अयोध्या- धर्म और राजनीति         

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अयोध्या- धर्म और राजनीति         

विपक्षी पार्टियों द्वारा आयोध्या में बने राम मंदिर में मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा के कार्यक्रम पर यह आरोप लगाया है कि बीजेपी इस पर अपनी राजनीति कर रही है। यह आरोप स्वाभाविक रूप से सही है, क्योंकि सभी राजनीतिक पार्टियां हर क्षण केवल राजनीति ही करती हैं। इसमें किसी को कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि भारतीय जनता पार्टी पिछले चार दशक से विश्व हिंदू परिषद के साथ मिलकर संघ की छत्रछाया में अयोध्या प्रसंग पर पूरी शक्ति से राजनीति करती रही है। राम मंदिर उसके चुनावी घोषणा पत्रों में रहा है। कोई आश्चर्य नहीं है कि राम मंदिर का पूरा लाभ बीजेपी लोक सभा में उठाना चाहती है। प्राण प्रतिष्ठा के बाद भी दो महीने तक चलने वाले प्रस्तावित कार्यक्रम इसका प्रमाण है। बीजेपी और इसके समर्थकों ने राम मंदिर के लिए कड़ा संघर्ष किया है और उसे इस मुद्दे से आशातीत राजनैतिक लाभ हुआ भी है और आज वह राजनीति में पोल पोज़ीशन पर खड़ी है। शाहबानो प्रकरण में राजीव गांधी के एक निर्णय से हिन्दुओं का बड़ा वर्ग उद्वेलित हो गया था। इसका लाभ लेकर संघ परिवार ने 1986 से ही रामशिला आंदोलन चलाकर हिंदू जनमानस को संगठित करना प्रारंभ कर दिया। विहिप ने राम जन्मभूमि पर बने विवादित ढांचे बाबरी मस्जिद के स्थान पर भव्य मंदिर बनाने की खुली घोषणा कर दी थी। 1990 की आडवाणी की रथ यात्रा जैसा जनता को प्रभावित करने वाला कार्यक्रम स्वतंत्र भारत के इतिहास में अभी तक नहीं हुआ है। 1991 में लाखों कारसेवकों ने आयोध्या पहुँचने के लिए मुलायम सिंह यादव की लाठी और गोलियों का सामना किया। 1992 में बाबरी मस्जिद ढहा दी गई। उसके बाद देश ने बहुत उथल-पुथल और राजनीतिक उठापटक देखी है। मोदी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में पूरी ताक़त से अपना पक्ष रखा और कोर्ट के निर्णय के बाद ही आज मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा का कार्यक्रम हो पा रहा है। बीजेपी के लिए हिन्दू धर्म उसकी राजनीति का मूल स्तंभ है। मोदी ने इस पर राष्ट्रवाद, विकास और लाभार्थी योजनाओं का वर्क चढ़ा दिया है।

