हिजाब: तो फिर अदालत का भी ड्रेस कोड नहीं होना चाहिये

657

हिजाब: तो फिर अदालत का भी ड्रेस कोड नहीं होना चाहिये

न्यायपालिका के पूरे सम्मान के साथ एक बात कहना है, जो हिजाब को लेकर हाल ही में आये एक फैसले के संदर्भ में है। कर्नाटक के सरकारी विद्य‌ालय में हिजाब पहन कर आने को प्रतिबंधित किये जाने को लेकर उच्चतम न्ययालय में दो न्यायाधीश ने अलग राय व्यक्त की। एक ने कहा,संस्थान को यह अधिकार है कि वह अपनी वेशभूषा तय करे। दूसरे माननीय ने कहा कि हिजाब पहनना न पहनना, ये पसंद का मामला है। लड़कियों की शिक्षा जरूरी है। इस पर अंतिम फैसला तो अब तीन न्यायाधीशों की पीठ करेगी, लेकिन एक बहुत स्वाभाविक सवाल दूसरे माननीय न्यायाधीश के तर्क के संदर्भ में ही है। वह यह कि यदि किसी संस्थान में पोशाक क्या पहनना, न पहनना पसंद का मामला है तो इसे सबसे पहले न्यायालयों पर लागू किया जाना चाहिये। फिर न्यायाधीश और वकील चाहें जिंस पहनें, टी शर्ट पहनें, पैर में चप्पल पहनें या सैंडल, क्या फर्क पड़ता है? क्या माननीय न्यायालय को यह स्वीकार्य होगा?

     मुझे याद आती है किसी न्यायाधीश की वह टिप्पणी, जब कोई अधिकारी जिंस पहनकर आ गये थे। तब उन्हें न्यायालयीन भाषा में समझाइश दी थी कि वे यहां क्या पहनकर आयें। देश के किसी भी शिक्षण संस्थान में कोई भी तयशुदा परिधान होता है। हमेशा से ही इसका पालन किया जाता रहा है। फिर इधर कुछ समय से ही इस तरह के मसले क्यों उठाये जा रहे हैं? यदि स्वतंत्र भारत में अब तक की बात करें तो सामान्यत: प्रत्येक संस्थान में यह अनिवार्य रहता है। तब ऐसा क्या हुआ कि खास तौर से 2019 के बाद ही किसी को अपनी धार्मिक मान्यतायें याद आने लगीं? जबकि यह मसला तो धर्म के दायरों में भी ‌वर्णित नहीं बताया जाता। यदि ऐसा होता तो कट्‌टर इस्लामिक देश इरान में हिजाब को लेकर वहां की महिलायें-युवतियां जान तक देने को तैयार रहने तक के स्तर पर जाकर आंदोलन नहीं करती। बहरहाल।

hijab controversy 1644319608

     विद्यालय में हिजाब पहन कर जाने की जिद सबसे पहले कर्नाटक में सामने आई। इसे लेकर पहले तो तीव्र आंदोलन चले, फिर सरकार के सख्त रवैये के चलते इसे अदालत में ले जाया गया। कर्नाटक उच्च न्यायालय ने भी इसमें हस्तक्षेप से इनकार करते हुए कहा कि विद्यालय में गणवेश की अनिवार्यता तय करना यह संस्थान का सर्वाधिकार है। फिर इसका कोई धार्मिक तकादा भी नहीं है। इसलिये मसले को सर्वोच्च न्यायालय ले जाया गया। वहां दो न्यायाधीशों की पीठ में एक ने याचिक के खिलाफ तो दूसरे ने पक्ष में फैसला तो दिया ही,कर्नाटक उच्च न्यायालय के फैसले को गलत भी ठहराया। चूंकि अनिर्णय की स्थिति बनी तो मामले को तीन न्यायाधीशों की पीठ के हवाले कर दिया गया। अब वहां जो भी फैसला हो, तब तक हिजाब प्रतिबंधित रहेगा ही।

     इस बीच देश में हर स्तर पर हिजाब के औचित्य और दो न्यायाधीशों के अलग-अलग मतों पर व्यापक बहस छिड़ी हुई है। इसके समर्थन और विरोध के अपने तबके हैं और तर्क भी। जबकि इस तरह के किसी भी मसले को तर्क-वितर्क से परे रखना चाहिये। मेरी पीढ़ी के तमाम महानुभाव जो शासकीय विद्यालयों में पढ़े हैं, वे सफेद शर्ट, खाकी नेकर पहन चुके हैं। शहरी क्षेत्रों में भी जहां निजी विद्यालय थे, उनकी पोशाक भी निर्धारित थी ही। तब किसी ने हिजाब की पैरवी नहीं की,कोई आंदेलन नहीं हुआ, किसी अदालती कार्रवाई का सामना नहीं करना पड़ा। तब भी धामिर्क मान्यतायें तो वे ही थीं । तो यकायक अब ऐसे मसलों की दुहाई क्यों दी जा रही है, जो वैमनस्यता बढ़ाती है,विवाद निर्मित करती है,माहौल कटुतापूर्ण बनाती है। यहां मूल मसला शिक्षा का है, जो हिजाब के साथ और हिजाब के बिना भी ज्यादा महत्वपूर्ण है। इसलिये यदि आपको चिंता सही मायनों में मुस्लिम बालिकाओं की शिक्षा की है तो हिजाब को आड़े नहीं आने देना चाहिये। वैसे भी ये कैसा दुराग्रह है कि आप तो दूसरों का चेहरा देख सकते हैं, लेकिन आपका चेहरा कोई नहीं देख सकता?

