अपनी पहचान मिटा गठबंधन के दलदल से सत्ता की तमन्ना

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अगले लोकसभा चुनाव के लिए मैदान अभी तैयार नहीं हुआ , लेकिन अति आकांक्षा वाली क्षेत्रीय पार्टियों ने गठबंधन के दलदल में  प्रधान मंत्री  के सपने बुनने शुरु कर दिए हैं | दिलचस्प अति महत्वाकांक्षी तेलंगाना के चंद्र शेखर राव हैं , जिन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर अपना डंका बजने के लिए अपनी मुलभुत पहचान ‘तेलंगाना ‘ हटाकर पार्टी का नाम ही ‘ भारत राष्ट्र समिति ‘ करने का फैसला किया और चुनाव आयोग से मान्यता का आवेदन कर रहे हैं | राव तो तेलंगाना के हितों की रक्षा के नाम पर दशकों तक कांग्रेस और तेलुगु देशम पार्टियों में रहकर और बाद में सड़कों पर आंदोलन करते हुए तेलंगाना राष्ट्र समिति पार्टी का गठन किया | इस राजनीति के बल पर उनकी पार्टी अब तक विधान सभा चुनाव जीतती रही है | सत्ता में रहकर राव कई विवादों में आते रहे और अब अधिक  राजनीतिक चुनौतियों का सामना कर रहे हैं | लेकिन पिछले कुछ महीनों से उन्होंने  प्रतिपक्ष को इकठ्ठा करके भारतीय जनता पार्टी का विकल्प बनने का अभियान चलाया है | असल में एच डी देवगौड़ा के एक बार सत्ता में आने के बाद से क्षेत्रीय दलों के नेता – मुख्यमंत्री कभी न कभी स्वयं भी प्रधान मंत्री बनने के सपने देखने लगे | तभी तो शरद  पवार , ममता बनर्जी , नीतीश कुमार और अरविन्द केजरीवाल तक  के समर्थक खुलकर उन्हें प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी का विकल्प बताने की कोशिश कर रहे हैं | जबकि इनमें से किसीका प्रभाव अपने राज्य से बाहर नहीं है |

 इसमें कोई शक नहीं कि भारतीय राजनीति में राष्ट्रीय राजनीतिक दलों ने जब क्षेत्रीय हितों और क्षत्रपों की अनदेखी की तो क्षेत्रीय पार्टियों का अभ्युदय हुआ | 1967 से पहले केवल अकाली दल ( वह भी 1920 में सिखों के हकों के लिए बनी शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक समिति ) की राजनीतिक धारा थी | इसी तरह द्रविड़ जाति – समाज के हितों की रक्षा के लिए सी एन अन्नादुरई ने द्रविड़ मुन्नेत्र कड़गम ( डी एम् के ) 1949 में स्थापित की थी | बाद में 1972 में  विभाजन होने पर प्रसिद्ध फिल्म अभिनेता एम् जी रामचंद्रन ने अन्ना द्रविड़ मुन्नेत्र कड़गम नाम से  पार्टी का गठन कर दिया | लेकिन देश के अन्य हिस्सों में कोई क्षेत्रीय पार्टी 1967 तक नहीं उभरी | कांग्रेस सर्वाधिक प्रभावशाली पार्टी रही | वैचारिक आधार पर सोशलिस्ट , भारतीय जनसंघ , हिन्दू महासभा , स्वतंत्र पार्टी , कम्युनिस्ट पार्टियां प्रतिपक्ष की भूमिका निभाती रही | कांग्रेस जब कमजोर होने लगी तब किसानों और समाज के पिछड़े वर्ग में प्रभाव रखने वाले चौधरी चरण सिंह ने कांग्रेस छोड़कर उत्तर प्रदेश में भारतीय क्रांति दल बना लिया | इसे क्रन्तिकारी कहा जा सकता है क्योंकि इसके साथ ही गैर कांग्रेसवाद का अभ्युदय हुआ और उत्तर दक्षिण , पूरब पश्चिम राज्यों में भी क्षेत्रीय और जातीय आधार पर नेता तथा पार्टियां खड़ी होने लगी | आज जनता दल के कई रुप – घटक विभिन्न नेताओं के दिख रहे हैं , वे चौधरी चरण सिंह और सोशलिस्ट नेताओं के उत्तराधिकारियों की तरह हैं |

