In Memory of My Father: वे सही अर्थों में अजातशत्रु थे

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In Memory of My Father:मेरी स्मृतियों में मेरे पिता/ क़िस्त -2

In Memory of My Father: वे सही अर्थों में अजातशत्रु थे

 बिहार की पावन धरा पर सीतामढ़ी जिले के अमर विभूति- स्वर्गीय अरुण कुमार श्रीवास्तव

डॉ. श्वेता सिन्हा

                            “पिता धर्मः पिता स्वर्गः पिता हि परमं तपः।

                              पितरि प्रीतिमापन्ने प्रीयन्ते सर्व देवताः।।”

जग-जननी मां सीता की यह पुण्य भूमि ‘सीतामढ़ी’ धार्मिक, ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक संगम का धरोहर रही है। इस पावन- पवित्र भूमि से अनेक सपूतों का अवतरण हुआ है। जिन्होंने अपने चिंतन, विचार, लेखन और कर्मों से इस धरा को और भी विशिष्ट बनाया है। और इससे हर तरीके से समृद्ध करने में अपना योगदान दिया है।
इन्हीं चुनिंदा विभूतियों में मेरे पिता, स्वर्गीय अरुण कुमार श्रीवास्तव का नाम भी यहां के जनमानस के स्मृति पटल पर अविस्मरणीय रूप से अंकित है। स्वर्गीय अरुण कुमार श्रीवास्तव बहुमुखी प्रतिभा की मूर्ति थे। मुख पर दैवप्रदत्त तेज, आंखों में प्रतिभा की चमक, दिव्यता से उद्घभासित ललाट, कुशाग्रता, मधुर एवं प्रभावशाली बोली, प्रसन्न वदन और सम्मोहक व्यक्तित्व लोगों को बरबस अपनी ओर आकर्षित कर लेता था।

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उनका जन्म सीतामढ़ी जिले के हुमायूंपुर गांव स्थित उनके ननिहाल में हुआ था। घर- खानदान में सबसे बड़ा पुत्र होने के कारण से बचपन में सभी का काफी स्नेह एवं देखभाल मिला। उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा सीतामढ़ी लक्ष्मी हाई स्कूल से पूरी की। बचपन से ही वे मेधावी छात्र थे जिनसे शिक्षकगण प्रभावित रहते थे। महाविद्यालयीन शिक्षा के लिए वह आर.डी.एस. कॉलेज, मुजफ्फरपुर गए जहां शिक्षा के साथ-साथ राजनीति में भी उनकी रूचि उत्पन्न हुई। दरभंगा के कुंवर सिंह कॉलेज से स्नातक होने के बाद पढ़ाई छोड़कर 1974 में जेपी आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लेकर कई बार जेल यात्राएं भी कीं।
वह अपने छात्र जीवन में राम मनोहर लोहिया जी के सामाजिक दर्शन से भी प्रभावित थे। 1982 में अपनी अंतरात्मा की प्रेरणा से स्थानीय सप्ताहिक पत्रिका ‘किसानवाणी’ से उनका पत्रकारिता के क्षेत्र में पदार्पण हुआ फिर। फिर 1986 में हिंदी दैनिक ‘आज’ समाचार पत्र से अपने अल्प जीवनपर्यंत इसी माध्यम के द्वारा जन -जागरण जागरण एवं जन सेवा करते रहे। वह युग हिंदी पत्रकारिता में प्रगतिवाद और प्रयोगवाद का समय था। उसी समय स्वर्गीय अरुण कुमार श्रीवास्तव जी ने इस क्षेत्र में अपनी एक विशिष्ट पहचान बनाई।

