कानून और न्याय.क्या प्रतिकूल कब्जे के कानूनों में बदलाव की जरूरत

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कानून और न्याय

क्या प्रतिकूल कब्जे के कानूनों में बदलाव की जरूरत 

प्रतिकूल कब्जे पर जोर-शोर से बहस चल रही है। उच्चतम न्यायालय यह टिप्पणी दे चुका है कि प्रतिकूल कब्जे के कानूनों में बदलाव की जरूरत है। यह बहस अब और ज्यादा गंभीर मोड़ ले चुकी है। विधि आयोग ने इससे इंकार करते हुए यह कहा कि प्रतिकूल कब्जा कानून का अहम हिस्सा होते हुए बदलाव करने की आवश्यकता नहीं है।

पूर्व असिस्टेंट सॉलिसिटर जनरल एवं वरिष्ठ अधिवक्ता विनय झैलावत का कॉलम

भारत के विधि आयोग ने परिसीमन अधिनियम, 1963 के अनुच्छेद 64, 65, 111 या 112 के तहत प्रदान की गई सीमा अवधि को बढ़ाने के खिलाफ सिफारिश की है। आयोग ने प्रतिकूल कब्जे के कानून पर अपनी 280वीं रिपोर्ट में कहा है कि प्रतिकूल कब्जे से संबंधित कानून में किसी भी बदलाव का कोई औचित्य नहीं है। यह घटनाक्रम ऐसे समय में आया है जब सर्वोच्च न्यायालय ने दो अलग-अलग फैसलों में प्रतिकूल कब्जे की अवधारणा को खारिज कर दिया। साथ ही इन कानूनी प्रावधानों पर संसद द्वारा नए सिरे से विचार करने की आवश्यकता पर जोर दिया।

अपनी रिपोर्ट में, आयोग ने संविधान के अनुच्छेद 370 को निरस्त करने के प्रकाश में अधिनियम के अनुच्छेद 112 की भाषा में केवल एक मामूली बदलाव की सिफारिश की है। इसने जम्मू और कश्मीर के तत्कालीन राज्य को विशेष दर्जा दिया था। अधिनियम की न्यायिक सीमा-धारा-1 में निहित में 2019 से पहले जम्मू और कश्मीर राज्य शामिल नहीं था। जम्मू और कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम, 2019 के बाद जम्मू और कश्मीर राज्य को छोड़कर शब्द खंड से हटा दिए गए थे। इसलिए, आयोग ने नोट किया है, अनुच्छेद 112 से जम्मू और कश्मीर राज्य के राज्यपाल सहित शब्दों को हटाना समीचीन होगा।

प्रतिकूल कब्जे का अर्थ और भारत में कानूनी स्थिति में प्रतिकूल कब्जा एक कानूनी अवधारणा है। यह किसी व्यक्ति को उस भूमि के कानूनी स्वामित्व का दावा करने के लिए एक निश्चित अवधि के लिए किसी और की भूमि पर अवैध रूप से कब्जा करने की अनुमति देता है। भारत में, प्रतिकूल कब्जा लंबे समय से कानूनी ढांचे का एक हिस्सा रहा है। यह इस विचार में निहित है कि भूमि को खाली नहीं छोड़ा जाना चाहिए तथा इसे विवेकपूर्ण उपयोग के लिए रखा जाना चाहिए। प्रतिकूल कब्जे का दावा करने के लिए, कब्जेदार को यह साबित करना होगा कि वे कम से कम 12 वर्षों से भूमि पर निरंतर, निर्बाध कब्जे में है। साथ ही उनका कब्जा स्पष्ट रूप से, सबकी जानकारी एवं संपत्ति के स्वामी की जानकारी में था। इसके अलावा संपत्ति के स्वामी द्वारा इसका कोई विरोध अथवा कार्यवाही न की जाना भी साबित होना चाहिए।

प्रतिकूल कब्जे पर कानून परिसीमन अधिनियम, 1963 के अनुच्छेद 65, अनुसूची में निहित है। अचल संपत्ति के कब्जे के लिए या स्वामित्व के आधार पर उसमें किसी भी हित के लिए एक वाद के लिए 12 वर्ष की सीमा निर्धारित करता है। अनुच्छेद 65 एक स्वतंत्र अनुच्छेद है जो स्वामित्व के आधार पर अचल संपत्ति के कब्जे के लिए सभी मुकदमों पर लागू होता है। इसका अर्थ है स्वामित्व से अलग मालिकाना हक। अनुच्छेद 64 कब्जे के अधिकार के आधार पर कब्जे के लिए वाद को नियंत्रित करता है। बेदखली की तारीख से 12 वर्ष अनुच्छेद 64 के तहत सीमा का प्रारंभिक बिंदु है। अनुच्छेद 65 के साथ-साथ अनुच्छेद 64 को धारा 27 के साथ पढ़ा जाना चाहिए। इसमें नियम का अपवाद है कि परिसीमन केवल उपाय को रोकता है लेकिन टाईटल समाप्त नहीं करता है।