 दक्षिण भारत में एन टी रामाराव ने तेलगु देशम पार्टी बनाकर एक बड़ा विकल्प क्षेत्रीय आधार पर खड़ा किया | अपनी अलग पहचान के लिए तेलंगाना के आंदोलन ने केंद्र की कांग्रेस सरकारों को हिलाकर रफ़ख दिया था | सत्तर के दशक में नरसिंह राव जैसे दिग्गज नेता को मुख्यमंत्री पद त्यागने को मजबूर होना पड़ा | प्रधान मंत्री बनने के बाद भी उन्होंने अलग तेलंगाना राज्य बनाने की मांग नहीं स्वीकारी | लेकिन कांग्रेस ,  तेलुगु देशम पार्टी के बल पर विधान सभा और सत्ता के गलियारों में अपनी पैठ बनाते हुए चंद्रशेखर राव ने 2001 में तेलंगाना राष्ट्र समिति के नाम से पार्टी बनाकर आंदोलन को तेज कर दिया | लम्बी जमीनी लड़ाई से अंततोगत्वा 2014 के लोक सभा चुनाव से पहले मनमोहन सिंह की सरकार ने कांग्रेस को राजनीतिक लाभ की उम्मीद से अलग तेलंगाना राज्य की मांग स्वीकार कर संसद से स्वीकृति भी दे दी | यही से चंद्रशेखर राव तेलंगाना के पितृ पुरुष हो गए और पार्टी की भारी विजय के साथ मुख्या मंत्री बन गए | नए राज्य में दूसरी बार 2018 के विधान सभा  चुनाव में राव की तेलंगाना राष्ट्र समिति ने

119 में से   लगभग सत्तर प्रतिशत सीटें यानी 88 सीटों पर विजय पा ली | एकछत्र राज पाने के साथ राव ने मनमाने ढंग से काम शुरु कर दिया | नई राजधानी का निर्माण , मंदिर निर्माण , अपने दफ्तर को बुलेट प्रूफ बनाने के  अलावा भ्रष्टाचार और परिजनों को सत्ता के अधिकाधिक लाभ देने के आरोपों से उनके लिए खतरे बढ़ गए हैं | कांग्रेस अब भी कमजोर है , लेकिन भारतीय जनता पार्टी ने पिछले वर्षों के दौरान प्रभाव बढ़ा लिया है | राव भाजपा या कांग्रेस से समझौते के बजाय केंद्र में सत्ता के लिए दौड़ लगाने निकल पड़े हैं | लेकिन यह न माया मिली , न राम जैसी स्थिति बन रही है |

चंद्रशेखर राव अकेले नहीं हैं | नीतीश कुमार के जनता दल ( यू ) बिहार में कमजोर होती गई है | लेकिन नीतीश चौधरी चरण सिंह , चंद्रशेखर और देवेगौड़ा के सारे रिकार्ड तोड़कर प्रधान मंत्री बनने के लिए किसी भी समझौते के लिए बेताब दिख रहे हैं | उन्होंने 1990 में जनता दल और लालू प्रसाद यादव के साथ सत्ता में भागेदारी शरू की | फिर समता पार्टी जार्ज फर्नांडीज , शरद यादव , देवेगौड़ा के साथ राजनीतिक लाभ उठाए | फिर सबको धकेला , भाजपा से नाता जोड़ा , तोडा , लालू के साथ जुड़े , छोड़ा , चुनाव में अन्य छोटे दलों  के अलावा घोर विरोधी कहकर भी कांग्रेस , राष्ट्रवादी कांग्रेस , इंडियन नैशनल लोकदल  , हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा तक से हाथ मिलाने में संकोच नहीं किया | हाल में भाजपा से नाता तोड़कर विपक्ष की एकता के नाम पर भ्रष्टाचार में  वर्षों तक जेल की सजा  भुगत कर निकले ओमप्रकाश चौटाला और लालू यादव के नेतृत्व में सभा कर ली | कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी के दरबार में हाजिरी लगाई , जिस पर फ़िलहाल उत्तर नहीं मिला है | यही हाल ममता बनर्जी का है | वह प्रतिपक्ष एकता के पक्ष में हैं , लेकिन नेता राहुल गाँधी या नीतीश को स्वीकारने के मूड में नहीं हैं | शरद पवार कांग्रेस से समर्थन चाहते हैं , लेकिन महाराष्ट्र में कांग्रेस को अधिक हिस्सा देना नहीं चाहते | अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी भाजपा से कतई  समझौता नहीं कर सकती , लेकिन कांग्रेस , बसपा या जनता दल ( यू ) से उसे कोई लाभ नहीं हो सकता है |

