पुलिस कमिश्नर प्रणाली से परहेज की कोई वजह ही नहीं है …आइए मिलकर स्वागत करें …

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कौशल किशोर चतुर्वेदी की विशेष रिपोर्ट
बहुत देर से दर पे आंखें लगी थीं, हुजूर आते-आते बहुत देर कर दी…। तालियां बजाईए, पलक-पांवड़े बिछाइए, बैंड बाजे बजवाइए, मिठाईयां बंटवाइए और आरती सजाकर रखिए…जैसे ही सरकार “पुलिस कमिश्नर प्रणाली” को स्वच्छता की राजधानी इंदौर और प्रदेश की राजधानी भोपाल में लागू कर अफसरों की ताजपोशी कर दे, वैसे ही इस नई व्यवस्था का आरती उतारकर दिल खोलकर, कलेजे से लगाकर स्वागत किया जाना चाहिए।
आखिर परंपरागत ढर्रे में जी-जीकर ऐसा क्या हासिल हो रहा है, जिससे परंपरा को गले लगाकर ही अपराधियों के खौफ से मरा जाए। हो सकता है कि नई प्रणाली लागू होने और कानून व्यवस्था पर खतरा बनने वाली हर सशंकित गतिविधि पर पुलिस का पूरा नियंत्रण होने से इन दो बड़े शहरों की फिजां बदल जाए। अपराधियों में पुलिस का खौफ इस तरह घर कर जाए कि शहरों की सीमा के बाहर निकलकर ही वह सांस लेने का मन बना सकें।
हालांकि न तो कोई जादूगर है और न ही किसी तरह का जादू कभी वास्तविक हो सकता है। जादू का तो दायरा ही आभासी दीवारों से घिरा रहता है। लेकिन फिर भी “पुलिस कमिश्नर प्रणाली” से परहेज की कोई वजह दूर-दूर तक नहीं दिखाई देती, क्योंकि तबादला सिर्फ अधिकारों का हो रहा है और पदनाम बदलकर अधिकार एक अखिल भारतीय सेवा के अधिकारियों की जगह दूसरी अखिल भारतीय सेवा के अधिकारियों के पाले में जा रहे हैं।
आम आदमी की किस्मत कल भी गिड़गिड़ाहट की भद्दी स्याही से लिखी गई थी, आज भी उसमें कोई फर्क नहीं नजर आया और कल भी किस्मत चमकने के कोई आसार नहीं हैं। और फिर दो बड़े शहरों को छोड़कर बाकी सभी में तो पुरानी परंपरा से ही राज चलना है, तो फिर इस प्रणाली को लेकर आखिर इतनी उकताहट की वजह ही क्या है? आओ नई शुरुआत करें, सिविल ड्रेस और खाकी के बीच शक्ति संतुलन की जगह खाकी को ही पूरा लंबरदार बनाकर देख लें। अपराधियों की सिफारिश करने के लिए तो पहले भी पुलिस का दरवाजा ही खटखटाना पड़ता था और अब भी खटखटाना पड़ेगा।
अंतर इतना आना है कि पहले कलेक्टर-एसपी, फिर बदलते दौर में कलेक्टर-एसएसपी और फिर बदले माहौल में कलेक्टर-डीआईजी इन दो बड़े जिलों में एक ही गाड़ी में सवार होकर शक्ति के बंटवारे का दिखावा शालीनता से करने की मजबूरी का पालन पूरे अनुशासन से करते थे। कलेक्टर की गाड़ी में बैठकर पुलिस का अफसर हर पल खुद को कोसता था कि काश चार नंबर ज्यादा आ जाते तो जिलों में इस नौटंकी से छुटकारा मिल जाता।
लेकिन शक्ति संतुलन का संदेश देने के लिए कलेक्टर की गाड़ी में बैठकर एसपी, एसएसपी या डीआईजी जनदर्शन की रस्म अदायगी करते ही थे। और कानून व्यवस्था में गड़बड़ होने पर पूरा ठीकरा फूटना पुलिस के माथे ही था। भले ही वह प्रशासनिक अफसरों की गलती होने की लाख दलीलें पेश करते रहें। सो अब उन्हें इस गुलामी से रिहाई मिलने वाली है। अब वह सारे अधिकार गले में टांगकर दोनों पंखों को पूरा फैलाकर कम से कम इन दो बड़े शहरों में तो कानून व्यवस्था के आकाश में दिल खोलकर उड़ने की हसरत पूरी कर ही सकेंगे।
और मजिस्ट्रियल पावर्स को भी अपनी कलम से ही एक्जीक्यूट करने का हक पाकर खाकी का पूरा दम भी दिखा सकेंगे। अपराधियों ने भी अपराध के नए-नए तरीके ढूढ़ लिए हैं, सो पुलिस भी कम से कम दो बड़े शहरों में अपराधियों पर लगाम कसने के नए-नए तरीके खोजकर सारे अधिकारों का खुलकर प्रयोग कर सरकार को जवाब देने में “यदि और लेकिन” जैसे शब्दों की गुलाम तो नहीं रहेगी।
