सरकारी नाटकीयता एक ललित कला है

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प्रजातांत्रिक सरकारें अपनी विफलताओं को भी इस खूबसूरती से पेश करती है जिसमें उन्हें जनता के एक बड़े सीधे-साधे वर्ग की प्रशंसा मिल जाती है। सरकारों को हमेशा जनता की पीड़ा समझते रहने और उसके लिए अथक परिश्रम करने का काम और नाटक दोनों करना पड़ता है।
मध्य प्रदेश में पिछले कुछ दिनों से कुख्यात अपराधियों के घर गिराये जा रहे हैं।निश्चित रूप से उनके ये घर अवैध निर्माण है। समाचार पत्रों में लिखा है कि राज्य शासन द्वारा चलाए गए विशेष अभियान में कुख्यात अपराधियों के मकान गिराये जा रहे हैं। यह कार्य प्रशंसनीय है परन्तु राज्य शासन का इसके लिए विशेष अभियान चलाया जाना वास्तव में प्रशासनिक व्यवस्था की दयनीय स्थिति दर्शाता है। यह कार्य क्षेत्राधिकार के पटवारी का है कि वह अवैध निर्माणों की सूचना तत्काल दे और सुनिश्चित करे कि वरिष्ठ अधिकारियों और पुलिस की सहायता से उन्हें गिरा दिया जाए। पटवारी का कार्य राज्य सरकारें कर रही हैं। आश्चर्य यह भी है कि बीच में पदस्थ ढेरों पटवारियों और अधिकारियों को ये अवैध निर्माण क्यों नहीं दिखे जो अब राज्य शासन को दृष्टिगोचर हो रहे है।किसी भी पूर्व पटवारी या अधिकारी के विरुद्ध कोई कार्रवाई नहीं होती है।
बरसात में सड़कों पर गड्ढे हो जाना एक बेहद साधारण सी बात है। तमाम जनता के लोग इसे अपनी नियति मानकर बुरा भी नहीं मानते हैं और गड्ढों में चलने की असुविधा सहते हुए और यदा कदा अपनी जान दे कर भी वे विरोध नहीं करते हैं। ये तो मीडिया के चंद सिरफिरे है जो इन गड्ढों की तस्वीरों को छापकर शासन को असमंजस की स्थिति में डाल देते हैं।मीडिया यह कहता है कि लोगों में ग़ुस्सा है।लोगों का ग़ुस्सा शांत करने के लिए सभी सरकारों के मुख्यमंत्रियों को ग़ुस्सा आ जाता है।मुख्यमंत्री का ग़ुस्सा देखकर जनता और मीडिया का ग़ुस्सा शांत हो जाता है। बरसात के बाद लंबे समय तक सड़क सुधार होता है और सड़क से जुड़ा अमला और ठेकेदार फिर अगली बरसात की प्रतीक्षा करते हैं। आज तक किसी ने यह नहीं पूछा कि मानकों के हिसाब से सड़कें क्यों नहीं बनायी जाती है। अगर मानक ग़लत है तो इन मानकों का उन्नयन क्यों नहीं किया जाता है।फ़िलहाल हम संतुष्ट हैं कि मुख्यमंत्री को ग़ुस्सा तो आया।
पंजाब में नई सरकार का गठन और उत्तर प्रदेश में मंत्रिमंडल का विस्तार हुआ है।दोनों ही मंत्रिमंडलों के बारे में विस्तार से बताया गया कि किस जाति के कितने लोग मंत्री बनाये गये है। जिस होशियारी से जातियों के प्रतिशत और समर्थन को देखते हुए मंत्रिमंडल में इन जातियों के मंत्रियों की संख्या तय की जाती है वह किसी महान गणितज्ञ को भी मात कर सकता है।राज्य सरकारें अपने काम के भरोसे जनता के सामने जाने में आश्वस्त नहीं हैं और उन्हें जातिगत प्रबंधन का सहारा लेना पड़ता है। कुछ लोग शायद अपनी जाति का मंत्री देख कर वोट दे देते होंगे।
सरकारों की नाटकीयता केवल प्रजातांत्रिक व्यवस्था तक ही सीमित नहीं है, बल्कि तानाशाही भी उनकी नक़ल करने में पीछे नहीं है। सरकारी नाटकीयता एक ललित कला है।