंद करने पर फिर वही साधारण लोहा लंगड़। विद्युत करंट की शक्ति (जिसे वोल्टेज व् एम्पियर में नापते हैं) जितनी अधिक होगी, चुम्बक उतना ही बलशाली होगा।

बिजली धारा की शक्ति को कैसे बढ़ाए?

तारों में प्रतिरोध होता है। एक सीमा के बाद वे गर्म होकर जल जाते हैं। पूरे संयंत्र को अत्यंत ठंडे कक्ष में रखा जाता है। कितना ठंडा? जीरो डिग्री  नहीं शून्य से -270 डिग्री(परम शुन्य)। इससे ठंडा कुछ हो ही नहीं सकता। इतना ठंडा क्यों? जैसे जैसे तापमान घटाया जाता है वैसे वैसे तारों का इलेक्ट्रिकल रेजिस्टेंस कम होता जाता है। Absolute zero अर्थात -270 डिग्री पर यह  प्रतिरोध शून्य हो जाता है। (Super Conductance – अतिचालक) की स्थिति बनती है। एक बार विद्युत बहाना शुरु कर दो तो वह सतत बहती ही रहेगी। परम शून्य ताप मान की स्थिति पैदा करना बहुत कठिन और महंगा है। इसके लिए हिलियम नामक गैस का स्वरूप काम में लाते हैं। वही हीलियम जिसे गुब्बारों में भरकर बच्चे उड़ाते हैं। यही हीलियम हमारे शहरों में अनेक स्थलों पर काम आ रही होती है – जहां-जहां एमआरआई स्कैन मशीनें लगी हैं ( Magnetic Resonance Imaging) मशीन के चुंबक को शक्तिशाली बनाने के लिए हिलियम काम आती है। यह एक Inert Gas निष्क्रिय है। साफ और सुरक्षित। फ्रांस के आईटीआर प्रोजेक्ट में अति विशालकाय विद्युत चुंबक इसी विधि से बनाए गए हैं। इन्हें सुपरकंडक्टिंग मैग्नेट कहते हैं। “अतिचालक चुंबक”।

शोध प्रगति के अनेक मोर्चे हैं।

*परम शून्य या उससे थोड़ा गर्म ही सही वातावरण कैसे निर्मित किया जाए?

 *बीम के लौह तत्व में क्या रासायनिक छेड़छाड़ करी जावे कि शुद्ध लोहे की तुलना में वह अधिक शक्तिशाली चुंबक बन पाए?

  *15 लाख डिग्री के तापमान वाली भट्टी को फायर रजिस्टेंस (अग्नि प्रतिरोधी) कैसे बनाया जावे?  इसके लिए पदार्थ का प्लाज्मा स्वरूप काम में लाते हैं, जो भट्टी की अंदरूनी सतह को न छूते हुए भीतर ही भीतर अवलंबित (Suspended) भरा रहता है।

सफलता के आरंभिक कदम क्या रहे होंगे?

“15 लाख डिग्री का तापमान 1 सेकंड के इतने हजारवे हिस्से के लिए निर्मित हो पाया” “अब इतने हजारवे हिस्से के लिए”

“अब इतने लाख डिग्री तक” का तापमान निर्मित बन पाया।

“अब हाइड्रोजन के परमाणु को जोड़कर हिलियम के इतने परमाणु बन पाए?”

“अरे यह तो बहुत कम है और चाहिए”

“हिलियम पैदा होते समय इतनी उर्जा निकली”

“लेकिन इस प्रयोग में जितनी ऊर्जा झोंकी गई, निकलने वाली तो उससे कम रही

“अभी तो घाटा ही घाटा है। नफा कब होगा।”

“नेटजीरो की स्थिति कब बनेगी”

“नेट प्रॉफिट (शुद्ध लाभ) की स्थिति कब बनेगी?

5 दिसंबर 2022 को अमेरिका के ऊर्जा मंत्रालय द्वारा दावा किया गया कि कैलिफोर्निया स्थित लारेंस लीवरमूर राष्ट्रीय प्रयोगशाला में “शुद्ध लाभ” प्राप्त किया गया है।

उस दिन अर्धरात्रि 1:00 बजे लेजर किरणों द्वारा 2.05 मेगाजुल ऊर्जा हाइड्रोजन ईंधन से भरे, सोने से बने एक लघु गोलाकार भट्टी पर (एक  सेकंड के एक छोटे से हिस्से के लिए) बरसाई गई। पेंसिल छीलने वाली डब्बी से छोटे आकार का स्वर्ण कलश तप उठा। उसके अन्दर हाड्रोजन गैस के दो आइसोटोप भरे थे – ड्यूटेरियम, टिट्रियम। एक्सरे किरणे अंदर की दिशा में निकली। अंतर विस्फोट हुआ (Implosion) बर्हिविस्फोट (Explosion) नहीं हुआ। उच्च ताप व दाब की स्थिति में हाइड्रोजन के परमाणु एक दूसरे में विलीन हुए, हिलियम बनी, 3.0 मेगाजुल ऊर्जा निकली जिसने एक क्षणिक चैन रिएक्शन चलाई। धरती पर एक सूक्ष्म सूर्य का निर्माण हुआ। मनुष्य की ख्वाहिश रही है सूर्य की उर्जा का संधारण वह कर पाये। शायद बाल हनुमान ने ऐसा ही कुछ सोच कर सूरज को मुंह में भर लिया होगा। यह क्षणिक सूरज एक डब्बी में बंद था।

