सरकारी बहीखाते में लगते काले धब्बे

1343

केंद्र या राज्य सरकारों अथवा राजनीतिक दलों  के नेता संसद विधान सभाओं, टी वी समाचार चैनलों या जन सभाओं में बड़ी बड़ी घोषणाओं के साथ सरकारी बहीखाते से भारी भरकम आंकड़ें सुनाते हैं| लेकिन क्या सरकारी खजाने से जाने वाली धनराशि सामान्य किसान परिवारों तक पहुँच पाती है? प्रतिपक्ष अथवा सामाजिक संगठनों के अआरोपों को पूर्वाग्रह कहा जा सकता है, लेकिन जब सरकारी दस्तावेज ही इन धब्बों को उजागर करते हों, तो उस पर सरकारें सही वक्त पर कार्रवाई क्यों नहीं करती है? किसानों से अनाज की खरीदी करने वाला भारतीय खाद्य निगम के अधिकारी और मंडियां कुछ राज्यों में अपनी ढिलाई और भ्रष्टाचार से किसानों को परेशान करते हैं और उनसे मंडी तक लाए गए अनाज नहीं खरीदते हैं| दूसरी तरफ फसल ख़राब होने पर बीमा कम्पनियाँ समय पर्याप्त बीमा  राशि  नहीं देती है और बहुत से दावों पर बीस से एक सौ रुपयों के चेक देकर उनके घावों पर नमक छिड़कती है| बीमा कंपनियों को सरकारी खजाने से मिले करोड़ों रुपयों का मुनाफा वर्षों से हो रहा है| सत्ता में कोई पार्टी हो, खाद्य निगम का भ्रष्टाचार और बीमा कंपनियों के मुनाफों में लगातार वृद्धि हो रही है|

कोरोना महामारी के बावजूद पंजाब, हरियाणा, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में मेहनतकश किसानों ने गेहूं का रिकार्ड उत्पादन किया, लेकिन पश्चिम उत्तर प्रदेश के किसानों से खाद्य निगम के बेईमान अधिकारियों कर्मचारियों ने समुचित गेहूं नहीं खरीदा| स्वयं निगम द्वारा जारी विवरण इसका प्रमाण है| निगम ने सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम खरीदी मूल्य 1940 से 1960 रूपये प्रति क्विंटल पर पंजाब में 132.10 लाख टन, मध्य प्रदेश में 128 लाख टन, हरियाणा में 84.93 टन गेहूं ख़रीदा, लेकिन पूरे उत्तर प्रदेश में केवल 56.41 लाख टन गेहूं की खरीदी की| सबसे दुर्भाग्य की बात यह है कि दो ढाई सौ क्विंटल गेहूं पैदा करने वाले कई किसानों से मात्र चालीस पचास क़्वींटल गेहूं ख़रीदा, जिससे किसानों को बाजार में 1400 रूपये क्विंटल के भाव से गेहूं बेचने पर मजबूर होना पड़ा| निगम के अधिकारी भंडार क्षमता में कमी जैसे कुछ बहाने सूना देते हैं| यदि वे चाहें तो इतने वर्षों के अनुभव से सबक लेकर किराए पर अतिरिक्त गोदामों की व्यवस्था कर सकते हैं| लेकिन मंडी के आढ़तियों और व्यापारियों का धंधा तो किसानों  की मजबूरियों से फायदा उठाकर चलता है| इसके बाद प्रतिपक्ष दलों को सरकार के खिलाफ आंदोलन चलाने का अवसर मिल जाता है|

सिर्फ एक महीने पहले अगस्त में खाद्य, उपभोक्ता मामलों और वितरण मंत्रालय की संसदीय सलाहकार समिति ने स्वीकार किया है कि पिछले तीन वर्षों के दौरान खाद्य निगम में भ्रष्टाचार की गंभीर शिकायतें बढ़ती गई हैं| कई मामले विजिलेंस और सी बी आई  को सौंपे गए हैं| लेकिन इस गड़बड़ी को रोकने के लिए कड़े कदमों की आवश्यकता है| दुनिया के कई देश अब भारत को भी एक विक्सित और शक्तिशाली देश के रूप में देखते हैं| भारत से व्यापर बढ़ने के लिए हर देश इच्छुक होता है| समस्या यह है कि भारतीय हितों की रक्षा करते हुए खाद्य पदार्थों के आयात को लेकर स्पष्ट और कठोर नियम कानून नहीं बने हैं| सब्जियों और फलों का उत्पादन बढ़ाने की प्रोत्साहन योजनाएं लगातार घोषित होती हैं, लेकिन उनके भंडारण और बिक्री के लिए सही व्यवस्था नहीं होती है| तभी तो इसी महीने जो टमाटर दिल्ली की साधारण दुकानों पर पचास रुपया प्रति किलो बिक रहा था, वह गाजीपुर या ओखला मंडी में दो स चार रूपये प्रति किलो ख़रीदा जा रहा था| अंदाज लगाइये, गांव में किसान को कितना मूल्य मिल रहा होगा? यही हालत समय समय पर प्याज, आलू और अन्य सब्जियों की होती है| प्याज का काला बाजार होने पर विदेश यानी पाकिस्तान  तक से प्याज का आयात की घोषणाएं होती हैं| फिर उसमें भ्रष्टाचार के आरोप सामने आते हैं| कांग्रेस, अकाली दल, भाजपा या अन्य दलों के नेता खाद्य और उपभोक्ता या फ़ूड प्रोसेसिंग मंत्रालयों के मंत्री रहे हैं, लेकिन हर बार भण्डारण और संयंत्र लगाने की बड़ी बड़ी घोषणाएं- समझौते तक कर लेते हैं, लेकिन क्रियान्वयन अब तक चींटी की गति से है|

