सतीश जोशी की खास रिपोर्ट
सुभाष यादव मध्य प्रदेश कांग्रेस के बड़े नेता माने जाते थे। उनके बेटे अरुण यादव पिछले विधानसभा चुनाव में बुधनी विधानसभा क्षेत्र से मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के ख़िलाफ़ चुनाव मैदान थे और हार गये। कांग्रेस ने अरुण यादव को बुधनी से ग़ैर-किरार ओबीसी वोटों के देखते हुए उतारा था। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान किरार जाति से ताल्लुक रखते थे, पर उन्होंने चहुंमुखी वोट लिए और विजय दर्ज की, पर सरकार कांग्रेस की बनी और फिर क्या हुआ, सब जानते हैं।
सिंधिया ने पलट दी बाजी
ज्योतिरादित्य सिंधिया ने सारी बाजी पलट दी और कमलनाथ सत्ता से बाहर हो गये और पिछड़ी जाति का राजनेता शिवराज सिंह चौहान फिर सत्ता के केन्द्र बन गये। याने स्वर्ण कमलनाथ की इस तरह सत्ता से बेदखली हुई, कांग्रेस ने स्वर्ण मुख्यमंत्री फिर आजमाया और भरोसा दिखाया। इस बार फिर यही फार्मूले पर कांग्रेस काम कर रही है। कमलनाथ, डा गोविंद सिंह और दिग्विजय की तीकडी इस काम में जुट गयी है।
मध्य प्रदेश में दलित, आदिवासी और ओबीसी बहुसंख्यक हैं फिर भी कांग्रेस ने इस समुदाय से किसी को मुख्यमंत्री क्यों नहीं बनाया? अरुण यादव कहते रहते हैं कि ”निश्चित तौर पर ओबीसी की आबादी ज़्यादा है। एससी-एसटी को भी मिला दें तो कोई मुक़ाबला नहीं रह जाता। पर अब उन पुरानी बातों में जाने से क्या हासिल होगा। अब तक नहीं हो पाया तो क्या किया जाए? मेरे पिताजी ने भी कोशिश की थी पर सफल नहीं हो पाए।”
कांग्रेस की लंबी सत्ता रही
मध्य प्रदेश में कांग्रेस 42 सालों तक सत्ता में रही। इन 42 सालों में 20 साल ब्राह्मण, 18 साल ठाकुर और तीन साल बनिया (प्रकाश चंद्र सेठी) मुख्यमंत्री रहे। यानी 42 सालों तक कांग्रेस राज में सत्ता के शीर्ष सवर्ण रहे। एक अनुमान के मुताबिक़, मध्य प्रदेश में सवर्णों की आबादी 22 फ़ीसदी है। दलित 15.2 फ़ीसदी, आदिवासी 20.3 फ़ीसदी और बाक़ी ओबीसी और अल्पसंख्यक हैं।
प्रगतिशीलता या सामंतवाद?
मध्य प्रदेश में 1960 के दशक के आख़िर से कांग्रेस ने अपनी नीतियों को दलित और आदिवासी केंद्रित रखना शुरू किया। कांग्रेस समझ गई थी कि उसके एकछत्र राज को चुनौती मिलने जा रही है इसलिए वो पहले से ही तैयार थी। ”मध्य प्रदेश में आज़ादी के बाद कांग्रेस छोटे विपक्षी धड़ों को अपने भीतर समाहित करने में कामयाब रही लेकिन औपनिवेशिक काल में बनी हिन्दू महासभा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की मज़बूत जड़ों से निकले जनसंघ के साथ ऐसा करने में नाकाम रही। इसका नतीजा यह हुआ कि आज़ादी के बाद पहले दो दशक तक सामाजिक और क्षेत्रीय विभाजन की मज़बूत मौजूदगी के कारण कांग्रेस के एकछत्र राज को चुनौती मिली। जनसंघ से प्रतिस्पर्धा को देखते हुए कांग्रेस 1970 के दशक में ही और प्रगतिशील छवि अपनाने के लिए प्रेरित हुई। कांग्रेस ने आक्रामक समाजवादी एजेंडों को अपनाया और इसके तहत साक्षरता बढ़ाने, ग़रीबी ख़त्म करने और देसी रियासतों के अंत के लिए खुलकर सामने आई.।’
काटजू के बाद अर्जुनसिह
डॉ कैलाशनाथ काटजू के बाद अर्जुन सिंह मध्य प्रदेश के दूसरे मुख्यमंत्री बने जिन्होंने पाँच साल का कार्यकाल पूरा किया। अर्जुन सिंह चुरहट के जागीरदार परिवार से थे, लेकिन वो अपनी प्रगतिशील नीतियों के लिए जाने जाते थे।
‘सवर्णों में विलेन की तरह देखे गए अर्जुन सिंह’