     वैसे ही हिजाब,नकाब,मुंह पर दुपट्‌टा या हेलमेट जैसे साधनों का आम तौर पर दुरुपयोग भी काफी हो रहा है कि अनेक युवतियां मुंह पर दुपट्‌टा लपेटे किसी युवक की बाइक पर उससे चिपक कर बैठ कर जाती है।उसके घरवाले ही उसे पहचान नहीं सकते। हेलमेट पहनकर गुंडे-मवाली गले से सोने की चेन छीनकर भाग रहे हैं। हेलमेट वाले चाकू मारकर,एटीएम तोड़कर भाग रहे हैं। इस पर भी लगाम जरूरी है। बाइक पर युवतियों के दुपट्‌टा पहनने पर प्रतिबंध होना चाहिये। प्रदूषण केवल उन्हें ही चपेट में नहीं ले रहा। मुंह को ढंकने वाले हेलमेट प्रतिबंधित किये जाने चाहिये। इसके बदले केवल सिर को सुरक्षित रखने वाले हेलमेट की अनिवार्यता होना चाहिये। जिस तरह से कारखानों और निर्माण स्थल पर हेलमेट रहते हैं। यह पहचान छुपाने का दुराग्रह साफ नियत की तरफ इशारा नहीं करता। महिला को परदे में रखना और खुद पूरे समय दूसरों को घूरते रहना, ये दोहरे मापदंड समाज में कब तक स्वीकार किये जाते रहेंगे? बात केवल शिक्षण संस्थानों तक भी सीमित नहीं है। अनेक व्यावसायिक संस्थान,कारखाने भी अपने कर्मचारियों के लिये परिधान निर्धारित करते हैं। होटलों में शेफ सफेद कपड़े पहनते हैं। कारखानों के श्रमिक से लेकर तो अधिकारी तक वहां की मर्यादा का पालन करते हुए ही कपड़े पहनते हैं। शो रूम पर सेल्समैन, सेल्स गर्ल तय कपड़े पहनते हैं। डॉक्टरों के परिधान तय हैं। धर्म स्थानों की भी बात करें तो मंदिर के पुजारी धोती,सोला पहनते हैं। चर्च में फादर सफेद कपड़े पहनते हैं। मस्जिद,गुरुद्वारे में सिर ढंककर ही जाना रहता है। न्यायालय में सफेद शर्ट,काला कोट,बो,टाई पहनना अनिवार्य है। अनेक ऐसे क्लब,होटल हैं, जहां आप कुर्ता-पायजामा,नेकर पहन कर नहीं जा सकते। तब ये दुराग्रह क्यों कि एक वर्ग विशेष की बालिकायें हिजाब पहन कर ही विद्यालय जायेंगी?

     इस तरह का सिलसिला यदि चल पड़ा तो उसका कोई अंत ही नहीं होगा। कल से कोई वर्ग यह मांग करेगा कि वे चड्‌डी-बनियान पहनकर विद्यालय आयेंगे तो कोई शार्ट्स की मांग करेगा। कोई धोती की जिद पर अड़ जाएगा तो कोई हो सकता है यह कहे कि वह तो प्राकृतिक अवस्था में विद्यालय में आयेगा। तब इसका क्या समाधान होगा? एक दिगंबर जैन मुनि कह चुके हैं कि यदि हिजाब पहनने की छूट दी तो वे भी किसी शिक्षण संस्थान में अपनी स्वाभाविक अवस्था में दाखिला लेना चाहेंगे। क्या यह व्यावहारिक और संभव होगा? किसी भी सभ्य समाज में धार्मिक मान्यतायें और पूजा पद्धति निजी तौर पर कुछ भी रहें, लेकिन सार्वजनिक जीवन में संपूर्ण समाज में स्वीकार्य व्यवहार ही अपनाना होता है।

