जिनके मन में बसे थे स्वामी विवेकानंद और भगिनी निवेदिता…
‘कभी बुद्धिमत्ता से अपनी जीते थे शत देश महान
विजित बहादुर उन देशों के करते थे तेरा जय-गान
कभी धीरता गरिमा और शौर्य भी धर्म निज खो बैठी हो
फिर भी धर्म अटल जननी जय हो, तेरी सदैव जय हो।
‘जय भारत’ कविता की इन पंक्तियों के पीछे से किसी राष्ट्रभक्त कवि का चेहरा झांकता है। वह राष्ट्रभक्त तमिल कवि थे सुब्रह्मण्यम भारती। दक्षिण के सुप्रसिद्ध कवि सुब्रह्मण्य भारती की प्रारंभिक कविताओं में तमिल राष्ट्रवाद का उल्लेख मिलता है, किन्तु स्वामी विवेकानंद के प्रभाव में आने के बाद उनकी जीवन के उत्तरार्ध में लिखी कवितायें भारतीय हिन्दू राष्ट्रवाद का गुणगान करती हैं। उन्होंने अपनी आत्मकथा में स्वीकार किया कि यह परिवर्तन उनकी गुरु भगिनी निवेदिता और स्वामीजी के कारण उत्पन्न हुआ। देशभक्ति से ओतप्रोत स्वामीजी के भाषणों द्वारा पैदा की गई विचारों की चिंगारी का असर वीर सावरकर तथा लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक जैसे राष्ट्रभक्तों पर भी दिखाई देता है। वैसे तो आज का दिन स्वामी विवेकानंद और शिकागो विश्व धर्म सम्मेलन के लिए याद किया जाता है। पर हम बात कर रहे हैं उनसे प्रभावित तमिल कवि सुब्रह्मण्य भारती की। क्योंकि आज ही के दिन उनकी पुण्यतिथि है।
सुब्रह्मण्य भारती ( जन्म: 11 दिसम्बर, 1882 – मृत्यु: 11 सितम्बर,1921) भारत के महान् कवियों में से एक थे, जिन्होंने तमिल भाषा में काव्य रचनाएँ कीं। इन्हें ‘महाकवि भरतियार’ के नाम से भी जाना जाता है। भारती एक जुझारू शिक्षक, देशप्रेमी और महान् कवि थे। आपकी देश प्रेम की कविताएँ इतनी श्रेष्ठ हैं कि आपको भारती उपनाम से ही पुकारा जाने लगा। तमिल भाषा के महाकवि सुब्रमण्यम भारती ऐसे साहित्यकार थे, जो सक्रिय रूप से ‘स्वतंत्रता आंदोलन’ में शामिल रहे, जबकि उनकी रचनाओं से प्रेरित होकर दक्षिण भारत में आम लोग आज़ादी की लड़ाई में कूद पड़े। ये ऐसे महान् कवियों में से एक थे, जिनकी पकड़ हिंदी, बंगाली, संस्कृत, अंग्रेज़ी आदि कई भाषाओं पर थी, पर तमिल उनके लिए सबसे प्रिय और मीठी भाषा थी। उनका ‘गद्य’ और ‘पद्य’ दोनों विधाओं पर समान अधिकार था। सुब्रह्मण्य भारती का प्रिय गान बंकिम चन्द्र का वंदे मातरम् था। यह गान उनका जीवन प्राण बन गया था। उन्होंने इस गीत का उसी लय में तमिल में पद्यानुवाद किया, जो आगे चलकर तमिलनाडु के घर-घर में गूँज उठा।
