ऐसे थे हमारे बापू:  गांधी जी की ज़िद पर बना पहला स्वदेशी पेन

आइजन हावर से लेकर खुश्चेव के  हाथों तक पहुंचा 'रत्नम पेन'

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First indigenous pen made on the insistence of Gandhiji

ऐसे थे हमारे बापू:  गांधी जी की ज़िद पर बना पहला स्वदेशी पेन

आइए आज आपको देश के पहले स्वदेशी पेन की कहानी सुनाते हैं। स्वदेशी है तो ज़ाहिर है इसके पीछे हमारे बापू ही होंगे।

ये कहानी शुरू होती है आज से क़रीब एक सौ एक साल पहले यानी सन 1921 में। महात्मा गांधी आज़ादी की लड़ाई में विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार और स्वदेशी का नारा लगा रहे थे। हर चीज में स्वदेशी के हिमायती बन चुके थे।

उसी दौर में आंध्र प्रदेश के पूर्वी गोदावरी जिले के राजमुंदरी शहर के रहने वाले कोसुरी वेंकट रत्नम सन 1921 में अहमदाबाद से वर्धा की यात्रा में महात्मा गांधी से मिले। रत्नम तब राजमुंदरी में फोर्ट गेट स्ट्रीट में रहते थे। वे अपने घर से ही सुनार/ जौहरी का काम करते थे।

पहली मुलाकात में रत्नम ने गांधी जी से पूछा मुझे क्या बनाना चाहिए…? बापू के मुंह से सहज ही निकला –

‘पिन से पेन तक कुछ भी लेकिन जो भी बनाओ वो पूरी तरह स्वदेशी होना चाहिए।’

रत्नम ने फाउंटेन पेन बनाने का संकल्प लिया। राजमुंदरी लौटे और स्वदेशी पेन की कोशिश शुरू की उन्होंने राजमुंदरी के एक मजिस्ट्रेट एम कृष्णाचार्य से लंदन से आयातित कुछ पेन मरम्मत के लिए लिए। उन्हें अच्छी तरह से जांचा परखा और पेन बनाने में कामयाब हो गए।

लंबी कोशिश के बाद पेन बन गया और गांधी जी को भेंट किया गया। अब गांधी तो गांधी ठहरे..जांच परख कर ताड़ गए कि पेन को बनाने में बहुत कुछ स्वदेशी घटक लगे हैं लेकिन निब विदेशी है। के वी रत्नम से बापू ने कहा ये पूरी तरह स्वदेशी नहीं है, जब पूरी तरह स्वदेशी पेन बनाकर लाओगे तब इस्तेमाल करूंगा।

रत्नम ने समझाने की कोशिश भी की लेकिन गांधी जी तो महा जिद्दी आदमी थे, नहीं माने तो नहीं ही माने।

हार कर रत्नम वापस राजमुंदरी आ गए और पूरी तरह स्वदेशी माल से पेन बनाने में फिर जुट गए।

इस बीच रत्नम ने 1932 में ‘रत्नम पेन वर्क्स’ नाम से कंपनी शुरू कर दी लेकिन गांधी जी की जिद पूरी करने में दिन रात लगे रहे। अंततः सन 1934 में रत्नम पूरी तरह स्वदेशी सामग्री से पेन बनाने में सफल रहे।

अखिल भारतीय ग्रामोद्योग संघ के सचिव जे सी कुमारप्पा के जरिए ये पूर्ण स्वदेशी पेन गांधी जी तक पहुंचा। गांधी जी ने कुमारप्पा को राजमुंदरी भेजा ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि पेन पूरी तरह स्वदेशी ही है।

जांच परख कर संतुष्ट होने के बाद गांधी जी ने 15 जुलाई 1935 को रत्नम को पत्र लिखा…

“प्रिय रत्नम, कुमारप्पा के माध्यम से आपने मुझे फाउंटेन पेन भेजा है, उसके लिए मुझे आपको धन्यवाद देना चाहिए। मैंने इसका इस्तेमाल किया है और यह बाज़ार में दिखने वाले विदेशी पेन का अच्छा विकल्प लगता है।” यह पत्र आज भी रत्नम पेन वर्क्स के ऑफिस में लगा है।

🌐 दुनिया के बड़े बड़े लोगों तक पहुंचा रत्नम पेन

महात्मा गांधी बाद के बरसों में दिल खोल कर रत्नम पेन से लिखा पढ़ी करते रहे। ऐसा अनुमान है कि गांधी जी ने करीब 31 हज़ार से ज्यादा पत्र अपने जीवन काल में लिखे थे। इनमें बहुत से रत्नम पेन से भी लिखे गए।

गांधी जी के अलावा पंडित नेहरू, डॉ राजेंद्र प्रसाद,चक्रवर्ती राजगोपालचारी, इंदिरा गांधी तक का यह पसंदीदा पेन रहा। भारत के अनेक राष्ट्रपति,प्रधानमन्त्री इस नायाब पेन का इस्तेमाल करते रहे हैं।

पंडित नेहरू ने तो राजमुंदरी में रत्नम पेन के कारखाने का दौरा भी किया था। राजे रजवाड़े भी रत्नम पेन के दीवाने रहे।

रत्नम पेन दुनिया के कई बड़े नेताओं तक पहुंचा। भारत यात्रा पर आने वाले राष्ट्र प्रमुखों को यह भेंट स्वरूप दिया जाता रहा है।

अमरीका के राष्ट्रपति आइजनहावर, रूस के राष्ट्रपति निकिता खुश्चेव को भी रत्नम पेन दिया गया था। कुछ साल पहले जर्मनी की चांसलर एंजेला मर्केल को भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘रत्नम सुप्रीम’ पेन का सेट भेंट किया था।

स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पास भी रत्नम पेन है।पीएमओ ने ख़ास तौर पर उनके लिए ये पेन मंगवाया था। पेन पर नरेंद्र मोदी नाम लिखा हुआ है।

(यह जानकारी रत्नम पेन के संचालक रमण मूर्ति ने मीडिया को दी थी ) वर्तमान में कोसुरी वेंकट रत्नम की तीसरी पीढ़ी रत्नम पेन का कारोबार सम्हाल रही है।

रत्नम पेन आज भी कई तरह के मॉडल में उपलब्ध है।

इसकी कीमत पांच सौ रुपए से कई हजार तक है।

चांदी और सोने की निब वाले रत्नम पेन दो लाख रु कीमत तक में मिलते हैं।

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राकेश पाठक

लेखक वरिष्ठ पत्रकार व गाँधीवादी कार्यकर्ता हैं