 इस तरह अधिकांश क्षेत्रीय दलों को अपने राज्यों में जब कांग्रेस से भी टक्कर लेनी होगी तो जुबानी समझौतों और गठबंधन की बातों से कितना लाभ उठा सकेंगे ? पहली चुनौती इस बात की है कि क्या 2024 के लोक सभा चुनाव में भाजपा और उसके सहयोगी दल क्या सरकार का दावा कर सकने लायक सीटें ही नहीं ला पाएंगे ? और ऐसा कुछ होने पर प्रति[पक्ष के नेता आसानी से किसी क्षेत्रीय नेता पर सर्वानुमति बना सकेंगे ? यदि रो धोकर गठबंधन के दलदल में किसीको पतवार थमा दी गई , तो उसकी हालत चरण सिंह या चंद्रशेखर जैसे पूर्व प्रधानमंत्रियों की तरह नहीं हो जाएगी ? इस दलदल और डगमगाती नाव से लोकतंत्र और देश को कितना नुकसान  होगा ?

( लेखक आई टी वी नेटवर्क – इंडिया न्यूज़ और दैनिक आज समाज के सम्पादकीय निदेशक हैं )

Author profile
ALOK MEHTA
आलोक मेहता

आलोक मेहता एक भारतीय पत्रकार, टीवी प्रसारक और लेखक हैं। 2009 में, उन्हें भारत सरकार से पद्म श्री का नागरिक सम्मान मिला। मेहताजी के काम ने हमेशा सामाजिक कल्याण के मुद्दों पर ध्यान केंद्रित किया है।

7  सितम्बर 1952  को मध्यप्रदेश के उज्जैन में जन्में आलोक मेहता का पत्रकारिता में सक्रिय रहने का यह पांचवां दशक है। नई दूनिया, हिंदुस्तान समाचार, साप्ताहिक हिंदुस्तान, दिनमान में राजनितिक संवाददाता के रूप में कार्य करने के बाद  वौइस् ऑफ़ जर्मनी, कोलोन में रहे। भारत लौटकर  नवभारत टाइम्स, , दैनिक भास्कर, दैनिक हिंदुस्तान, आउटलुक साप्ताहिक व नै दुनिया में संपादक रहे ।

भारत सरकार के राष्ट्रीय एकता परिषद् के सदस्य, एडिटर गिल्ड ऑफ़ इंडिया के पूर्व अध्यक्ष व महासचिव, रेडियो तथा टीवी चैनलों पर नियमित कार्यक्रमों का प्रसारण किया। लगभग 40 देशों की यात्रायें, अनेक प्रधानमंत्रियों, राष्ट्राध्यक्षों व नेताओं से भेंटवार्ताएं की ।

प्रमुख पुस्तकों में"Naman Narmada- Obeisance to Narmada [2], Social Reforms In India , कलम के सेनापति [3], "पत्रकारिता की लक्ष्मण रेखा" (2000), [4] Indian Journalism Keeping it clean [5], सफर सुहाना दुनिया का [6], चिड़िया फिर नहीं चहकी (कहानी संग्रह), Bird did not Sing Yet Again (छोटी कहानियों का संग्रह), भारत के राष्ट्रपति (राजेंद्र प्रसाद से प्रतिभा पाटिल तक), नामी चेहरे यादगार मुलाकातें ( Interviews of Prominent personalities), तब और अब, [7] स्मृतियाँ ही स्मृतियाँ (TRAVELOGUES OF INDIA AND EUROPE), [8]चरित्र और चेहरे, आस्था का आँगन, सिंहासन का न्याय, आधुनिक भारत : परम्परा और भविष्य इनकी बहुचर्चित पुस्तकें हैं | उनके पुरस्कारों में पदम श्री, विक्रम विश्वविद्यालय द्वारा डी.लिट, भारतेन्दु हरिश्चंद्र पुरस्कार, गणेश शंकर विद्यार्थी पुरस्कार, पत्रकारिता भूषण पुरस्कार, हल्दीघाटी सम्मान,  राष्ट्रीय सद्भावना पुरस्कार, राष्ट्रीय तुलसी पुरस्कार, इंदिरा प्रियदर्शनी पुरस्कार आदि शामिल हैं ।