सभी राजनीतिक पार्टियाँ धर्म, जाति और क्षेत्र या इनके उचित मिश्रण की राजनीति करती हैं। बीजेपी की सफलता से हतप्रभ विपक्षी पार्टियां भी कार्यक्रम में आमंत्रण को लेकर अपनी राजनीति कर रही है। आमंत्रण मिलने पर तत्काल मार्क्सवादी पार्टी ने कार्यक्रम में यह कह कर जाना अस्वीकार कर दिया कि यह बीजेपी का राजनीतिक कार्यक्रम है। ममता ने भी इस कार्यक्रम से असहमति प्रदर्शित कर दी। कांग्रेस बड़ी राष्ट्रीय पार्टी होने के कारण निर्णय लेने में हानि लाभ की सोच में पड़ गई। अंत में उसने देश के सभी राज्यों के मुस्लिम वोटों के लिए कुछ हिन्दुओं की नाराज़गी लेने का ख़तरा मोल लिया और कार्यक्रम को राजनीतिक बताकर निमंत्रण अस्वीकार कर दिया। कांग्रेस का सोचना है कि राम मंदिर का प्रभाव केवल हिंदी भाषी क्षेत्रों में ही होगा जहाँ बीजेपी पहले ही अधिकतम लोक सभा की सीटें प्राप्त कर चुकी है और अब अतिरिक्त वोटों से उसे और अधिक सीटें नहीं मिल सकती है। उसने अपने मुस्लिम वोट बैंक को पूरे देश में और विशेष रूप से दक्षिण और पूर्वी भारत में सुरक्षित रखा है। कांग्रेस ने अपना हिंदुत्व भी बताने के लिए शंकराचार्यों की शरण ली है। चारों शंकराचार्य मंदिर का पूर्ण निर्माण न होने के कारण इस कार्यक्रम में नहीं जा रहे है।वैसे तीन शंकराचार्यों ने कार्यक्रम का समर्थन कर दिया है, केवल जोशीमठ के ज्योतिर्पीठ शंकराचार्य ने समारोह के विरूद्ध टिप्पणी की है। विपक्षी दलों के कार्यक्रमों में सम्मिलित होने या न होने दोनों ही स्थितियों में बीजेपी लाभ में है। उसे हिंदी पट्टी के अतिरिक्त अन्य क्षेत्रों जैसे मराठवाड़ा, विदर्भ, कर्नाटक और तेलंगाना आदि में राजनीतिक लाभ मिलने की आशा है।

भारत की राजनीति स्वतंत्रता के पूर्व और पश्चात धर्म से प्रभावित रही है।अंग्रेजों ने अपनी फूट डालो और राज करो की नीति के अंतर्गत पहले हिन्दुओं को बढ़ावा दिया और फिर 1857 के बाद मुसलमानों पर हाथ रखा। मॉर्ले – मिंटो सुधार, 1909 ने मुसलमानों के लिए पृथक निर्वाचन क्षेत्र का प्रावधान किया जिसमें भारत के 1947 के धर्म के आधार पर विभाजन के बीज थे। स्वतंत्रता के बाद अपनी विविधता वाले भारत ने उचित और तर्कसंगत आधार पर धर्मनिरपेक्ष संविधान को स्वीकार किया। पंडित जवाहर-लाल नेहरू ने प्रजातंत्र और धर्मनिरपेक्षता की मज़बूत नींव रखी। लेकिन उनके द्वारा समान नागरिक संहिता के स्थान केवल हिंदू कोड लागू करना प्रथम तुष्टिकरण के रूप में देखा गया। चुनावी राजनीति ने सभी दलों को धर्म और जातियों का गुणा-भाग लगाने के लिए मजबूर कर दिया। बीजेपी ने अपने उत्थान के लिए हिंदुओं के ध्रुवीकरण करने के लिए राम जन्मभूमि बाबरी मस्जिद विवाद का सहारा लिया और आशातीत सफलता प्राप्त की। कांग्रेस जैसी शक्तिशाली राष्ट्रीय पार्टी के राजीव गांधी ने पहले शाहबानो प्रकरण और फिर मंदिर शिलान्यास के द्वारा मुसलमानों और हिंदुओं को प्रसन्न करने का प्रयास किया, परन्तु भारत के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में दोनों ही उससे दूर हो गये। कांग्रेस कमज़ोर हो गई।

भविष्य में आधुनिक भारत को धर्म और जातियों की राजनीति से ऊपर उठकर एक वास्तविक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की स्थापना करनी होगी। इसके लिए राजनीतिक पार्टियों से अपेक्षा करना बेमानी है। यह परिवर्तन सामाजिक होगा। कोई भी समाज किसी धर्मनिरपेक्ष आंदोलन के बजाय सामाजिक, आर्थिक विकास और प्रगति के परिणामस्वरूप ही तेजी से धर्मनिरपेक्ष बन सकता है। मंदिर निर्माण के बाद देश को सभी धर्मों का सम्मान करते हुए अब इस दिशा में बढ़ना होगा।