     मुझे लगता है यह मामला धार्मिक कम और चंद लोगों की बेजा अड़ी बाजी का ज्यादा है। फिर इसमें आ घुसी राजनीति। खासकर उन लोगों की राजनीतिक ख्वाहिशें परवान चढ़ने लगीं, जिनकी दुकानें 2014 व 2019 के बाद मंदी चल रही हैं। ये लोग वर्ग विशेष को उकसा कर देश के माहौल को ही दूषित नहीं कर रहे, बल्कि वैमनस्य की ऐसी विष बेल को पोषित-पल्लवित कर रहे हैं, जो किसी दिन अमर बेल बन गई तो समूचे पेड़ को जड़ से काटे बिना उसका अस्तित्व खत्म नहीं होने वाला। मुस्लिम समाज को ही इस बारे में फैसला लेना चाहिये कि उसे महज हिजाब के मुद्दे पर शिक्षा जैसे जरूरी तत्व से अपनी महिला शक्ति को वंचित रखना है और चंद मुल्ला-मौलवियों व तुष्टिकरण की राजनीति कर वोट बैंक को मजबूती देने का षड़यंत्र करने वालों की बंदूकें अपने कंधों पर ढोते रहना है या एक सभ्य,सुसंस्कृत,उन्नत समाज और राष्ट्र के निर्माण में भागीदार बनना है।

Author profile
thumb 31991 200 200 0 0 crop
रमण रावल

 

संपादक - वीकेंड पोस्ट

स्थानीय संपादक - पीपुल्स समाचार,इंदौर                               

संपादक - चौथासंसार, इंदौर

प्रधान संपादक - भास्कर टीवी(बीटीवी), इंदौर

शहर संपादक - नईदुनिया, इंदौर

समाचार संपादक - दैनिक भास्कर, इंदौर

कार्यकारी संपादक  - चौथा संसार, इंदौर

उप संपादक - नवभारत, इंदौर

साहित्य संपादक - चौथासंसार, इंदौर                                                             

समाचार संपादक - प्रभातकिरण, इंदौर      

                                                 

1979 से 1981 तक साप्ताहिक अखबार युग प्रभात,स्पूतनिक और दैनिक अखबार इंदौर समाचार में उप संपादक और नगर प्रतिनिधि के दायित्व का निर्वाह किया ।

शिक्षा - वाणिज्य स्नातक (1976), विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन

उल्लेखनीय-

० 1990 में  दैनिक नवभारत के लिये इंदौर के 50 से अधिक उद्योगपतियों , कारोबारियों से साक्षात्कार लेकर उनके उत्थान की दास्तान का प्रकाशन । इंदौर के इतिहास में पहली बार कॉर्पोरेट प्रोफाइल दिया गया।

० अनेक विख्यात हस्तियों का साक्षात्कार-बाबा आमटे,अटल बिहारी वाजपेयी,चंद्रशेखर,चौधरी चरणसिंह,संत लोंगोवाल,हरिवंश राय बच्चन,गुलाम अली,श्रीराम लागू,सदाशिवराव अमरापुरकर,सुनील दत्त,जगदगुरु शंकाराचार्य,दिग्विजयसिंह,कैलाश जोशी,वीरेंद्र कुमार सखलेचा,सुब्रमण्यम स्वामी, लोकमान्य टिळक के प्रपोत्र दीपक टिळक।

० 1984 के आम चुनाव का कवरेज करने उ.प्र. का दौरा,जहां अमेठी,रायबरेली,इलाहाबाद के राजनीतिक समीकरण का जायजा लिया।

० अमिताभ बच्चन से साक्षात्कार, 1985।

० 2011 से नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने की संभावना वाले अनेक लेखों का विभिन्न अखबारों में प्रकाशन, जिसके संकलन की किताब मोदी युग का विमोचन जुलाई 2014 में किया गया। प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी को भी किताब भेंट की गयी। 2019 में केंद्र में भाजपा की सरकार बनने के एक माह के भीतर किताब युग-युग मोदी का प्रकाशन 23 जून 2019 को।

सम्मान- मध्यप्रदेश शासन के जनसंपर्क विभाग द्वारा स्थापित राहुल बारपुते आंचलिक पत्रकारिता सम्मान-2016 से सम्मानित।

विशेष-  भारत सरकार के विदेश मंत्रालय द्वारा 18 से 20 अगस्त तक मॉरीशस में आयोजित 11वें विश्व हिंदी सम्मेलन में सरकारी प्रतिनिधिमंडल में बतौर सदस्य शरीक।

मनोनयन- म.प्र. शासन के जनसंपर्क विभाग की राज्य स्तरीय पत्रकार अधिमान्यता समिति के दो बार सदस्य मनोनीत।

किताबें-इंदौर के सितारे(2014),इंदौर के सितारे भाग-2(2015),इंदौर के सितारे भाग 3(2018), मोदी युग(2014), अंगदान(2016) , युग-युग मोदी(2019) सहित 8 किताबें प्रकाशित ।

भाषा-हिंदी,मराठी,गुजराती,सामान्य अंग्रेजी।

रुचि-मानवीय,सामाजिक,राजनीतिक मुद्दों पर लेखन,साक्षात्कार ।

संप्रति- 2014 से बतौर स्वतंत्र पत्रकार भास्कर, नईदुनिया,प्रभातकिरण,अग्निबाण, चौथा संसार,दबंग दुनिया,पीपुल्स समाचार,आचरण , लोकमत समाचार , राज एक्सप्रेस, वेबदुनिया , मीडियावाला डॉट इन  आदि में लेखन।