गणगौर महापर्व: भोळई निमाड़ में खेती-किसानी करते देवी-देवता
डॉ सुमन चौरे, भोपाल
गणगौर राजस्थान, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के निमाड़[1],[2] मालवा, बुंदेलखण्ड[3] और ब्रज क्षेत्रों का एक त्यौहार है जो चैत्र महीने की शुक्ल पक्ष की तृतीया (तीज) को आता है। इस दिन कुँवारी लड़कियाँ एवं विवाहित महिलाएँ शिवजी (इसर जी) और पार्वती जी (गौरी) की पूजा करती हैं। पूजा करते हुए दूब से पानी के छींटे देते हुए “गोर गोर गोमती” गीत गाती हैं। इस दिन पूजन के समय रेणुका की गौर बनाकर उस पर महावर, सिन्दूर और चूड़ी चढ़ाने का विशेष प्रावधान है।निमाड़ में इस अवसर पर गीत प्रचलित है जो माता को समर्पित होते है —
खोळS भरी पाती लाई म्हारी मायS
अम्बा का वन्दS
थारा दरशणS की बलिहारी म्हारी माँयS
अम्बा काS वन्दS सीS
भावार्थ: हे देवी माता, मैं आमराई से आम के पत्ते अपने आँचल में भरकर तेरे लिए लाई हूँ। हे माता तू मुझे अपनी कृपा के दर्शन दे। देवी अराधना के ऐसे ही अनेकों लोकगीतों की स्वरलहरियाँ निमाड़ के गाँव-गाँव, गली-गली से नौं दिनों तक सुनाई देती है। भोळई (भोले) निमाड़ के भोले लोगों की देवी रनुबाई अपने पीयर निमाड़ आती है और खेतों-बाग बगीचों में रमण करती है।
निमाड़ का देवी अराधना का गणगौर महालोकउत्सव चैत कृष्ण पक्ष की दसमी से चैत शुक्ल तृतीया तक मनाया जाता है। शास्त्रोक्त पद्धति से मंत्रोच्चार कर देवी या शक्ति का आवाहन किया जाता है, जबकि लोक आस्था के बीच पूजा के विभिन्न चरणों के लिए विविध लोकगीत गाकर यह गणगौर पर्व मनाया जाता है। इस अवसर पर रनुबाई-धणियर राजा, गौरबाई-ईश्वरराजा, लक्ष्मीबाई-विष्णुराजा, सइतबाई-बिरमा राजा, रोहेणबाई-चन्द्रमा राजा के नाम लेकर गीत गाये जाते हैं। निमाड़ी में माँ को बाई कहते हैं इसलिए देवियों के नाम के साथ बाई आता है।
कुरकई (बाँस की छोटी टोकनी) में मिट्टी भरकर उसमें गेहूँ बोकर देवी का आवाहन किया जाता है। देवी रूप जवारों को नित्य स्नान करवा कर आरती जाती है। लोकगीतों में देवी-देवताओं का किसान रुप दिखाई देता है। एक सामान्य किसान की तरह ही गणगौर के देवी-देवता अपनी फसल की देखरेख और चिन्ता करते हैं।
भोळाS धणियर जी घरS वाया S जागS
रनुबाई नS छीछS लियाS
राणी छीछ नS जाण्या होS
जवारा पेळाS पड़्याS
भावार्थ: भोला धणियर राजा ने गेहूँ बोये हैं, जिसकी रनुबाई ने सिंचाई की है। रानी रनुबाई को चिन्ता हो गई है, कि सिंचाई करने का बाद भी गेहूँ के जवारे पीले क्यों पड़ गये हैं।
यह पर्व किसान की दिनचर्या इन लोकगीतो में रहती है। एक गीत में है, कि खड़ी फसल को जंगली पशु नुकसान पहुँचा रहे हैं, लोग कहते हैं कि उन पशुओं को मार दो किन्तु धणियर राजा ऐसा करना अनुचित समझते हैं.
