बाजार की अपूर्णता से किसान परेशान, उम्मीद सिर्फ सरकार से!
– गुरविंदर सिंह घुमन
एक बार फिर पंजाब में किसान सड़कों पर हैं। ये आंदोलन लंबे समय से जारी है। यूं ही कोई इस रक्त जमाती सर्दी में सड़क पर नहीं उतर आता। दरअसल, किसान के दर्द को संवेदनशील ढंग से समझने की जरूरत है। इसे राजनीतिक चश्मे से सुना जाना चाहिए। सरकारों को ऐसे देखना चाहिए, जैसे पिता बच्चों की फिक्र करता है। अन्नदाता का बार-बार सड़क पर उतरना देश हित में नहीं है। इसमें दो राय नहीं है कि देश ने सदियों तक की गुलामी का दौर देखा है। रियासतों के वजीर से लेकर जमींदार तक किसानों का शोषण करते थे। उनके करिंदे किसानों के हित नहीं देखते थे। देश में बाढ़, सूखे और अकाल की मार का सबसे ज्यादा शिकार किसान को ही होना पड़ा।
आजादी के बाद देश में कई किसान सुधार लागू हुए। लेकिन उन में कई तरह की खामियां थी। खेतों की जोत को चकबंदी के द्वारा नियंत्रित किया गया। परिवारों में बंटवारे की वजह से लगातार जमीन छोटी होती जा रही है। किसान का परिवार खेती से जीवन यापन न कर सका तो उसके बच्चे शहरों में काम-धंधे की तलाश में जाने लगे। लेकिन देश में छोटी जोतों की समस्या बनी रही। बड़े जमींदारों को ये भय सदैव रहा कि कब सरकार जमीन का आकार सीमित कर दे। कब उसकी जमीन ले ली जाये। दरअसल, तमाम विसंगतियों के बावजूद जरूरी है कि किसान को परफेक्ट बाजार मिले। किसान को उसकी मेहनत का सही दाम मिले। उसे कई तरह के टैक्स न देना पड़े। बिचौलिये उसके मुनाफे का हिस्सा नहीं ले जाएं।
दरअसल, किसान को जहां मौसम की मार से नुकसान उठाना पड़ता है, वहीं अकसर अतिवृष्टि व बाढ़ जैसी समस्याओं से जूझना पड़ता है। कभी टिड्डियों के हमलों से फसल बर्बाद होती है। कभी फसल बंपर हो जाये तो बाजार में फसलों के दामों में गिरावट आ जाती है। जैसा कि कई बार हुआ कि किसानों को अपनी आलू व प्याज की फसल को सड़कों में फेंकना पड़ा। या फिर भरी फसल में ट्रैक्टर चलाना पड़ा। दरअसल, फसल को मंडी ले जाने का खर्चा भी किसान नहीं उठा पाता। किसानों को अपना कर्ज भी चुकाना होता है। अपना परिवार भी पालना होता है। लेकिन जब लागत ही नहीं आती तो उसे आत्महत्या तक करने को मजबूर होता है। जितनी नकदी फसलें होती हैं उनका खर्चा भी ज्यादा होता है। खाद, बीज और डीजल के दाम बढ़ने से उसकी लागत बढ़ जाती है।
निस्संदेह, यदि सरकार बाजार को परफेक्ट बना दे तो किसान को उसकी मेहनत का पूरा पैसा मिल जागा। देश में अच्छी सड़कें हों। अनाज ढोने के साधन सस्ते मिल जायें। किसान को पसीना सूखने से पहले फसल का दाम मिल जाये तो किसान की कई समस्याओं का समाधान निकल जायेगा। हमारे देश में खेती व्यापार नहीं है। किसान बाजार के खेल को नहीं जानता। फसल पूरी होती है तो किसान को फायदा नहीं मिलता। उपभोक्ता को भी सस्ता अनाज नहीं मिलता। तो कौन इस बंपर फसल का फायदा उठा रहा है? मानना है कि बाजार को परफेक्ट बनाया जाये, बिचौलियों से किसान को बचाया जाये तो उसकी तमाम समस्याएं खत्म हो जाएगी।
आज देश में अनाज भंडारण की व्यवस्था बड़े पैमाने पर करने की जरूरत है। ताकि किसान खेत से तुरंत फसल उठाकर औने-पौने दाम में बाजार में न जाये। जिससे उसे फसल कम दाम में बेचनी पड़ी। आशा है इन सवालों पर देश में मंथन होगा तो किसान की समस्याओं का समाधान हो सकेगा। किसान आंदोलन की वजह से जिन तीन सुधार कानूनों को वापस लेना पड़ा, उस दिशा में फिर बढ़ने की जरूरत है। किसान संगठनों, बुद्धिजीवियों, कृषि विशेषज्ञों तथा कृषि विशेषज्ञों की राय लेकर आगे बढ़ा जाये। 21 वीं सदी में हमारी जनसंख्या डेढ अरब पार कर जायेगी। इतनी बड़ी आबादी का पेट भरने के लिये कृषि में सुधारों की जरूरत है। साथ ही किसान की आय बढ़ाने के लिये भी यह जरूरी है।