दूसरी तरफ भारत के बाजारों में चीन सहित दुनिया के विभिन्न देशों से आने वाले फलों और सब्जियों की गुणवत्ता की जांच पड़ताल करने वाली सरकारी एजेंसियां वर्षों से निकम्मी और भ्रष्ट हैं| बंदरगाहों या हवाई अड्डों पर आने वाले कंटेनर की सही जांच पड़ताल नहीं होने से जहरीले फल और सब्जियां लोगों के घर पहुँच जाती हैं| कस्टम के अधिकारी कोई गुणवत्ता के एक्सपर्ट तो होते नहीं है| फलों की गुणवत्ता तय करने वाले फ़ूड सेफ्टी के  सरकारी संस्थानों के अधिकारी दिल्ली में बैठते हैं या अन्य देशों में गुणवत्ता पर सम्मेलनों के बहाने सैर सपाटे करते रहते हैं| हाँ कोरोना महामारी के दो वर्षों में जरूर उनकी यात्राएं रुक गई होंगी| अब शुरू हो जाएँगी| विदेशी सेब, केले, अमरुद और कई अन्य फल अथवा सब्जियां महंगे दामों पर बिकती हैं| जहरीले फलों का एक प्रमाण तो दो साल पहले खाद्य और उपभोक्ता मामलों के मंत्री राम विलास पासवान तक को निजी अनुभव से मिला था| दिल्ली के खान मार्केट से खरीद कर लाये महँगा  विदशी सेब काटने पर जहरीला निकला| उन्होंने स्वयं सम्बंधित विभाग को शिकायत की| पता नहीं उस पर कितनी कार्रवाई हुई, लेकिन विदेशी फलों पर अब तक किसी तरह का अंकुश नहीं लगा है|

किसानों को सर्वाधिक दुःख घाव तो बीमा कम्पनियाँ देती हैं | इसमें कोई शक नहीं कि किसानों को कर्ज देने के लिए बजट में लगातार बढ़ोतरी हुई है| पिछले साल जहाँ पंद्रह लाख करोड़ रूपये के क्रेडिट यानी कर्ज आदि का प्रावधान था जो इस वित्तीय वर्ष 2021-2022 में बढ़कर 16 . 5 लाख करोड़ हो गया है| कर्ज देने पर तो बैंकों को ही लाभ होता है| कर्ज किसान ही चुकाता है| संकट यह है कि फसल ख़राब होने पर वह कर्ज कैसे चुकाए और घर परिवार को कैसे चलाए| भारी वर्षा-बाढ़ में फसल के साथ घर ही खस्ता हाल में होते हैं, लाखों लोगों को घर गांव से बाहर जाना पड़ता है| घर बचा हो तो फसल नष्ट होने पर बीमा कंपनियों और स्थानीय प्रशासन से गुहार लगानी पड़ती है| फसल लगाने के साथ किसान हर साल बाकायदा बीमा के लिए प्रीमियम की  धनराशि भरता है| लेकिन फसल ख़राब होने पर सीधे बीमा कम्पनियाँ निर्धारित बीमा राशि नहीं देती| पहले स्थानीय अधिकारी कर्मचारी नुक्सान का हिसाब किताब लगते हैं| कुछ ठीक लगते हैं, कुछ अपनी जेब गर्म होने पर बीमा राशि तय करते हैं| फिर बीमा कम्पनियाँ अपने नियम कानून के हिसाब से राशि तय करते हैं और उसी तरह स्थानीय प्रशासन के माध्यम से मुआवजा बीमा राशि महीनों बाद मिलती है| पिछले वर्षों का रिकार्ड साबित करता है कि प्रधान मंत्री फसल बीमा योजना के अंतर्गत किसानों ने  2018-2019 और 2019-2020 में  बीमा कंपनियों को प्रीमियम के रूप में लगभग 31,905 करोड़ रूपये जमा किये| जबकि बीमा कंपनियों ने फसल खराब-नष्ट होने पर केवल 21937 करोड़ रुपयों के बीमा दावों का भुगतान किया| मतलब सीधे दस हजार करोड़ रुपयों का मुनाफा कमा लिया| शायद यही कारन है कि अब कुछ राज्य सरकारें प्रधान मंत्री फसल बीमा योजना में बीमा कंपनियों से अलग हो रही हैं| इन राज्यों में गुजरात, पंजाब, पश्चिम बंगाल शामिल हैं| इसलिए अब राज्य सरकारों को अधिक जिम्मेदारी से पर्याप्त बीमा हर्जाना राशि देना होगी| किसान आंदोलन की राजनीति से हटकर किसानों के लिए सही लाभकारी रास्ते सरकार, निजी कंपनियों और संसद को निकालने होंगे|

(लेखक आई टी वी नेटवर्क-इंडिया न्यूज़-दैनिक आज समाज के सम्पादकीय निदेशक हैं)