राष्ट्रीय कैलेंडर के लिये विक्रम संवत् , कब तक अस्पृश्य रहेगा?

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राष्ट्रीय कैलेंडर के लिये विक्रम संवत् , कब तक अस्पृश्य रहेगा?

डाॅ.मुरलीधर चाँदनीवाला

चैत्र शुक्ल प्रतिपदा का दिन विक्रम संवत् के आरम्भ होने का दिन है। यह दिन विश्व के सबसे पहले गणतंत्र का स्थापना-दिवस होने के साथ-साथ सृष्टि के आरम्भ का भी दिन है। अब से 2082 वर्ष पहले शकों को परास्त कर मालव गणराज्य की जो अविस्मरणीय जीत हुई, उसे राष्ट्रीय गौरव का विषय माना जाता है। पूरा भारत आज भी इस दिन को पूरे उत्साह के साथ उत्सव के रूप में मनाता है। घर-घर, द्वार-द्वार गुड़ी बाँधने की परम्परा के कारण यह दिन गुड़ी पड़वा भी कहलाता है। गुड़ी विजयोल्लास की देवी है, नये संवत्सर की शुभ-संदेशवाहिका है। यह नव-संवत्सर की सनातन उषा ही है जो हमारे द्वार पर उत्सव बन कर आ खड़ी होती है।

जिस तरह हिन्दी का राष्ट्रव्यापी वर्चस्व होते हुए भी वह हमारी राष्ट्रभाषा नहीं, उसी तरह विक्रम संवत् का चारों तरफ बोलबाला होते हुए भी वह राष्ट्रीय कैलेंडर नहीं बन सका। हमारा राष्ट्रीय कैलेंडर वर्ष 1957 में घोषित हुआ। दुर्भाग्यवश विक्रम संवत् को नहीं, शक संवत् को राष्ट्रीय कैलेंडर के लिये चुना गया। तब से लेकर अब तक विक्रम संवत् राष्ट्रीय कैलेंडर के लिये अस्पृश्य ही बना हुआ है।

बहुत कम लोग जानते हैं कि ऐसा क्यों है? कहा जाता है कि तत्कालीन सरकार ने धर्म-निरपेक्ष सिद्धांतों के दबाव में आकर विक्रम संवत् को पीछे धकेला, और शक संवत् को आगे किया। इस काम को ताकत मिली इस बात से कि शक संवत् ईस्वी सन् की तरह सौर गणना पर आधारित है। राष्ट्रीय कैलेंडर बनाते समय केवल इस बात पर जोर था कि वही संवत् स्वीकार्य हो, जो ग्रेगोरियन कैलेंडर के साथ कदमताल कर सके।

क्या यह दुःख का विषय नहीं, कि सब लोग जिस तिथिपत्र के अनुसार सारे तीज-त्यौहार मनाते हैं, महाकुम्भ जैसा विराट पर्व मनाते हैं, मुहूर्त निकालते हैं, लोक-कला और लोक-संस्कृति से जुड़ते हैं, वह महान् विक्रम संवत् स्वतंत्र भारत में राष्ट्रीय कैलेंडर का हिस्सा नहीं है। सब जानते हैं कि विक्रम संवत् सूर्य की गति पर नहीं,चंद्रमा की कलाओं पर निर्भर है। कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष के एक-एक दिन के कलात्मक सौन्दर्य के जादू से हम सब वाकिफ हैं। शक संवत् भले ही राष्ट्रीय पंचांग हो, लेकिन हम पर उसका कोई खास असर नहीं। स्वतंत्र भारत का राष्ट्रीय कैलेंडर एक ओर से ईस्वी सन् को पकड़े हुए है, दूसरी ओर शक संवत् को।

शक और हूणों ने आक्रमण कर हमारे देश को जो हानि पहुँचाई, उसका हिसाब होने से पहले ही हमें दूसरे विदेशी आक्रान्ताओं का सामना करना पड़ा। अंग्रेजों ने हम पर राज किया, वे चले भी गये, लेकिन अंग्रेजी शिक्षा को ही सब कुछ मान लेने की मानसिकता ने हमसे अमूल्य संस्कार छीन लिये। उसने हमारा संवत् ही नहीं छीना, वह सब छीन लिया, जिस पर हम गर्व कर सकते थे। अंग्रेजों ने भारत पर राज करने के लिये जान-बूझकर शक संवत् को पकड़कर रखा। भारत स्वतंत्र हुआ, तब सत्ताधारियों ने भी उसे छोड़ने का जोखिम नहीं उठाया।

हमारे स्कूलों में इतिहास पढ़ाते समय आज भी ईसापूर्व ( बी.सी.) और ईसापश्चात् (ए.डी.) का उल्लेख किया जाता है, जबकि विक्रमादित्य ही ईसा से 57 वर्ष पहले हुए। हमें कालगणना के अपने मानकों का प्रयोग करते रहने में क्या कठिनाई थी, यह समझ से परे है। विक्रम संवत् के आरम्भ को ईसा पूर्व 57 कहने की अपेक्षा विक्रम संवत् 01 कहने में भला क्या अड़चन हो सकती है? हमारे होनहार बच्चे पूरे विश्व की सूचनाओं से परिचित हैं, किन्तु भारतीय संस्कृति की बुनावट करने वाले विक्रम संवत् से उन्हें अनभिज्ञ रखने का पाप किसके माथे? हिन्दू संस्कृति की दुहाई देने वालों के परिजनों से और बच्चों से पूछ कर तो देखिए, कि अभी कौन सा संवत् चल रहा है? भगवान् करे, आप निराश हो कर जमीन में न धँस जाएँ।

