क्या माओवाद अब सचमुच अंतिम सांसें गिन रहा है?

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क्या माओवाद अब सचमुच अंतिम सांसें गिन रहा है?

अजय बोकिल

क्या देश में माओवाद (नक्सलवाद) अब अंतिम सांसें गिर रहा है? क्या देश के 12 राज्यों में लाल काॅरिडोर बनाने का आधी सदी पुराने ‘लाल’ सपने को संकल्प ने मिट्टी में मिला दिया है? क्या नक्सल प्रभावित जिलों में अब स्थायी शांति लौटने की आस बढ़ गई है या फिर यह एक अस्थायी शांति है, कुछ समय बाद माओवादी नए सिरे से अपने काम में लग जाएंगे? ये ऐसे सवाल हैं, जिनके जवाब आने वाले समय में मिलेंगे, क्योंकि हाल में एक शीर्ष माओवादी नेता बसवराजू के मारे जाने से माओवादियों को तगड़ा झटका जरूर लगा है, लेकिन उसके तीन नेता माडी हिडमा, भूपति और प्रभाकर अभी भी सक्रिय हैं। माओवादियों की संख्या अब घटकर भले आधी रह गई हो, लेकिन ‘देश में प्रतिक्रियावादी (लोकतांत्रिक) शासन प्रणाली को खत्म कर सशस्त्र क्रांति के जरिए ‘जन सरकार’ स्थापित करने का जुनून अभी खत्म नहीं हुआ है। हालांकि सुरक्षा बलों के लगातार दबाव और आम जनता में माओवादियों की घटती साख के चलते उनके हौसले ढीले पड़ गए हैं।

 

देश में मोदी सरकार और कुछ नक्सल प्रभावित राज्यों में भाजपा सरकारें आने के बाद माओवादियों के सामने दो ही विकल्प बचे हैं या तो वो सुरक्षा बलों से लड़ते हुए मारे जाएं या फिर आत्म समर्पण कर दें। सरकार की यह नीति ‘लाठी और गाजर’ वाली है। पिछले एक साल में सुरक्षा बलों के संयुक्त अभियान में जितनी संख्या में माओवादी या तो मारे गए हैं या फिर उन्होंने आत्म समर्पण किया है, उससे लगता है कि देश में राजनीतिक-सामाजिक बदलाव का माओवादियों का सपना अब अतीत की बात बन जाने वाला है क्योंकि पचास साल के सशस्त्र संघर्ष और सैंकड़ों मौतों के बाद भी इससे कुछ भी हासिल नहीं किया जा सका है। अब तो युवाओं में भी ऐसी कथित क्रांति को लेकर वो रूचि नहीं रह गई है, जो किसी जमाने में हुआ करती थी। ऐसे में नक्सली आंदोलन जो कभी देश के 12 राज्यों में फैला था, अब महज 6 जिलों तक सिमट गया है। जो आंदोलन कभी किसानों और आदिवासियों को उनके हक और शोषण से मुक्ति दिलाने के उद्देश्य से शुरू हुआ था, वह खुद रंगदारी, हत्याओं और अराजकता में तब्दील हो गया। माओवादी केवल एक लक्ष्य में आंशिक रूप से कामयाब रहे और वो है कि आधुनिक विकास की किरणें दूर दराज के इलाकों तक न पहुंचने देना। लेकिन इसके बदले में आम लोगों को क्या मिला? जो युवा कभी माओवाद के हिंसक रास्ते पर चल पड़े थे, उनके हिस्से में थोथे आत्म संतोष या हताशा के अलावा क्या आया? माओवादियों ने घने जंगलों, दूरदराज के इलाकों, दुर्गम पहाडि़यों आदि को अपने छिपने ठिकाना इसलिए बनाया था ताकि पुलिस और सुरक्षा बल वहां तक न पहुंच सकें। जंगलों में उन्होंने किसी हद तक अपना राज कायम भी कर लिया था। जब भी इस पर कोई आंच आती दिखती, वो इसका जवाब आतंक से देते। जिनमें सुरक्षा बलों पर घातक हमले हों या फिर मुखबिरी के आरोप में स्थानीय निवासियों की बेरहम हत्याएं हों। हालांकि जिस मूल कम्युनिस्ट विचारधारा से माओवाद का जन्म हुआ था, उसे मानने वाली और राजनीतिक मुख्‍य धारा में शामिल पार्टियों ने माओवादी हिंसा से दूरी बना ली थी, लेकिन माओवादी संघर्ष के प्रति उनके मन में साफ्ट काॅर्नर, अर्बन नक्सलियों द्वारा उनका मार्गदर्शन, आर्थिक और नैतिक सहयोग बरकरार था। यह बात अलग है कि जिस माओवाद का खयाली पुलाव ये पकाते रहे हैं, उसे असली माओवादी चीन ने भी पीछे छोड़ दिया है।