निस्संदेह ढर्रे पर चल रही खेती को उत्पादक बनाने तथा किसान को उसकी मेहनत का सम्मानजनक कीमत देना समय की जरूरत है। लेकिन इससे पहले कृषक के मनोविज्ञान को समझने और उसकी असुरक्षा की भावना को भी समझना जरूरी है। यदि कुछ बिंदुओं पर ध्यान दिया जाये तो देश में जारी किसान असंतोष खत्म किया जा सकता है। बस किसान को समझ आना चाहिए कि बदलाव उसकी भलाई में है। पूरे देश में अनाज, फल व सब्जी की उत्पादकता भौगोलिक क्षेत्र, वातावरण व मौसम के हिसाब से अलग-अलग है। ऐसे में लागत व उत्पादक के हिसाब से किसान को एक जैसी कीमत नहीं मिल पाती। जिससे उसका मुनाफा क्षेत्र के हिसाब से कम ज्यादा होता है।
एक महत्वपूर्ण पहलू यह है कि देश में अस्वस्थ कंपटीशन, अस्वस्थ बाजार, अनियंत्रित बाजार में बिचौलियों की भूमिका अत्यधिक है। वहीं उत्पादों की बिक्री के लिए सुनियोजित बाजार नहीं है, जिसकी वजह से किसान को उसकी उपज का वाजिब दाम नहीं मिल पाता। ऐसे में मूल विरोध कृषि सुधार कानूनों का नहीं है,बल्कि बाजार की असुरक्षा का है क्योंकि सिस्टम किसान को उसको वाजिब हक नहीं देता। किसी भी सुधार से पहले काश्तकार के दिमाग में ये प्रश्न उसे परेशान करते हैं। विडंबना है कि पूरे देश में करीब छह प्रतिशत किसानों को ही न्यूनतम समर्थन मूल्य का लाभ मिल रहा है। खासकर पंजाब, हरियाणा व पश्चिम उत्तर प्रदेश में हरित क्रांति के क्षेत्र में ही मूलत: किसानों को इसका लाभ मिलता है। ऐसे में आमदानी की निश्चितता को लेकर क्षेत्र का किसान केवल गेहूं व धान की फसल को ही प्राथमिकता के आधार पर उगा रहा है। जिसका नुकसान यह है कि किसान फसलों की विविधता पर ध्यान नहीं देता। बाजार की असुरक्षा को देखकर वह नकदी फसलों की बुवाई को प्राथमिकता नहीं देता। इसी वजह से काश्तकार सुधारों का विरोध करता है।
भारत में उपभोक्ता की पसंद की वजह से फलों व सब्जियों का बाजार स्थापित हो रहा है। बाजार में यह उत्पाद उपलब्ध भी हैं और इसकी मांग भी है। लेकिन आम सब्जी किसानों व फल उत्पादकों को इसके व्यावसायिक उत्पादन का ज्ञान नहीं दिया गया। यह जानकारी नहीं है कि जल्दी खराब होने वाली सब्जी व फल का कैसे संग्रहण किया जाये, वेयरहाउसिंग की सुविधा नहीं है तथा दूर के राज्यों में भेजने के लिए कोल्ड स्टोरेज चेन का अभाव है। इसके अभाव में बाजार का विस्तार नहीं हो पाता और किसान को औने-पौने दाम में अपनी फसल अपने आसपास के बाजार में बेचनी पड़ जाती है। दूसरे हम कृषि उत्पादक राज्यों में खेती पर आधारित उद्योगों का विकास नहीं कर पाए हैं। कह सकते हैं कि हमारी एग्रो इंडस्ट्री अभी अधूरी है।यदि हम इसे आजतक इसे विकसित कर पाते तो किसान को उसकी फसल का वाजिब दाम मिल पाता। किसान समृद्ध होता और देश निर्यात की दिशा में बढ़ सकता था।
सरकार और किसान को टकराव को टालने के लिये जरूरी है कि सरकार जिन राज्यों में किसानों से धान व गेहूं न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदती है, उन्हें लिखित रूप में आश्वासन दे कि अगले पांच साल तक खरीदती रहेगी। फिर प्रायोगिक तौर पर अगले तीन सालों के लिये सुधार कानूनों को सरकार,कृषि विशेषज्ञों तथा किसान संगठनों के विचार-विमर्श के बाद लागू किया जाये। इसके साथ किसानों के जो भी अन्य मसले हैं, उनका भी समाधान निकालने की दिशा में काम करे।