Flashback: डकैती उन्मूलन अभियान ही मेरे सामने एकमात्र विकल्प!

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Flashback: डकैती उन्मूलन अभियान ही मेरे सामने एकमात्र विकल्प!

16 मई, 1983 को दमोह पुलिस अधीक्षक बनने के बाद शहर की समस्याओं को डेढ़ दो महीनों में नियंत्रित करने के बाद मेरे समक्ष दमोह ज़िले की डाकू समस्या की बड़ी चुनौती थी। वहाँ पिछले एक वर्ष से लगभग हर महीने एक पकड़ यानी फिरौती के लिए अपहरण की घटना हटा तहसील के गाँवों में हो जाती थी। ऐसी पकड़ से गाँव से लेकर विधानसभा तक सनसनी फैल जाती थी। दमोह ज़िले की हटा तहसील की उत्तर और पश्चिम सीमा पर पन्ना, छतरपुर और सागर के जंगल 10-15 किलोमीटर तक हटा, ज़िला दमोह के अन्दर तक फैले थे।

Flashback : डकैती उन्मूलन अभियान ही मेरे सामने एकमात्र विकल्प!

 

इन जंगलों से निकल कर बड़ी आसानी से डाकू हटा की सोनार नदी की घाटी के सम्पन्न गांवों में पकड़ कर फिर जंगल में विलुप्त हो जाते थे। बुंदेलखंड के ज़िलों में चम्बल घाटी की ही तरह डकैती की बहुत पुरानी परंपरा रही है। कुख्यात डकैत मोहर सिंह ने केवल 11 वर्ष पूर्व ही जयप्रकाश नारायण के समक्ष आत्म समर्पण किया था।उसके कुछ वर्षों के बाद छोटे-छोटे गैंग इन जंगलों में पनपने लगे।प्रत्येक गैंग के लीडर के पास 315 बोर की राइफ़ल तथा शेष के पास भरतल बंदूकें हुआ करती थीं। इस लगभग 60 किलोमीटर लंबे और 40 किलोमीटर चौड़े जंगल, जिसका एक छोटा हिस्सा दमोह में था, में रहने वाले डकैतों का निशाना दमोह ज़िले पर रहता था। वारदात मेरे ज़िले में होने के कारण मुझ पर पुलिस मुख्यालय का बहुत दबाव था।

 तत्काल कोई कार्रवाई करने के बजाए पहले मैंने समस्या की तह तक जाना उचित समझा। इसके लिए तमाम पुराने अभिलेखों को खंगाला, डाकुओं की वारदात करने के तरीक़े तथा इन जंगलों में बसे छोटे वन ग्रामों की जानकारी ली जो डाकुओं के लिए ऑक्सीजन का काम करते थे।पता चला कि डाकुओं की सूचना यहाँ बिल्कुल नहीं मिलती। इन ऊँचे नीचे जंगलों की भौगोलिक स्थिति के लिए टोपो शीट का बारीकी से अध्ययन किया।

 

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DGP श्री एच एम जोशी से मैंने 24 बटालियन की एक कंपनी माँग ली जिसका मैं कमांडेंट रह चुका था और सिपाहियों को नाम से जानता था।उसी समय नए पदस्थ सागर रेंज के DIG श्री एन के सिंह डकैती समस्या के अनुभवी, जंगलों के प्रेमी और मनोबल बनाए रखने के लिए सदैव तत्पर रहते थे। मेरी तैयारियां पूरी होने तक बरसात शुरू हो चुकी थी।मेरे अधीनस्थ पुलिस अधिकारी तब भौंचक्के रह गए जब मैंने कहा कि अभियान शुरू होगा। उनका कहना था कि बरसात में जंगल में चलना संभव नहीं है और जंगल इतना घना हरा हो जाता है कि उसमें डकैतों को मारना तो दूर, देखना ही संभव नहीं है।

 

सीमावर्ती जंगल के थाने रजपुरा में मैंने 24 बटालियन की E कम्पनी, हटा SDOP ठाकुर, ज़िले के कुछ चुने हुए नौजवान उप निरीक्षक और जंगल के रास्तों के भरोसेमंद स्थानीय गाइड को एकत्र किया।रास्ते के लिए हथियारों के साथ टोपो शीट, वॉटर बॉटल और खाने के लिए चना रख लिया। चलने से पहले मैंने पूरी फ़ोर्स को थाने के सामने एक उत्साहवर्धक उद्बोधन दिया और कहा कि किसी को भी कोई व्यक्तिगत पुरस्कार नहीं मिलेगा और डाकुओं का उन्मूलन करना ही सबका पुरस्कार होगा। शाम होने से कुछ ही पहले हम लोग सिंगल फ़ाइल में रवाना हुए।

 

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कुछ ही देर के बाद पानी बरसने लगा और अंधेरा घना हो गया, लेकिन फिर भी हम लोग चलते रहे। दो घंटे के बाद बराना नदी की घाटी में उतरने के लिए हमें पहाड़ों की ढलान पर उतारना पड़ा जो बेहद ख़तरनाक था।रात एक बजे क़रीब हम लोग नदी के किनारे बसे छतरपुर ज़िले के वन ग्राम बकचुर पहुँचे। वहाँ कुछ ही झोपड़ियां थी परन्तु वहाँ के निवासी पहले ही हमारी आहट सुनकर पूरा गाँव ख़ाली करके भाग चुके थे।उनके लिए डाकुओं और पुलिस में कोई विशेष अंतर नहीं था। पहली बार टार्च जलाकर हम लोगों ने देखा तो चारों ओर केवल गाय ही गाय, गोबर और कीचड़ था।आवश्यक संतरी लगाकर बाक़ी फ़ोर्स को वहीं विश्राम के लिए कहा।