लड़ाई तो “आईएएस बनाम आईपीएस” की है और प्रचारित ऐसे हो रही है, मानो घर में मुखिया के अधिकार मातहत को मिलने वाले हों और फिर जैसे पूरी व्यवस्था चरमराकर ढेर होने से कोई रोक नहीं सकता। मध्यप्रदेश में इस दशकों की जद्दोजहद का अंत होने पर सिर्फ इतना ही कहा जा सकता है कि एक कहावत “घूरे के भी दिन फिरते हैं”, की तर्ज पर “पुलिस कमिश्नर प्रणाली” के दिन फिरने को हैं और वह कागजों से निकलकर हकीकत बनने को है, जिससे दो बड़े शहरों में लंबे इंतजार के बाद यह धूम मचाने के सपने बुनने को आजाद हो जाएगी।
आईएएस अफसर ज्यादा से ज्यादा दबी जुबान में इतना जरूर फुसफुसाएंगे कि फलां-फलां सीएस दमदार थे और सीएम को समझाने और आईएएस लॉबी का दबाव बनाने में सफल रहे और फलां सीएस की नहीं चल पाई सीएम के सामने और आईपीएस लॉबी हावी हो गई। सो इससे क्या फर्क पड़ता है। जबसे “पुलिस कमिश्नर प्रणाली” की बात शुरू हुई थी, तब से ही यह तय था कि वर्तमान व्यवस्था कब तक बदलाव को रोक पाएगी। आखिर बकरे की अम्मा कब तक खैर मनाएगी। हालांकि अभी भी वह दिन आना बाकी है लेकिन लगने लगा है कि “पुलिस कमिश्नर प्रणाली” की वह सुबह आने को है, जब सूरज निकलेगा और कमल खिलेगा।
अगर व्यावहारिक पक्ष पर गौर करें तो अभी चाहे कलेक्टर और डीआईजी के बीच शक्ति संतुलन का दिखावा हो, लेकिन फैसले तो वही करने पड़ते थे, जो ऊपर वालों को मंजूर होते थे। अब कलेक्टर और उनके मातहत इस व्यवस्था से बाहर हो जाएंगे और दो शहरों की किस्मत का फैसला अब भी ऊपर वालों की मंजूरी से ही होंगे। ऐसे में साहब आम आदमी को न इस व्यवस्था से हमदर्दी है और न उस व्यवस्था से कोई पर्दा है।
हां यह भ्रम जरूर रह सकता है कि अभी खाकी और सिविल ड्रेस के बीच जो अदब की झीनी सी दीवार दिख रही थी, वह इन दो शहरों में ओझल हो जाएगी। फिर खाकी “जिसकी लाठी उसकी भैंस” की तरह व्यवहार करने लगेगी। लेकिन ऐसा भय केवल आभासी ही माना जाए क्योंकि जहां लाठी अभी चल रही थी, कल भी वही चलेगी…ऊपर वाले की नजर का असर बरकरार रहेगा। रंगमंच पर अभी कुछ ज्यादा किरदार नजर आ रहे थे…अब उनमें कटौती जरूर नजर आएगी।
पर एक बात कोई भी जरूर बता दे यदि बता सके तो कि क्या पुलिस कमिश्नर प्रणाली आने के बाद इन दो बड़े शहरों में सत्तापक्ष और विपक्ष के नेताजी को पुलिस बराबर तवज्जो देने लगेगी? क्या पुलिस गलत सिफारिशों के कचरे को डस्टबिन में डालने की हिम्मत जुटाने का हौसला पा लेगी? क्या अपराधियों को आकाओं का आशीर्वाद मिलना पूरी तरह से खत्म हो जाएगा? क्या पुलिस को कागजी पावर मिलने के साथ वह सभी संसाधन और सुविधाएं हासिल हो जाएंगीं, जिससे पुलिस सिर ऊंचा कर यह दावा कर सकेगी कि अब अपराधियों की कोई खैर नहीं।
और क्या आम आदमी के लिए इन दो शहरों में पुलिस खाकी के साथ संवेदनशीलता, विनम्रता, न्याय के साथ सत्यमेव जयते और देश भक्ति, जनसेवा के आदर्श वाक्य को चरितार्थ कर सकेगी? फिलहाल तो सत्तापक्ष का दावा है कि कानून व्यवस्था बेहतर है और दो शहरों में “पुलिस कमिश्नर प्रणाली” लागू होने के बाद कानून व्यवस्था और ज्यादा दुरुस्त हो जाएगी तो विपक्ष अभी भी सरकार को चिढ़ा रही है और उकसा रही है कि पहले की तरह इस बार भी “पुलिस कमिश्नर प्रणाली” घोषणा बनकर न रह जाए।