सरकारी नौकरी (Government Job!) में छुट्टियों की अनंत कथा!
साल का अंत आ गया है और दफ़्तरों में छुट्टी का दौर चालू हो गया है । नौकरी और छुट्टी दोनों का चोली दामन का सम्बन्ध है , मेरा बेटा स्वस्तिद जो किसी बहुराष्ट्रीय कम्पनी में सोफ्टवेयर बनाता है , वर्षांत के साथ ही अपनी बची छुट्टियों का जबरन ख़ात्मा करने में जुट जाता है |
डिप्टी कलेक्टर की नौकरी लगने के बाद प्रशासन अकादमी में ट्रेनिंग के लिए आने के साथ ही हम लोगों ने केलेंडर पर दिखाई गयी छुट्टियों पर गोल निशान लगा अपने अपने घरों में जाने का जुगाड़ लगाना शुरू कर दिया था | सर्वे की ट्रेनिंग हो या प्रदेश भ्रमण का मौका , अपने अपने गृह नगर को उस यात्रा से जोड़ने में सब तैयारी कर लेते थे , पर जब जिलों में गए तब पता चला छुट्टी मिलना कितना मुश्किल होता है , और सच तो ये है कि सामने काम का बोझ देख छुट्टी मांगने की खुद भी हिम्मत नहीं होती थी |
मेरी स्वयम् की शादी पर भी मुझे उसी दिन पहुँचने का मौका मिला , जिस दिन घर में मंडप की रस्मे होनी थीं | तब मैं राजनांदगांव जिले के डोंगरगढ़ सबडिवीजन में एस.डी.एम. था । उन दिनों परिवार कल्याण कार्यक्रम में सरकारी महकमे की बड़ी भागीदारी हुआ करती थी | फरवरी का माह था , और मेगा केम्पों का दौर चल रहा था । लगातार मिशन मोड पर काम चलने और अपने संकोची स्वभाव के कारण छुट्टी की पूर्वस्वीकृति होते हुए भी मैं कलेक्टर से पूछ ही नहीं पा रहा था कि छुट्टी के लिए कब निकलूं ?
मंडप को एक ही दिन रह गया था और उसके दो दिन बाद शादी थी | उस दिन कलेक्टर श्री हर्षमंदर दौरे पर डोंगरगढ़ आये , केम्प की व्यवस्था देखने के बाद मुझसे और बी.एम.ओ. श्रीवास्तव जी से बोले आप लोगों के यहाँ परिवार नियोजन का काम अच्छा चल रहा है । डॉक्टर श्रीवास्तव जो बड़े हाज़िरजवाब थे कहने लगे , जी सर इतना अच्छा कि ये एस.डी.एम. साहब तो परिवार बनाने ही नहीं जा रहे हैं । कलेक्टर ने कहा क्या मतलब ? तब डॉक्टर ने पूरी बात बताई , हर्षमंदर साहब हँसने लगे और मुझसे बोले तुरंत आज ही रवाना हो जाओ |
छुट्टी के मामले में सब के अपने अनुभव हैं , कुछ ऐसे अफसर होते हैं , जिन्हें छुट्टी शब्द सुन कर ही बुखार आ जाता है और कुछ ऐसे भी हैं जो बड़े उदार भाव से छुट्टी देते थे | श्री आर. सी. सिन्हा छुट्टी देने में बड़े उदार थे । मैं सागर से उज्जैन स्थानांतरित हो कर आया था और परिवार सागर में ही था। मैं मकान मिलने के इंतिजार में दिन बिता रहा था , जो कमिश्नर दिया करते थे ।
गुरूवार के दिन कलेक्टर पूछते सागर नहीं जा रहे ? मैं कहता जी शुक्रवार की रात निकल जाऊँगा और सोमवार को आ जाऊँगा , सिन्हा साहब कहते अरे चाहो तो आज निकल जाओ , और मंगल को आओ तब भी चलेगा , यानि छुट्टी बिना चिंता |
इसी श्रेणी में श्री एन. के. त्रिपाठी साहब भी थे । त्रिपाठी साहब ग्वालियर में हमारे परिवहन आयुक्त थे , मैं देखता समीक्षा बैठक के दौरान भी कई आर.टी.ओ. छुट्टी मांगते तो वे बिना हिचक दे देते , बस पूछते आपके साथ कोई आया है ? वो सज्जन कहते , जी हाँ आर. टी.आई. आया है , तो कहते बस उससे कहो मीटिंग में बैठे और बारी आये तो जानकारी दे दे । कई बार तो मैं कहता भी कि सर ये जान बूझ कर भाग रहा है इसकी परफार्मेंस ठीक नहीं है , तो हँस के कहते क्या पता सही में तबियत ख़राब हो और ना भी हो तो उसके मीटिंग में रहने से कौन सी परफार्मेंस सुधर जाएगी |
लेकिन कभी कभी छुट्टी के बहाने बनाने में फँस भी जाते हैं । ऐसा ही मेरे एक वरिष्ठ साथी के साथ भी हुआ , जब वे बालाघाट में एस.डी.एम. हुआ करते थे । एक दिन राजस्व अधिकारी बैठक में इन्होंने खुद न जा के तहसीलदार को भेज दिया । बैठक में इनके स्थान पर कलेक्टर विनोद चौधरी ने जो अपनी कठिन तबियत के लिए प्रसिद्ध थे , तहसीलदार को देख पूछा कि एस.डी.एम. साहब कहाँ हैं ?
तहसीलदार ने कहा साहब का बताया जवाब सुनाया कि तबियत ठीक नहीं है , कलेक्टर कुछ नहीं बोले , लंच टाइम तक मीटिंग ख़त्म हो गई | मीटिंग के बाद कलेक्टर ने स्टेनो से कहा कि गाड़ी लगवाइये दौरे पर जायेंगे | अनुभवी स्टेनो जो एस. डी. एम. का स्नेही था , तुरंत समझ गया कि हो न हो ये एस.डी.एम. साहब का हाल जाँचने जा रहे हैं ।
कलेक्टर के गाड़ी में बैठेते ही उसने एस.डी.एम. साहब को फोन कर बता दिया कि कलेक्टर साहब हो न हो आपकी तरफ ही आ रहे हैं । खबर मिलते ही एस.डी.एम. साहब ने तुरंत ब्लाक मेडिकल आफ़िसर को बंगले पर बुला भेजा और दवा-गोली रखवाई । थोड़ी देर बाद कलेक्टर की गाड़ी आ कर उनके घर के सामने रुकी , और कलेक्टर साहब ने पाया कि बाकायदा खुद बी.एम.ओ. तबियत ठीक करने में मय दवाई गोली के जुटा है तो कुछ न बोले और गेट वेल सून कह के निकल गये ।