मुझे एक ख़ाली झोपड़ी दी गई जिसमें मैं गीली वर्दी में ही बान की ढीली खटिया पर सो गया। सुबह उठने पर इतनी अधिक मक्खियाँ मेरे सिर पर मंडरा रही थी कि मैं चकित था। नित्य कर्म के लिए जब मैं नदी तक गया तो ये मक्खियाँ लगातार मेरे साथ गई और नदी से वापस फिर झोपड़ी तक आयी। 8 बजे हम लोग चना खाकर फिर चलने के लिए आगे बढ़े। दो घंटा चलने के बाद एक दूसरे गाँव पहुँचे जो ख़ाली था। केवल एक झोपड़ी के बाहर एक आदमी उकड़ू बैठा था और उसका सिर दोनों पैरों के बीच नीचे की ओर था। उसके पास पहुँचने पर भी वो वैसे ही बैठा रहा।

बड़े प्रयास के बाद उसको चेतन किया और मेरे बहुत पूछताछ करने पर काफ़ी देर बाद उसने बताया कि रात में डाकू गैंग आया था और उन्होंने उसे झोपड़ी के बाहर मछली बनाने के लिए कहा और पूरा गैंग उसकी पत्नी से दुष्कर्म करता रहा। इस घोर अत्याचार को सुन कर मेरी अपने अभियान के प्रति दृढ़ता और बढ़ गई।हम लोग लगातार चलते रहे और एक रात जंगल में और रूक कर कुल लगभग 40 किलोमीटर पैदल चलकर तीसरे दिन बटियागढ़ थाने के क्षेत्र में पहुँचे जहां हमारी गाड़ियां तैयार थी। पूरी यात्रा में हम लोग केवल चना खाते रहे।

डाकुओं को दमोह पुलिस की बरसात में इस मुहिम को देखकर यह सब नाटक सा लगा, परन्तु फिर भी वे अपनी सुरक्षा की दृष्टि से मेरे ज़िले की सीमा छोड़कर छतरपुर के अंदरूनी जंगलों में शरण लेने चले गए।यह आवश्यक हो गया कि सभी ज़िले मिल कर कार्रवाई करे।मैंने DIG श्री सिंह से अनुरोध कर के अपने बैचमेट कमांडेंट श्री एस पी पांडे को ज़ोनल अधिकारी नियुक्त करवाया जिनका आदेश अभियान के लिए सभी ज़िलों को मानना आवश्यक था।

पुलिस को दूसरे ज़िलों में वायरलेस पर सूचित कर जाने की अनुमति भी मिल गई।अब दमोह ज़िले के सीमावर्ती थाने बटियागढ़, रजपुरा और मड़ियादोह तथा इसके सामने लगे हुए छतरपुर के विशाल जंगल के थाने बाजना और बक्सवाहा में बरसात में ही लगातार मैं तीन या चार छोटी पुलिस पार्टियों को एक साथ विभिन्न दिशाओं से जंगल में भेजने लगा और टोपोशीट के अनुसार जंगल के बीचो बीच में ये पार्टियां मिलती थी। मैं स्वयं भी किसी पार्टी में रहता था।

अनेक छोटे बड़े नालों को पार करना पड़ता था। अब वन गाँव के लोगों ने हमें देखकर भागना बंद कर दिया और उनसे हम दूध आदि पैसे दे कर लेने लगे। छतरपुर के नवागंतुक पुलिस अधीक्षक श्री सदाशिवराव वरबड़े बहुत अनुभवी और परिश्रमी अधिकारी थे। योजनाबद्ध तरीक़े से उन्होंने भी अपनी तरफ़ से डाकुओं पर दबाव बनाया। पूरी बरसात चले इस मुहिम से डाकुओं को बदहवास होकर भागते रहना पड़ रहा था जिससे उनका नेटवर्क छिन्न भिन्न हो गया।पुलिस का ऐसा दमख़म और मानवीय व्यवहार उस पूरे क्षेत्र ने पहली बार देखा।जंगलों में बसे वन ग्रामों के लोग पुलिस और डाकुओं को अभी तक बराबर की विपत्ति समझते थे।

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परन्तु अब प्रताड़ित लोग सूचना देने के लिए आने लगे।इनमें एक छोटा अहीर भी था जिसके भाई की एक टाँग डाकुओं ने कुल्हाड़ी से काट दी थी। उसको मेरे अनुरोध पर छतरपुर ज़िले में 315 बोर की राइफ़ल इनाम में दी गई जिसे लेकर वह बेधड़क कभी पुलिस के साथ और कभी अकेले घूमने लगा।जानकारी मिल रही थी कि डाकुओं में ख़ौफ़ पैदा हो गया है।शीघ्र ही छतरपुर ज़िले में श्यामलाल शुक्ला और सूरज लोधी पूरे गैंग के साथ मारे गए।ढीमर गैंग को दमोह पुलिस ने मार गिराया और जब उनके मृत शरीर पोस्टमार्टम के लिए लाये गये तो उन्हें देखने के लिए भारी भीड़ एकत्र हो गई। नंगा अहीर ने अपने गैंग सहित दमोह रेस्ट हाउस में DIG साहब और मेरे समक्ष आत्म समर्पण कर दिया।

सात आठ महीने के अंदर ही इस पूरे क्षेत्र में कोई डाकू गैंग शेष नहीं बचा।मेरे साथ जंगल में चलने वाले सभी पुलिस कर्मचारी बहुत प्रसन्न थे। नागरिकों ने भी पुलिस का हटा और दमोह में अभूतपूर्व सम्मान किया।इस ऐतिहासिक अभियान में न केवल डकैत ही मारे गए, बल्कि बुंदेलखंड की डकैती की समस्या भी सदैव के लिये समाप्त हो गई।