सम्राट् विक्रमादित्य से ले कर राजा भोज के काल तक की लगभग दस सदियों में सनातन धर्म की शिक्षाओं के चलते हम जिस ऊँचाई पर थे, वह भारतीय इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठों में दर्ज है। जब-जब शिक्षा में गिरावट आई, समाज का भी पतन हुआ। हमारे शिक्षक नई पीढ़ी को मिट्टी की गंध से दूर रखेंगे, तो वह संस्कारों से वंचित रहेगी और अपनी विरासत से भी। मैकाले की शिक्षा पद्धति को दोष देकर अपना बचाव करने वाली सरकारें तो आती-जाती रहेंगी, लेकिन हमें वे रास्ते खुले रखने होंगे, जो प्राचीन आचार्यों ने बनाए।

आक्रान्ताओं के अधीन रहने का दुर्भाग्य झेलते हुए हम यहाँ तक आ गये, किन्तु जो आलोक-स्तम्भ हमारे पूर्वज हिन्दू नरेशों ने स्थापित किये थे, वे आज भी हमें आलोकित करते रहते हैं। विजय को समय की रेत के साथ फिसलने से बचाये रखने का ऐसा कोई और उदाहरण हमें कहीं नहीं मिलता। आश्चर्य यह कि विक्रम संवत् ने हमें हिन्दू पंचांग ही नहीं दिया, अपितु वर्ष भर चलते रहने वाले तीज-त्यौहारों की सौगात भी दी। यह सौगात नहीं होती, तो हमारी लोक-चेतना न जाने कब टूट कर बिखर जाती।

विक्रम संवत् अपने शुरुआती दौर में कृत संवत् था, कालान्तर में उज्जयिनी के मालव नरेशों की लोकप्रियता के चलते वह मालव संवत् के नाम से जाना गया। राजा भोज के समय के आसपास ही विक्रमादित्य के विरुद को अनंतकाल तक जीवन्त बनाये रखने के लिये लोक में विक्रम संवत् प्रचलित हुआ। महान् हिन्दू सम्राट् विक्रमादित्य ने अपनी सभा के विद्वानों की सहायता ले कर जिस संवत् को मालव-संवत् या कृत संवत् नाम दे कर कालगणना का वटवृक्ष तैयार किया, उसे उनकी लम्बी वंश परम्परा ने सींचा। उसकी छाया में हल जोतते हुए किसान, श्रमिक, व्यापारी, श्रेष्ठी समाज, विप्र समुदाय, योद्धा, चिकित्सक और विद्या के क्षेत्र में अपनी फसल उगाने वाले महारथियों ने नये-नये कीर्तिमान रचे। उन्हीं की बदौलत हमें भारतीय इतिहास का वह स्वर्णयुग मिला, जिस पर आज भी हमें नाज है।

हमारे आचार-विचार विक्रम संवत् के अनुशासन से बँधे हुए रहे हैं। विक्रम संवत् की जीवन-शक्ति और इसकी चमक सबसे निराली है। इस संवत् के मास, पक्ष और तिथियों का आधा-अधूरा ज्ञान होने के बावजूद नयी और पुरानी पीढ़ी के लोग विक्रम संवत् के साथ दिल से जुड़े हुए हैं, क्योंकि हमारे धार्मिक रीति-रिवाज, जन्म-विवाह-मृत्यु से सम्बंधित सामाजिक व्यवहार, दशहरा, दिवाली, होली, रक्षाबंधन सहित सारे पर्व और त्यौहार जिस तिथिपत्र के अनुसार मनाये जाते हैं, वह विक्रम संवत् पर ही निर्भर है।

विद्वानों के मतानुसार विक्रम संवत् ही आधुनिक है। इससे पहले के सप्तर्षि संवत्, युधिष्ठिर संवत्, वीर निर्वाण संवत्, बुद्धनिर्वाण संवत् प्रचलित हैं, किन्तु विक्रम संवत् की जीवन-शक्ति और इसकी चमक के आगे ये सब फीके होते चले गये। विक्रम संवत् ने हमारे सामाजिक जीवन को उत्सव बनाये रखने के लिये त्यौहारों का सृजन किया, सांस्कृतिक इतिहास की रचना की। इस संवत् ने संवत्सर और कालचक्र के विज्ञान को जीवन के उल्लास से जोड़ कर उस उत्सव-धर्म की नींव रखी, जो हमारे संघर्ष भरे दिनों में भी जीवन का उत्साह बनाये रखने के लिये वरदान सिद्ध हुई है।

हम भारत के लोग दु:ख के पहाड़ के नीचे दबे हों, तब भी हँस लेते हैं, नाच लेते हैं, गा लेते हैं। इस बात के सैकड़ों उदाहरण हैं हमारे पास। अभाव और असुविधाओं में रह कर जीवन-यापन करने वाले ही हमारे यहाँ खुशमिजाज देखे गये हैं। ये ही वे लोग हैं जो हाट-मेले में दिखाई देते हैं, पंचक्रोषी की जात्रा में दिखाई देते हैं, तीर्थ में डुबकियाँ लगाते हुए दिखाई देते हैं, भजन-कीर्तन में झूमते हुए दिखाई देते हैं ,और अपनी थोड़ी सी जमा पूँजी दूसरों की भलाई के लिये दोनों हाथों से लुटाते हुए दिखाई देते हैं। ये वे लोग हैं, जो ज्यादा आधुनिक नहीं हुए, किन्तु उस संस्कृति से जुड़े हुए हैं, जो विक्रम संवत् ने हमें दी।

डाॅ.मुरलीधर चाँदनीवाला,रतलाम 

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