धारा 27 संपत्ति टाईटल के अधिकार का उन्मूलन यह बताती है कि जहां कब्जे के लिए वाद दर्ज करने के लिए कार्रवाई का कारण मौजूद है और निर्धारित सीमा की अवधि के भीतर वाद दायर नहीं किया गया है, तो न केवल परिसीमा की अवधि समाप्त हो जाएगी। लेकिन, टाइटल या कब्जे के आधार पर अधिकार भी समाप्त हो जाएगा। दूसरे शब्दों में, इस खंड के आधार पर, एक व्यक्ति जिसके पास कब्जे का अधिकार था, लेकिन उसने अपनी निष्क्रियता से अपने अधिकार को समाप्त करने की अनुमति दी है, प्रतिकूल कब्जे वाले व्यक्ति से संपत्ति को फिर से प्राप्त नहीं कर सकता है। किसी निजी व्यक्ति की भूमि के संबंध में निर्धारित सीमा अवधि के विपरीत, जहां कोई सार्वजनिक सड़क या रोड़ या उसका कोई हिस्सा जिसका अतिक्रमण किया गया है और कब्जे के लिए किसी स्थानीय प्राधिकरण द्वारा या उक्त गली या सड़क की ओर से कोई वाद नहीं किया गया है। 30 वर्षों के बाद सरकार का अधिकार भी समाप्त माना जाएगा। सर्वोच्च न्यायालय ने हाल के दो फैसलों में प्रतिकूल कब्जे की तीखी आलोचना की है।

सर्वोच्च न्यायालय ने हेमाजी वाघाजी मामले में प्रतिकूल कब्जे की अवधारणा को अतार्किक और सच्चे मालिक के लिए पूरी तरह से अनुपातहीन और कठोर बताया। साथ ही एक बेईमान व्यक्ति के लिए अन्यायपूर्ण समृद्धि का साधन बताया, जिसने संपत्ति पर अवैध रूप से कब्जा कर लिया है। शीर्ष अदालत ने मुकेश कुमार मामले में कहा कि संसद को चाहिए कि वह कम से कम दुर्भावनापूर्ण एवं अतिक्रमण के माध्यम से हासिल किए गए प्रतिकूल कब्जे को समाप्त करने पर गंभीरता से विचार करे।

विधि आयोग ने प्रतिकूल कब्जे पर मौजूदा कानून को बनाए रखने की वकालत करते हुए सर्वोच्च न्यायालय की तुलना में स्पष्ट रूप से अलग रूख अपनाया है। क्योंकि, वे वर्तमान में कानून की किताब में मौजूद हैं। भूमि के कब्जे के लिए वाद दायर करने के लिए निजी मालिकों के लिए सीमा अवधि बढ़ाने के संबंध में आयोग की रिपोर्ट में कहा गया है कि अनुच्छेद 64 या 65 के तहत 12 वर्ष की अवधि बढ़ाने का भी कोई औचित्य नहीं है। सन् 1908 के अधिनियम के तहत भी, अनुच्छेद 142 (1963 अधिनियम के अनुच्छेद 64) और अनुच्छेद 144 (1963 के अधिनियम का अनुच्छेद 65) के तहत एक वाद के लिए सीमा अवधि 12 वर्ष थी। स्थानीय अधिकारियों या राज्य या केंद्र सरकारों से संबंधित भूमि के संबंध में भी ऐसा ही रूख अपनाया गया है। रिपोर्ट बताती है कि 1908 अधिनियम के तहत सीमा अवधि अनुच्छेद 146-ए (1963 अधिनियम के अनुच्छेद 111) और अनुच्छेद 149 (1963 अधिनियम के अनुच्छेद 112) के तहत 60 वर्ष थी और बाद में इसे घटाकर 30 वर्ष कर दिया गया था। कई अनुच्छेदों के लिए 60 वर्ष की अधिकतम अवधि को घटाकर उन सभी के लिए 30 वर्ष करने का नीतिगत निर्णय लिया गया है। उल्लेखनीय है कि सन् 1963 के अधिनियम के तहत किसी भी वाद की अधिकतम अवधि 30 वर्ष से अधिक नहीं है।

विशेष रूप से दुर्भावनापूर्ण प्रतिकूल कब्जे को समाप्त करने पर विचार करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय की सलाह के विपरीत विधि आयोग ने स्पष्ट रूप से कहा है कि केवल उन लोगों के लिए सिद्धांत उपलब्ध कराने का कोई औचित्य नहीं हो सकता है जो पूरी चेतना के साथ बेईमानी से दूसरे की भूमि में प्रवेश नहीं करते हैं। आयोग ने आगे कहा कि बिना नेकनीयती के भूमि में प्रवेश करने वाले अतिक्रमी को प्रतिकूल कब्जे की दलील से इंकार करना भी न्यायोचित और उचित नहीं है। इसके अलावा आयोग ने यह भी कहा है कि परिसीमन अधिनियम, 1963 में संपत्ति में सुधार के लिए असली मालिक द्वारा अतिक्रमी को दिए जाने वाले किसी भी मुआवजे पर विचार नहीं किया गया था, न कि प्रतिकूल मालिक द्वारा मालिक को। आयोग ने अनुच्छेद 64 या 65 के तहत अनिवासी भारतीयों (एनआरआई) के लिए विशेष सुरक्षा उपायों की सिफारिश करने से भी इंकार कर दिया है। रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि एनआरआई के लिए अपनी संपत्ति की सुरक्षा के तरीके और साधन है। तकनीकी विकास, काफी हद तक, उनके पक्ष में भी एक लाभकारी कारक होगा।