सुब्रह्मण्य भारती का जन्म 11 दिसंबर, 1882 को एक तमिल गाँव एट्टियपुरम, तमिलनाडु में हुआ था। शुरू से ही वह विलक्षण प्रतिभा के धनी थे और कम समय में ही उन्होंने संगीत का भी अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया था। 11 वर्ष की आयु में उन्हें कवियों के एक सम्मेलन में आमंत्रित किया गया, जहाँ उनकी प्रतिभा को देखते हुए भारती को ज्ञान की देवी सरस्वती का ख़िताब दिया गया था। चार साल के काशीवास में भारती ने संस्कृत, हिन्दी और अंग्रेज़ी भाषा का अध्ययन किया। अंग्रेज़ी भाषा के कवि ‘शेली’ से वे विशेष प्रभावित थे। उन्होंने एट्टयपुरम् में ‘षेलियन गिल्ड’ नामक संस्था भी बनाई तथा ‘षेलीदासन्’ उपनाम से अनेक रचनाएँ लिखीं। काशी में ही उन्हें राष्ट्रीय चेतना की शिक्षा मिली, जो आगे चलकर उनके काव्य का मुख्य स्वर बन गयी। काशी में उनका सम्पर्क भारतेन्दु हरिश्चन्द्र द्वारा निर्मित ‘हरिश्चन्द्र मण्डल’ से रहा। काशी में उन्होंने कुछ समय एक विद्यालय में अध्यापन किया। वहाँ उनका सम्पर्क श्रीमती डॉ. एनी बेसेंट से हुआ, पर वे उनके विचारों से पूर्णतः सहमत नहीं थे। एक बार उन्होंने अपने आवास ‘शैव मठ’ में महापण्डित सीताराम शास्त्री की अध्यक्षता में सरस्वती पूजा का आयोजन किया। भारती ने अपने भाषण में नारी शिक्षा, समाज सुधार, विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार और स्वभाषा की उन्नति पर ज़ोर दिया। अध्यक्ष महोदय ने इसका प्रतिवाद किया। फलतः बहस होने लगी और अन्ततः सभा विसर्जित करनी पड़ी।
बाद में भारती ने ज्ञान के महत्व को समझा और पत्रकारिता के क्षेत्र में उअनकी अत्यधिक रुचि रही। इस समय वह कई समाचार पत्रों के प्रकाशन और संपादन से जुड़ गये। इन समाचार पत्रों में तमिल दैनिक ‘स्वदेश मित्रम’, तमिल साप्ताहिक ‘इंडिया’ और अंगेज़ी साप्ताहिक ‘बाला भारतम’ शामिल है। उन्होंने अपने समाचार पत्रों में व्यंग्यात्मक राजनीतिक कार्टून का प्रकाशन शुरू किया था।
पत्रों से न सिर्फ वह लोगों को अपेक्षित ज्ञान दिलाने में सफल रहे बल्कि उनकी रचनाओं का भी प्रकाशन हुआ। उसी समय उनकी रचनाधर्मिता चरम पर थी। उनकी रचनाओं में एक ओर जहाँ गूढ़ धार्मिक बातें होती थी वहीं रूस और फ्रांस की क्रांति तक की जानकारी होती थी। वह समाज के वंचित वर्ग और निर्धन लोगों की बेहतरी के लिए प्रयासरत रहते थे। भारती 1907 की ऐतिहासिक सूरत कांग्रेस में शामिल हुए थे जिसने नरम दल और गरम दल के बीच की तस्वीर स्पष्ट कर दी थी। भारती ने तिलक अरविन्द तथा अन्य नेताओं के गरम दल का समर्थन किया था। इसके बाद वह पूरी तरह से लेखन और राजनीतिक गतिविधियों में शामिल हो गए। वर्ष 1908 में इंडिया के मालिक को मद्रास में गिरफ्तार कर लिया गया और उनकी गिरफ़्तारी भी की जानी थी। गिरफ़्तारी से बचने के लिए वह पांडिचेरी चले गए जो उन दिनों फ्रांसीसी शासन में था। भारती पांडिचेरी में भी कई समाचार पत्रों के प्रकाशन संपादन से जुड़े रहे और अंग्रेजों