मज़बूरी में बैडमिंटन छूटा, गिफ्ट में मिला लॉन टेनिस!

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यूँ तो मनुष्य और खेल का सम्बंध आदिम है , पर अफ़सरी में चाहे वह पुलिस की हो या प्रशासन की , नौकरी में लगते ही एक पी टी इन्स्ट्रक्टर ज़रूर मिल जाता है , जो आपकी छिपी खेल प्रतिभा को निचोड़ कर किसी भी तरह से बाहर निकालने को बेक़रार रहता है । नरोन्हा अकादमी में जब हम नए नवेले डिप्टी कलेक्टरों का ग्रूप पहुँचा तो तकलीफ़ उनको ज़्यादा हुई जो पहले कभी खेले नहीं थे , क्योंकि सुबह उठना और किसी ना किसी खेल गतिविधि में हिस्सा लेना ट्रेनिंग का अंग नामित किया गया था । कुछ लोगों ने मैदानी भाग दौड़ से निजात पाने के लिए योग कक्षायें चुनी , पर जल्द ही नेती क्रिया की पेचीदगी से घबरा के सुबह खेल की अन्य विधाओं में घुस गए ।

यही हाल मसूरी की लाल बहादुर प्रशासनिक अकादमी में था जहाँ सुबह उठ कर मैदान पर पहुँचना ट्रेनिंग का हिस्सा माना जाता था । अलबत्ता मुझ जैसे बंदे को ये इसलिए मुफ़ीद था क्योंकि स्कूली दिनों से ही मैं अपनी शाला की खेल टीम का हिस्सा रहा करता था , नतीजतन नौकरी में आने के बाद जहाँ जैसी स्थिति मिली बेडमिंटन या टेबल टेनिस सुबह या शाम के समय समय का अनिवार्य अंग बना रहा । सिहोर में अरुण तिवारी जी के साथ हम अधिकारियों का दल कालेज के हॉल में बेडमिंटन खेला करता था , और ग्वालियर में तो पड़ोसी विनोद शर्मा के बंगले पर ही बेडमिंटन का कोर्ट था , जहाँ वह शाम से ही तैयार हो कर हम जैसे खेल प्रेमियों की प्रतीक्षा और उनके सत्कार में जुट जाता था । खेल के बीच कभी पकोड़े और कभी चाय के दौर चलते ही रहते थे और मैं हमेशा सशंकित रहा आया करता कि ना जाने किस दिन भाभी जी इन फ़रमायशी कार्यक्रमों की इति श्री कर दें । संयोग से ऐसा तो कुछ नहीं हुआ अलबत्ता उन दिनों ग्वालियर में पदस्थ ऐसा कोई अफ़सर नहीं नहीं था जिसे बेडमिंटन आता हो और वो विनोद के बंगले में बेडमिंटन ना खेला हो । गाहे बगाहे ग्वालियर आने वाले शैलेंद्र सिंह जैसे वरिष्ठ अधिकारी और के. पी. सिंह जैसे विधायक भी बेडमिंटन खेलने विनोद के बँगले अवश्य आया करते ।

खेलने का यह क्रम मेरे लिए तब टूटा , जब मैं विदिशा में कलेक्टर पदस्थ हुआ । एक सड़क दुर्घटना में मेरे दाहिने हाथ की कलाई में फ़्रेक्चर हो गया और महीने भर से ज़्यादा प्लास्टर बांधने से एस. ए. टी. आइ. में नियमित बेडमिंटन खेलने के क्रम को विराम लग गया । डेढ़ महीने बाद जब प्लास्टर खुला तो मैंने पाया कि मेरा हाथ तो कंधे के पीछे जा ही नहीं पा रहा है , परिणाम स्वरूप बेडमिंटन खेलने की इतिश्री हो गयी । इस बीच किसी ने सलाह दी कि आप टेनिस खेलना आरम्भ कर दो । मैंने कहा भाई टेनिस देखना तो मुझे भी अच्छा लगता है , पर नया खेल पचास की इस उम्र में सीखना बड़ा मुश्किल है । इंदौर के रेसिडेंसी क्लब में जब ये वार्तालाप चल रहा था तो पास ही वरिष्ठ आइ.पी.एस. श्री डी. एस. सेंगर साहब खड़े थे । सेंगर साहब ने मुझसे कहा अरे उमर-वुमर कुछ नहीं , टेनिस खेलना बहुत आसान है , बाल पास में मिल जाए तो रिटर्न कर दो वरना सामने वाले को बोलो गुड शॉट । बस मेरे मन का डर इस श्रुत वाक्य से काफ़ूर हो गया और रेसिडेंसी क्लब के मैनेजर श्री शेखर तिवारी ने मुझे टेनिस खेलने के दाँव पेंच सिखाने शुरू कर दिए जिसकी बदौलत मेरी सुबह आजकल भोपाल के अरेरा क्लब में बड़े सुकून से गुज़र रही है ।