गीत-
उच्चोS मैड़ो S रेS व्हाँ रे हिरण चारा जवन्चरS
बाणS साधोS रे जीवS नही रे विणसियाँ
भावार्थ: ऊँची पहाड़ी जमीन का खेत है, वहाँ हिरण और जंगली जानवर धणियरजी की फसल को नुकसान पहुँचा रहे हैं। लोग कहत हैं बाण साधकर उन पशुओं को मार भगाओ। धणियर राजा कहते हैं, खेत भले ही उजाड़ दें, किन्तु हम जीव हिंसा नहीं करेंगे।
बीज बोने से लेकर फसल पककर घर आ जाने तक किसान को चिन्ता रहती है। एक सामान्य किसान की तरह ही धणियर राजा भी खेत की रखवाली करते हैं।
गीत के अंश-
वाड़S वाया वाड़ुलाS म्हाराS भवरा रेS
वाड़ीS मंS जायगाS कूणS
जासे ईसवर पातळाS म्हारा भवराS रे
गौर बाई अन्नS नीS खायS
भावार्थ: धणियर राजा ने गन्ने का बाड़ लगाया है। गन्ने की फसल की ऱखवाली बडे ध्यान से करना पड़ती है। जितना भय पशुओं से उतनी ही रक्षा मनुष्यों से भी करनी पड़ती है। धणियर राजा खेत की रखवाली करते हुए खेत पर रामभर जागते हैं तो रनुबाई को भी चिन्ता के कारण नींद नहीं आती है ना ही वे चिन्ता के कारण भोजन करती हैं।
देवी अपने पीयर जाने के लिए किसान भाई की प्रतीक्षा भी करती हैं। एक गीत का अंश-
सोळवS सिंगार करी रनुबाई बठीS
धणियर जीS हँसी पूछS वातS जासो
कूणS घरS जासोS मेजवानS
दूरS को किरसाण्यो वीरो अरजS करS हो
उनS घरS जासाS मेजवानS
उनS घर अम्बाS आमली होS
भावार्थ: रनुबाई सोलह श्रृंगार कर बैठी थीं। धणियर राजा ने पूछा, “किसके घर मेहमान बन कर जा रही हो? ” रनुबाई कहती हैं, दूर गाँव के मेरे किरसाण भाई का आग्रह है, हम उन्हीं के घर मेहमान बनकर चलेंगे। उनके घर आम-इमली के बाग हैं। आगे वो बोलती हैं, कुआ बावड़ी है, गेहूँ के खेत लहलहा रहे हैं। उन्हीं के घर जायँगे।
देवी अपने किसान भाई का कई बार उल्लेख करती हैं। एक बार देवी घने बागों में झूला झूल रही थीं, सी समय एक तपस्विनी भिक्षा माँगने आती हैं। रनुदेवी उन्हें सूपा भरकर मोती देने लगती है तो तपस्विनी कहती हैं कि हम तो जप तप करते हैं हमें हीरे मोती से क्या काम, हमें भिक्षा में अन्न दो।
उसी अवसर के एक गीत का अंश-
खेतS नी वायो खळोS नी वायोS
कायS की भिकछाS देवांS जीS
आवसे रे चईतS को महिणोS
जासों हमारा पीयरS जी
लावसाँ रे गवूँड़ा की बाळदS
तवS जाई भिकक्षाS देवांS जी
भावार्थ: हे तपस्वनी, हमने न खेत बोये, न खलिहान बोये। जब चैत्र का महिना आयेगा तब हम अपने पीयर जाय़ँगे तब मेरा किसान भाई मुझे गेहूँ की भेंट देगा तब मैं तुम्हें भिक्षा दे सकूँगी।
रनुबाई को खीर-हलवा का प्रसाद नहीं लगाया जाता है। बल्कि सामान्य किसानों के घर में आसानी से उपलब्ध सामग्री का भोग लगाया जाता है। निमाड़ की मुख्य फसलें जुवार और मूँगफली रही हैं। जुवार की धानी और मूँगफली का भोग लगाया जाता है। जिसे ‘मेवा’ कहते हैं। यहाँ तक कि देवी के श्रंगार के आभूषण भी दूर्वा, अकाव के फूल, जुवार की धानी, मूँगफली और कैरी के बनाये जाते हैं।
जुवार की धानी और मूँगफली की वर्षा भी देवी पर की जाती है। जिसे ‘मेवो लुटावणु’ कहते हैं। लोग इनको तरह जमीन पर से उठाकर माथे पर लगाकर प्रसाद की तरह खाते हैं।
नौवें दिन देवी की विदाई होती है और देवी अपने पीयर से ससुराल के लिए लौट जाती है। देवी रूप जवारों को गले मिलकर देवी को भावपूर्ण विदाई दी जाती है। इसके बाद जवारों का विसर्जन किया जाता है। विसर्जन करके एक गीत हुए लौटते हैं-
रनुबाईS सासरS संचरयाS होS
धंधा लगी गया लोगS हो सहेलीS
चलो सखी देखणS चालोS
धणियरS राजाS तो मोटS घेरS होS
रनुबाई पाणीS हलाओS ओ सहेलीS
चलो सखी देखणS चालाँS
भावार्थ: रनुबाई ससुराल चली गई। गाँव के लोग अपने काम धंधे से लग गये। सखियाँ आपस में कहती हैं, चलो सखी देखकर आते हैं। दूसरी सखी कहती है कि धणियर राजा अपने खेतों में मोट से पानी खींच रहे है और रनुबाई फसल को पानी पिला रही हैं।
लोगों का जीवन जिस प्रकार होता है, जिस तरह के कामकाज या व्यवसाय वे करते हैं, उसी परिवश के तादात्म्य में वे अपने देवी-देवताओं को देखते हैं। यही लोक का भोलापन है, यही लोकाचार है, ईश्वर में अगाध आस्था है और यही भक्तों के साथ ईश्वर का एक्य है।
लोक संस्कृति मर्मज्ञ डॉ सुमन चौरे, भोपाल
बादल राग: डॉ. सुमन चौरे, लोक संस्कृति विद् एवं लोक साहित्यकार