के ख़िलाफ़ लोगों में देशभक्ति की अलख जगाते रहे। पांडिचेरी में प्रवास के दिनों में वह गरम दल के कई प्रमुख नेताओं के संपर्क में रहे। वहाँ उन्होंने कर्मयोगी तथा आर्या के संपादन में अरविन्द की सहायता भी की थी। उन्होंने संगीत के क्षेत्र में भी काफ़ी काम किया। उनके कुछ गीत अभी भी कर्नाटकी संगीत कन्सर्ट में बेहद लोकप्रिय हैं। अंग्रेज शासन के विरुद्ध स्वराज्य सभा के आयोजन के लिए भारती को जेल जाना पड़ा। कोलकाता जाकर उन्होंने बम बनाना, पिस्तौल चलाना और गुरिल्ला युद्ध का भी प्रषिक्षण लिया। वे गरम दल के नेता लोकमान्य तिलक के सम्पर्क में भी रहे। भारती ने नानासाहब पेषवा को मद्रास में छिपाकर रखा। शासन की नजर से बचने के लिए वे पाण्डिचेरी आ गये और वहाँ से स्वराज्य साधना करते रहे। निर्धन छात्रों को वे अपनी आय से सहयोग करते थे। 1917 में वे गान्धी जी के सम्पर्क में आये और 1920 के असहयोग आन्दोलन में भी सहभागी हुए।
सुब्रह्मण्य भारती ने माता पिता को खोने के दु:ख को अपने काव्य में ढाल लिया। इससे उनकी ख्याति चारों ओर फैल गयी। स्थानीय सामन्त के दरबार में उनका सम्मान हुआ और उन्हें ‘भारती’ की उपाधि दी गयी। भारती का प्रिय गान बंकिम चन्द्र का ‘वन्दे मातरम्’ था।1905 में काशी में हुए ‘कांग्रेस अधिवेशन’ में सुप्रसिद्ध गायिका सरला देवी ने यह गीत गाया। भारती भी उस अधिवेशन में थे। बस तभी से यह गान उनका जीवन प्राण बन गया। सुब्रह्मण्य भारती ने जहाँ गद्य और पद्य की लगभग 400 रचनाओं का सृजन किया, वहाँ उन्होंने ‘स्वदेश मित्रम’, ‘चक्रवर्तिनी’, ‘इण्डिया’, ‘सूर्योदयम’, ‘कर्मयोगी’ आदि तमिल पत्रों तथा ‘बाल भारत’ नामक अंग्रेज़ी साप्ताहिक के सम्पादन में भी सहयोग किया। भारती 1918 में ब्रिटिश भारत में लौटे और उन्हें तुरंत गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें कुछ दिनों तक जेल में रखा गया। बाद के दिनों में उनका स्वास्थ्य खराब रहने लगा और 11 सितंबर,1921 को मद्रास में उनका निधन हो गया। भारती 40 साल से भी कम समय तक जीवित रहे और इस अल्पावधि में भी उन्होंने विभिन्न क्षेत्रों में काफ़ी काम किया। उनकी रचनाओं की लोकप्रियता ने उन्हें अमर बना दिया।
और अंत में उनकी तमिल मूल से हिंदी में अनुवादित यह कविता – ‘निर्भय’
निर्भय, निर्भय, निर्भय !
चाहे पूरी दुनिया हमारे विरुद्ध हो जाए,
निर्भय, निर्भय, निर्भय !
चाहे हमें अपशब्द कहे कोई, चाहे हमें ठुकराए,
निर्भय, निर्भय, निर्भय !
चाहे हम से छीन ली जाएँ जीवन की सुविधाएँ
निर्भय, निर्भय, निर्भय !
चाहे हमें संगी-साथी ही विष देने लग जाएँ
निर्भय, निर्भय, निर्भय !
चाहे सर पर आसमान ही क्यों न फटने लग
जाए
निर्भय, निर्भय, निर्भय !