”अन्य पिछड़ा वर्ग की राजनीतिक शख़्सियत को मध्य प्रदेश में स्वतंत्र वर्गीय पहचान देने का काम सबसे पहले अर्जुन सिंह ने ही किया। जब मंडल आयोग की सिफ़ारिशें धूल खा रही थीं तो अर्जुन सिंह ने पिछड़े वर्ग को आरक्षण देने के लिए महाजन आयोग का गठन किया और उसकी सिफ़ारिशों पर चुनाव से पहले फ़ैसला भी ले लिया।””यह अर्जुन सिंह की ही दूरदर्शिता थी कि महाजन आयोग का गठन कर पिछड़े वर्ग को कांग्रेस के साथ जोड़ा। उन्होंने संदेश दिया कि कांग्रेस पिछड़ों के हितों के लिए प्रतिबद्ध है। महाजन आयोग की सिफ़ारिशें लागू कीं यही वजह रही कि उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह और बिहार में लालू यादव जैसी मध्य प्रदेश में कोई तीसरी ताक़त खड़ी नहीं हो पाई।” अर्जुन सिंह भले ठाकुर थे, लेकिन वो सवर्णों के बीच अपनी नीतियों के कारण किसी विलेन से कम नहीं देखे गए।
तब अर्जुनसिह वे आक्रामक हो गये थे
अर्जुन सिंह ने 9 जून 1980 को मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के बाद ख़ुद पर सामंत होने के आरोप का जवाब देते हुए कहा था, ”अगर मैंने अपने 23 साल के सार्वजनिक जीवन में सामंती हितों का पोषण किया हो, या कोई मेरे ख़िलाफ़ सामंती रवैया अपनाने का एक आरोप भी सिद्ध कर दे तो आज ही अपने पद से त्यागपत्र देने को तैयार हूं। जहां तक सामंत के घर में जन्म लेने का आरोप है तो वह मेरे बस की बात नहीं और न मैं उसका खंडन कर सकता हूं। लेकिन मैंने अपने जीवन में कभी सामंती मनोवृत्ति को स्थान नहीं दिया।
अर्जुनसिह ने लिए साहसिक फैसले
”कांग्रेस ने 1980 में सत्ता में वापसी की तो उसे लगा कि नवनिर्मित बीजेपी को चुनौती देने के लिए और दलितों आदिवासियों में गिरते जनाधार को थामने के लिए कुछ ठोस और विवेकपूर्ण फ़ैसले लेने की ज़रूरत है। 1980 के दशक के मध्य में बिहार और उत्तर प्रदेश में दलितों के उभार से कांग्रेस के पसीने छूट रहे थे। इन्हीं कारणों को देखते हुए अर्जुन सिंह ने साहसिक फ़ैसले लिए और कई कल्याणकारी योजनाओं को लागू किया। मंडल आंदोलन से पहले आरक्षण को लागू कर देना अपने-आप में यह क्रांतिकारी फ़ैसला था। दूसरी तरफ़ यूपी-बिहार में दलित और पिछड़ों के उभार के बावजूद राज्य की सरकारें इन नीतियों को लागू नहीं कर पाईं और उनका निजी राजनीतिक स्वार्थ सबसे ऊपर रहा।” यही कारण है कि 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद भी 1993 के मध्य प्रदेश चुनाव में कांग्रेस जीती और भाजपा को हार का सामना करना पड़ा।
दिग्विजय ने कैसे संभाली विरासत
अर्जुन सिंह की विरासत को दिग्विजय सिंह ने भी आगे बढ़ाया। भूमिहीन दलितों को ज़मीन मुहैया कराने और पंचायती राज को प्रभावी बनाने का काम किया। जनवरी 2002 में तो दिग्विजय सिंह ने भोपाल दस्तावेज कॉन्फ़्रेंस का आयोजन किया और इसमें दलितों से जुड़े कई एजेंडों को पास किया गया। भोपाल दस्तावेज कॉन्फ़्रेस की कई सिफ़ारिशें काफ़ी विवादित हुईं।
नहीं पनप पाए आंदोलन
दिलचस्प है कि मध्य प्रदेश में दलितों और आदिवासियों का पहचान की राजनीति से जुड़ा कोई आंदोलन सामने नहीं आया। आख़िर ऐसा क्यों हुआ? अर्जुन सिंह ने इन जातियों के विकास के लिए जिस मॉडल को आगे बढ़ाया था उसे दिग्विजय सिंह ने भी आगे बढ़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ी और यही कारण था कि कांग्रेस ने इन आंदोलनों की ज़मीन पहले ही ख़त्म कर दी।
‘राजाओं की पार्टी’
2003 के बाद कांग्रेस सत्ता में 2018 में लौटी। सिंधिया और दिग्विजय सिंह का ताल्लुक़ राजघरानों से है तो कमलनाथ भी अपने इलाक़े के बड़े कारोबारी हैं। तीनों में से कोई दलित, आदिवासी और पिछड़ी जाति का नेता नहीं था। दूसरी तरफ़ भारतीय जनता पार्टी पिछले पंद्रह साल से सत्ता में थी और उसने सारे मुख्यमंत्री पिछड़ी जाति के लोगों को बनाए। फिर भी कांग्रेस को जीत मिली। इसलिए कांग्रेस भले ही सिंधिया से धोखा खा सत्ता गंवा चुकी हो पर कमलनाथ, डा गोविंद सिंह और पर्दे के पीछे दिग्विजय सिंह के साथ ही 2023 की जंग में उतरेगी।