चाणक्य की चंद्रगुप्त बनने की कोशिश कहीं गले न पड़ जाए! (Chanakyas Attempt To Become Chandragupta)

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चाणक्य की चंद्रगुप्त बनने की कोशिश कहीं गले न पड़ जाए! (Chanakyas Attempt To Become Chandragupta)  

शतरंज का सबसे महत्वपूर्ण मोहरा वह होता है, जो वक्त पड़ने पर किसी भी मोहरे को राजा बनाने में माहिर होता है। इसे ही भारतीय राजनीति में चाणक्य कहा जाता है। वैसे तो भारतीय इतिहास में मौर्यकाल का प्रादुर्भाव करने का श्रेय चाणक्य को दिया जाता है। लेकिन, समय के साथ भारतीय राजनीति में कई चाणक्य जन्मे जिन्होंने किसी न मामूली राजनेता को चन्द्रगुप्त बनाने का काम अंजाम दिया। आधुनिक राजनीति में इसे ‘किंग मेकर’ कहा जाता है। राजनीति की शतरंज भी कुछ ऐसी होती है, जिसमें प्यादा तो वजीर और राजा बन सकता है, लेकिन वजीर को वजीर और राजा को राजा बनाने वाला कभी राजा नहीं बन पाता। यदि ऐसा होता तो चाणक्य कभी चन्द्रगुप्त को सम्राट नहीं बनाते, बल्कि खुद पाटलीपुत्र के राज सिंहासन पर आरूढ हो गए होते।

चाणक्य की चंद्रगुप्त बनने की कोशिश कहीं गले न पड़ जाए! 

मतलब सीधा सा है कि जो वास्तव में चाणक्य होते है, वह अपनी हैसियत भली भांति जानते है। उन्हें यह एहसास भी होता है कि वह राजनीति के चाणक्य भले ही हो सकते हैं, लेकिन चन्द्रगुप्त कभी नहीं बन सकते। आज के किंग मेकर का खिताब पाने वाले यह भ्रम पाल बैठते हैं कि जब वे उपेक्षित चन्द्रगुप्त को राजा बना सकते हैं तो वह स्वयं चन्द्रगुप्त बनकर सिंहासन पर बैठ सकते है। किंतु, इतिहास गवाह है कि जब जब चाणक्य ने चन्द्रगुप्त बनने का दुःसाहस दिखाया (Chanakyas Attempt To Become Chandragupta), तब वह चन्दगुप्त बनना तो दूर चाणक्य भी नहीं रहे !

इन दिनों एक बार भारत की राजनीति में इसी इतिहास की पुनरावृत्ति होती दिखाई दे रही है। भारतीय जनता पार्टी से लेकर जेडीयू और टीएमसी को फर्श से अर्श तक पहुंचाने में कथित रूप से मददगार बने राजनीतिक के सबसे ताजा चाणक्य प्रशांत किशोर इसी चक्कर में उलझते दिखाई दे रहे हैं। उन्होंने हाल ही में उसी रणभूमि से राजनीति का खेल खेलने के लिए नई पार्टी बनाने की घोषणा की, जो कभी जिस रणभूमि ने चाणक्य और चन्द्रगुप्त के हाथों राजनीति की एक पहली इबारत लिखी थी।

 

चाणक्य की चंद्रगुप्त बनने की कोशिश कहीं गले न पड़ जाए! 

इस बात में कोई शक नहीं कि प्रशांत किशोर एक बेहतरीन राजनीतिक विश्लेषक हैं। राजनीति का विश्लेषण करने का उनका अपना एक अलग नजरिया है। वे राजनीति की परम्परागत पाठशाला के पाठों का अनुसरण नहीं करते बल्कि अपना होमवर्क खुद करके अपनी राजनीतिक पाठयपुस्तक आप लिखते हैं। अभी तक तो उन्होंने यह राजनीतिक की परीक्षा की कुंजी दूसरी राजनीतिक पार्टियों के लिए तैयार की थी। उन्हें लगता है कि उनकी राजनीतिक गाइड जब दूसरों को राजनीति की वैतरणी पार करवा सकती है तो उनके लिए इस वैतरणी को पार करना तो बांए हाथ का खेल ही होगा। प्रशांत किशोर का अपने लिए अलग पार्टी बनाने के फैसले के कई कारण हो सकते हैं।

एक कारण तो यह कि उन्होंने अब तक जिनके लिए काम किया जिन्हें गार्बेज से गोल्ड की हैसियत प्रदान की उन्होंने ही बाद में प्रशांत किशोर को गार्बेज बेग के हवाले कर दिया। सबसे पहले भाजपा को ऐतिहासिक जीत दिलवाकर इंद्रप्रस्थ के सिंहासन पर बैठाने के बाद उन्होंने खुद को हाशिए पर खड़ा पाया। इसके बाद अपनी जन्मभूमि बिहार में जेडीयू की नैया पार लगवाने के लिए उन्होंने नितीश को सत्ता सुख दिया। उन्होने प्रशांत किशोर को पार्टी का महासचिव बनने का सुख तो जरूर दिया! लेकिन, यह उनके लिए फूलों की सेज के बजाए कांटों की सेज बन गया और वह एक बार फिर हाशिए पर आ गए।

