चीन की बढ़ती धाक

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चीन की बढ़ती धाक

प्रधानमंत्री मोदी अपने कार्यकाल की पहली औपचारिक शासकीय यात्रा पर 22 जून को अमेरिका जा रहे हैं। वैसे तो मोदी लगभग प्रतिवर्ष UN की बैठकों में भाग लेने के लिए जाते रहे हैं, परंतु यह पहला अवसर है जब उन्हें प्रेसिडेंट बाइडेन का औपचारिक निमंत्रण प्राप्त हुआ है। स्पष्ट है कि राजनयिक पर्दे के पीछे दोनों देशों द्वारा इसके लिए गंभीर प्रयास किये गये हैं। दोनों ही देश चीन की उभर चुकी सैन्य शक्ति और रूतबे से आशंकित और प्रताड़ित हैं।

चीन ने पिछले चार दशकों में आश्चर्यजनक आर्थिक प्रगति की है और वह शनैः-शनैः अमेरिका की GDP के निकट पहुँच रहा है। चीन ने राष्ट्रपति शी जिनपिंग के शक्तिशाली नेतृत्व में अपनी आर्थिक सम्पदा से सैन्य शक्ति में बहुत तेज़ी से प्रसार किया है। आज उसकी नौसेना इंडो-पैसिफिक में इस पूरे क्षेत्र के लिए चुनौती बनी हुई है। विगत एक दशक से शी जिनपिंग ने आक्रामक रुख़ अपना कर अपने सभी पड़ोसी देशों को सैन्य कार्रवाई करके अथवा धमकी दे कर भयाक्रान्त कर रखा है। वियतनाम, फिलीपींस, जापान और ताइवान के साथ ही उसने भारतीय सीमाओं पर भी भारी दबाव बना रखा है। कुछ वर्ष पहले तक हम अपने छोटे दुश्मन पड़ोसी देश पाकिस्तान को दुनिया में अलग थलग पड़ता हुआ देख कर प्रसन्न थे। परन्तु आज भारत स्वयं अपने को घिरा हुआ अनुभव कर रहा है।

गोवा में हाल ही में सम्पन्न हुई शंघाई कोआपरेशन आर्गेनाइजेशन (SCO) की बैठक में यह स्पष्ट हो गया कि यह संगठन चीन के दबदबे के नीचे दबा हुआ है और इसमें कोई भारतीय हित पूरे नहीं हो सकते हैं। विगत कुछ वर्षों से भारत ब्रिक्स ( BRICS) में भी देख रहा है कि वहाँ पर कोई ऐसा प्रस्ताव चीन पारित नहीं होने देता है जिसमें भारत के हित जुड़े हों। UN की सिक्यॉरिटी काउंसिल के स्थायी और वीटो प्राप्त सदस्य होने की दम पर वह भारत के चाहे अनुसार किसी ख़तरनाक आतंकवादी को अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी घोषित नहीं होने देता है। एशिया और अफ़्रीका के अनेक देशों को उसने BRI योजना के अंतर्गत क़र्ज़ों में जकड़ लिया है और उनका आर्थिक और सैनिक रूप से शोषण कर रहा है।

यूक्रेन युद्ध ने रूस को चीन की गोद में ढकेल दिया है। रूस एक बड़ी न्यूक्लियर शक्ति होने के बावजूद आर्थिक दृष्टि से बहुत कमजोर है। इस युद्ध के भार से तथा पश्चिमी देशों के प्रतिबंधों के कारण वह अब आर्थिक संसाधनों वाले चीन की ओर बढ़ चुका है। भारत के स्वतंत्र होने से लेकर आज तक रूस हमारी सहायता करता रहा है। उसने अनेक दशकों तक UN में पश्चिमी देशों के पाकिस्तान के समर्थन पर अपने वीटो से भारत की सहायता की है। जब पश्चिमी देश भारत को सैन्य साजो सामान देने से परहेज़ कर रहे थे तब उसने भारत को अपेक्षाकृत सस्ते दामों पर सैनिक सामग्री प्रदान की। चीन के प्रभाव में अब रूस की भारत के साथ मित्रता में शिथिलता आना स्वाभाविक है।

चीन ने मध्यपूर्व के सऊदी अरब और ईरान के बीच समझौता करवा कर विश्व को चकित कर दिया है। पश्चिमी देशों की इस क्षेत्र में पकड़ ढीली पड़ती हुई दिखाई दे रही है। भारत सऊदी अरब और ईरान दोनों का मित्र है परन्तु वह इन दोनों में कोई समझौता नहीं करा सका और न ही इसके बारे में सोच भी सका। चीन अपने साथ रूस, पाकिस्तान और ईरान को लेकर भारत की कठिनाइयाँ बढ़ा देगा। भारत दक्षिण एशियाई क्षेत्र में शांति स्थापित कर तेज आर्थिक प्रगति करना चाहता है परन्तु चीन इन प्रयासों को विफल करने में कोई भी युक्ति नहीं छोड़ेगा।

भारत बहुध्रुवीय विश्व का समर्थक है जिसमें सभी विश्व शक्तियों को सह अस्तित्व का अवसर प्राप्त हो। चीन द्वारा भारत की घेराबंदी भारत को इस उद्देश्य में सफल नहीं होने देगी। चीन का खुला आक्रामक रुख़ अब भारत को कड़े निर्णय लेने के लिए बाध्य कर रहा है। भारत को अमेरिका और उसके कुछ मित्र देशों जैसे जापान और ऑस्ट्रेलिया आदि का पूरा रणनीतिक (स्ट्रेटजिक) लाभ लेना होगा। मोदी को बाइडेन से क्वॉड (QUAD) को सुदृढ़ सैनिक सहयोग करने वाला संगठन बनाने के लिए ज़ोर देना होगा। वैसे भी दोनों देशों के पास इसके अतिरिक्त और विकल्प नहीं है।