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1989 में स्वर्गीय हरिकिशोर सिंह के विदेश मंत्री बनने पर उनके निजी सचिव नियुक्त हुए थे। अपनी उस जिम्मेदारी का भी उन्होंने निष्ठापूर्वक निर्वहन किया। स्वर्गीय अरुण कुमार श्रीवास्तव निर्भीक स्वभाव के जुझारू पत्रकार थे। बाहर से काफी शांत और गंभीर दिखते थे किंतु अंदर से वे सामाजिक विसंगतियों, कुरीतियों अन्यायों आदि के प्रति आक्रोश और उद्वेग से भरे होते थे।
1992 में सीतामढ़ी जिले में हुए सांप्रदायिक दंगे के दौरान स्वर्गीय अरुण कुमार श्रीवास्तव जी की रिपोर्टिंग में उनके सांप्रदायिक सद्भावना के तेवर को स्पष्ट रूप से पढ़ा जा सकता है। उस मजहबी दंगे के दौरान उन्होंने अपने भीसा गांव को दंगाइयों से बचाकर सांप्रदायिक सद्भाव की एक अनूठी मिसाल कायम की। उनके इस सराहनीय कार्य के लिए राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग, नई दिल्ली ने उन्हें आभार पत्र भिजवाया था। स्वर्गीय अरुण कुमार श्रीवास्तव सहृदय एवं उदार व्यक्ति थे। सादगी, सरलता एवं सौम्यता कि वह प्रतिमूर्ति थे। वे सही अर्थों में अजातशत्रु थे। उनके चरित्र में हिमालय जैसी ऊंचाई, समुद्र की गहराई एवं गंगा सी शीतलता थी। उनका अल्प जीवन त्याग, दया, क्षमा, उदारता का एक अनुकरणीय आदर्श है।
यह तो सर्वविदित है कि मृत्यु जीवन की अनिवार्यता होते हुए भी सदा दुखदाई होती है। पर यह उस समय और भी दुखद हो जाती है जब कोई भला इंसान असमय यह संसार छोड़ जाए। विशेष तौर पर लोकप्रियता की ओर अग्रसर कोई व्यक्ति प्रिय जनों के बीच से अचानक ओझल हो जाए तो ऐसा अवसर सामाजिक शोक का ही अवसर होता है। हालांकि मृत्युधर्मा मनुष्य के जीवन में इस बात का बहुत महत्व नहीं है कि वह कितनी लंबी अवधि तक इस धरा पर रहा अपितु तात्पर्य यह है कि जीवन कला के चरितार्थता में वह कितना सफल और सक्षम हुआ है वस्तुतः महत्व इसका है। इस दृष्टि से जब मैं अपने पिता स्वर्गीय अरुण कुमार श्रीवास्तव जी की बात करती हूं तो ऐसा लगता है कि वे अपनी जीवटता के फलस्वरुप एक गरिमापूर्ण जीवन जीने में सर्वतोभावेन में सफल हुए।
स्वर्गीय अरुण कुमार श्रीवास्तव का 40 वर्ष की अल्पायु में चले जाना एक व्यक्ति विशेष की मृत्यु नहीं, एक अभिनव सोच, एक उभरती दृष्टि का अवसान है। जिस निष्ठा व जीवटता के साथ वह पत्रकारिता कर रहे थे वह उनके लेखन का उठान था। यदि उष्मा भरी दोपहरी में सूर्यास्त हो जाए तो यह केवल विस्मयजनक ही नहीं दुर्भाग्यपूर्ण भी है।
आज मैंने अपने पिता, स्वर्गीय अरुण कुमार श्रीवास्तव से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण संस्मरणों को अपने कुछ पंक्तियों से समेटने की मैंने कोशिश की है। जिससे उनके जीवन, जनसेवा, कर्म, त्याग, सद्भावना, सृजनात्मकता, सहकार, निर्भीकता आदि अनेक आयामों का प्रकाश पुंज आलोकित हुआ है। यह प्रेरक प्रसंग हमारे मन में आशा और विश्वास की किरणें प्रस्फुटित करते हैं तथा हममें अरुणोदय की दिशा पर अग्रसर होने की दिव्य प्रेरणा का संचार करते हैं।
अपने स्वर्गीय पिता के आदर्श व्यक्तित्व से मुझे काफी कुछ सीखना रह गया। यद्यपि वह पार्थिव रूप से आज हमारे बीच नहीं है पर उनका अनुकरणीय व्यक्तित्व और सहृदयता मुझसे कभी भी अलग नहीं हुई। नियंता की नियति ने उस दिव्य विभूति को 9 अगस्त 1993 को हमसे छीन लिया।
अन्य महापुरुषों की तरह उन्होंने जो जनमानस के पटल पर अपनी अमिट छाप छोड़ी है यह हमेशा सन्मार्ग आलोकित करती रहेगी। इन्हीं शब्दों के साथ मैं उनकी पुत्री डॉ. श्वेता सिन्हा, अमेरिका से उन्हें अपनी अश्रुपूरित श्रद्धांजलि अर्पित करती हूं.

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किसी ने सच ही तो कहा है –
यूं तो दुनिया के समंदर में कमी होती,
लाख मोती हो मगर उस चमक का मोती नहीं।

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डॉ. श्वेता सिन्हा
आयोवा, अमेरिका।

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