इसके बाद प्रशांत किशोर ने सबसे कठिन और अव्यवहारिक गठबंधन करते हुए बंगाल में ममता बैनर्जी की पार्टी के साथ राजनीतिक रणनीति तैयार करने का काम किया। जिस समय प्रशांत किशोर टीएमसी के लिए काम कर रहे थे, वह समय 2019 लोकसभा चुनाव के बाद का समय था जिसमें भाजपा ने बंगाल में अब तक की सबसे ज्यादा लोकसभा सीट जीतकर विधान सभा जीतने का ख्वाब देखा था।

तब तक जनमानस में यह धारणा बलवती हो चुकी थी कि बंगाल के चुनावी आसमान में भगवा परचम लहराएगा। उस समय प्रशांत किशोर ने घोषणा कर दी थी कि यदि बंगाल विधानसभा चुनाव में यदि भाजपा सेंचुरी मार लेती है, तो वह अपना बोरिया बिस्तर लपेटकर अपनी दुकान पर ताला लगा देंगे। जिस समय विधानसभा के शुरूआती रूझान आना शुरू हुए तब यह लगने लगा था कि भाजपा प्रशांत किशोर की दुकान पर ताला लगवा सकती है। लेकिन दो घंटे बाद ही खेला हो गया और प्रशांत किशोर की भविष्यवाणी एक बार फिर सही साबित हुई।

चाणक्य की चंद्रगुप्त बनने की कोशिश कहीं गले न पड़ जाए! 

तीन प्रमुख राजनीतिक दलों के साथ सफलतापूर्वक काम करने के बाद उन्हें हाल ही में देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस को उनकी खोयी साख वापस लौटाने के लिए कवायद करने का न्यौता मिला। इसके लिए प्रशांत किशोर ने जी-जान लगाकर आठ घण्टे का प्रेजेंटेशन भी तैयार किया। तब तक ऐसा माहौल बनने लगा था कि किसी भी क्षण वह पंजे से अपना पंजा मिला सकते हैं। लेकिन, पर्दे के पीछे कुछ ऐसा हुआ कि बात बन नहीं पाई। 5 मई को अपनी नई रणनीति की घोषणा करने से पहले उन्होने अपनी खुद की नई पार्टी बनाने की सुरसुरी छेड दी है।

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प्रशांत किशोर का नई पार्टी बनाने के फैसले का सबसे उचित कारण यही लगता है कि देश की चार प्रमुख और महत्वपूर्ण पार्टियों के साथ काम करते हुए उन्हें देश की लगभग सभी पार्टियों की ताकत और कमजोरियों का तो पता चल गया। साथ ही कई ऐसी गोपनीय बातों की जानकारी भी मिल गई जो दूसरां को सामान्यतः नहीं मिल पाती। इन सभी दलों के गुण दोषों को अपने राजनीतिक विश्लेषण की मिक्सर में घोटकर प्रशांत किशोर को शायद वह लुगदी मिल गई होगी, जिसका तोड दूसरों को बताकर राजसिंहासन पर बैठाकर हाशिए पर लौटने के बजाए उन्होंने अपना ताजा ज्यूस बनाकर बाजार में बेचने की जुगत बैठाकर खुद सिहांसन पर बैठने की अभिलाषा कर ली होगी। इसे हम मुगालता भी समझ सकते हैं।

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गौरतलब है कि जो प्रशांत किशोर सरेआम यह घोषणा कर चुके हों कि फिलहाल कोई भी राजनीतिक दल या गठबंधन भाजपा को हाशिए पर धकेलने के लिए सक्षम नहीं है और मोदी का कोई मौजूदा कोई विकल्प नहीं है। तो आखिर किस आधार पर उन्होंने एक नए विकल्प के रूप में राजनीति के अखाड़े में उतरने का दुःसाहस किया। यह उनके लिए रिस्क भी हो सकती है। लेकिन, एक तरह से सोचा जाए तो प्रशांत किशोर ने यह रिस्क लेकर कोई गलती भी नहीं की। उन्होने तो पहले ही घोषणा कर दी थी कि वह अपने राजनीतिक विश्लेषण की दुकान बंद करने वाले है। लेकिन, उसके पहले सेल लगाकर वह अपना माल बेचकर झोली भर ले तो हर्ज ही क्या है!

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अशोक जोशी

अशोक जोशी सामाजिक समेत कई विषयों के जाने-माने लेखक और अनुवादक हैं। हिंदी और अंग्रेजी में उनके कई लेख देश की पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। वे रोजगार संबंधी काउंसलर भी रह चुके हैं।