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  1. लेसर या एक्सरे किरणों द्वारा संलयन लक्ष्य को खूब गरम किया जाता है ताकि उसके चारों ओर प्लाज्मा का खोल बन जावे जो बाह्य आवरण को न छुए, न अधिक गर्म होने दे।
  2. हाइड्रोजन ईधन को बहुत ऊँचे प्रेशर से दबाया जाता है। बाह्य गरम आवरण फूटता है।
  3. अंतर्विस्फोट के समय (Implosion)अन्दर का तापमान सूर्य के केंद्रीय भाग से अधिक हो जाता है और घनत्व सीसे (Lead) से बीस गुना.
  4. संलयन उर्जा (Fusion) एक Chain Reaction शुरू करती है जो तब तक जारी रहती है जब तक कि हाइड्रोजन ईधन पूरी तरह से काम में न लिया गया हो।

शुद्ध लाभ कितना हुआ –  2.0 मेगाजूल से तीन मेगा जूल। अर्थात 50% प्रॉफिट।

अच्छा है खुश होने के लिए। ऐसा पहली बार हुआ। लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि 2.0 मेगजूल की उर्जा पैदा करने के लिए 300 मेगाजूल की लेजर किरणें जलाना पड़ी थी।

सटीक अंतर विस्फोट के लिए स्वर्ण कलश का शुद्ध गोलाकार होना जरूरी था। The Perfect Sphere

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मुझे इशोपनिषद का श्लोक याद आ गया –
हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्‌।

तत् त्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये ॥

सत्य का मुंह स्वर्ण के आवरण से ढंका हुआ है उसके दर्शन करने के लिए, हे परमात्मा उस पात्र का आवरण कृपया हटा दीजिये।

लारेंस लिबरमोर राष्ट्रीय प्रयोगशाला का प्राथमिक उद्देश्य अमेरिकी सरकार के लिए एटम बम व हाइड्रोजन बम की तकनीकों में सुधार करना है।

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National Ignition Facility (राष्ट्रीय प्रज्वलन सुविधा) इसका एक उपांग है। सैकड़ों मीटर लम्बाई की 192 लेसर ट्युब एकाधिक फ़ुटबाल के मैदानों से बड़ी जगह में बिछाई गई है। लक्ष्य कक्ष (Target Chamber) अनेक मंजिलों वाले बड़े भवन जैसा है लेकिन अंतिम निशाना एक नन्हें मोती के आकर का है।

शासकीय उपक्रमों से होड़ में अब निजी कम्पनियाँ जुड़ गई है। पैसा बहता है। जुआ खेलना इंसान की आदिम फितरत है। अरबों डालर और सैकड़ों कर्मचारियों की फौज के साथ प्रायवेट निवेशकों के वैज्ञानिक नए नए माडल पर काम कर रहे हैं। कुछ उम्मीद होगी तभी तो इतना कुछ दांव पर लगाया जा रहा है।

पिछले पचास सालों की धीमी प्रगति तथा अत्यंत कठिन चुनौतियों को देखते हुए अधिकांश तटस्थ वैज्ञानिक अति उत्साह से बचने की सलाह देते है। उनके अनुसार 2050 के पहले इस तकनीक का व्यावसायिक उपयोग हो पाने की संभावना नहीं है। जबकि Venture Capitalists और Angel Investors को उम्मीद है कि 2030 तक सफल माडल बन जायेंगे और 30-40 के दशक में फ्यूज़न रिएक्टर्स को विद्युत् वितरण कंपनियों के पॉवर ग्रिड से जोड़ दिया जावेगा। शेखचिल्लियों को सपने देखने से कौन रोक सकता है।

जैकपाट जिस कंपनी के हाथ लग गया उसके वारे न्यारे हो जायेंगे।

जरा कल्पना करिये। दुनियाभर में नाभिकीय भट्टियाँ बिजली पैदा कर रही है। कार्बन उत्सर्जन नहीं हो रहा है। पेट्रोल,कोयला, गैस, आदि से मुक्ति मिल गई है।जलवायु परिवर्तन व प्रदुषण के खतरे टल गए है। उर्जा बहुत सस्ती हो गई है। तदनुरूप आवागमन, उद्योग धंधे, प्रकाश, एयर कंडीशनिंग, हिटर्स, समुद्री खारे पानी को मीठे पानी में बदलना – सबकुछ आसान हो गया है |

आशा पर आकाश थमा है।

जब साहिल  नजदीक लगता है तो तैराक के हाथ जल्दी चलने लगते हैं ।

अर्थशास्त्र के इतिहास अनेक बुलबुले बनते है और फूटते है – कुछ छोटे तो कुछ बड़े हो कर फूटते है।

संलयन नाभिकीय भट्टी के विकास में लगने वाली पूंजी और उपक्रम का बुलबुला न फूटे और ठोस स्वरूप ग्रहण करें, ऐसी प्रार्थना पूरी मानव जाति की है।