 

माओवाद दरसअल पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी गांव से जमीनदारों द्वारा किसानों के शोषण के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह के रूप में 70 के दशक में शुरू हुआ था। तब इसके पीछे चारू मुजुमदार, कनु सान्याल जैसे साम्यवादियो का राजनीतिक दर्शन भी था। इसे चीन का भी समर्थन था। मान गया कि पुरानी और सामंती व्यवस्था को लोकतांत्रिक तरीकों के बजाए रक्त क्रांति से ही बदला जा सकता था। तब के युवा, जिनका आजादी के बाद देश में बने हालात से मोहभंग हो रहा था, इस माओवादी विचार की तरफ तेजी से आकृष्ट हुए। यह समझे बगैर कि भारत और चीन की तासीर में बहुत अंतर है। माओवादियों ने जिस ‘जन संघर्ष’ का नारा दिया, वह हमेशा एक सीमित दायरे से आगे नहीं बढ़ पाया। कांग्रेस की सरकारों ने माओवदियों के प्रति नरम या मिला जुला रवैया अपनाया हुआ था, बावजूद इसके कि छत्तीसगढ़ की झीरम घाटी में माओवादियों ने हमला कर राज्य में कांग्रेस के शीर्ष नेताओं का सफाया कर दिया था। अलबत्ता आंध्र और तेलंगाना में जरूर कुछ सख्‍ती दिखाई। यह भी कोशिश हुई कि माओवादियों से बातचीत कर उन्हें मुख्य धारा में लौटाया जाए। लेकिन वह भी नाकाम रही।

 

इस मामले में मोदी सरकार और भाजपा का रवैया बहुत साफ है। उनका मानना है कि गोली का जवाब गाल सहलाना नहीं हो सकता। माओवाद को खत्म करने के लिए उसकी जड़ों पर चोट जरूरी है। इसलिए सुरक्षा बलों का नक्सल प्रभावित राज्यों में संयुक्त अभियान शुरू किया गया। उन्हें घने जंगलों में घुसने के लिए अत्याधुनिक उपकरण, ट्रेनिंग और हथियार दिए गए। उससे भी बढ़कर के खात्मे में उन पूर्व माओवादियों का भरपूर सहयोग लिया गया जो आत्म समर्पण कर चुके थे। उनकी अलग से फोर्स बनाकर माओवाद के खात्मे के काम पर लगाया गया। डिस्ट्रिक्ट रिजर्व गार्ड’ के रूप में उनकी भर्तियां पुलिस बल में की गईं। इनमें महिला पूर्व नक्सली भी शामिल हैं। यह रणनीति सबसे कारगर साबित हुई। आज जो बड़ी संख्या में माओवादी मारे जा रहे हैं, उनमें इन पूर्व माओवादियों का बड़ा योगदान है। इसके अलावा सरेंडर करने वाले नक्सलियों के पुनर्वास की प्रभावी और सकारात्मक नीति भी माओवाद की कमर तोड़ने में कारगर साबित हुई है। सालों जंगलों की खाक छानने वाले कई नक्सली अब मुख्‍य धारा में लौटकर सुकून के साथ जिंदगी जीना चाहते हैं। एक आत्म समर्पित माओवादी का यह बयान अहम है कि नई पीढ़ी की दिलचस्पी अब क्रांति से ज्यादा मोबाइल, बाइक और गर्लफ्रेंड में है।

 

दरअसल बीती 21 मई को छत्तीसगढ़ के बस्तर में सुरक्षाबलों ने ‘आपरेशन ब्लैक फारेस्ट’ के तहत 27 माओवादियों को घेरकर मार गिराया। इनमें माओवादियों के संगठन सीपीआई(माओवादी) का महासचिव और नक्सल आंदोलन की रीढ़ नंबाला केशवराव उर्फ बसवराजू भी शामिल था। बसवराजू एक इंजीनियर था और माअोवादी विचारधारा से प्रेरित होकर नक्सली बना था। उस पर सरकार ने 1 करोड़ रू. का इनाम रखा था और जो 150 जवानों की हत्या का आरोपी था। उसी ने और सीपीआई (माओवादी) की सशस्त्र शाखा पीपुल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी (पीएलजीए) को मजबूत करने का काम किया था। पीएलजीए का गठन 2000 में कई छोटे-छोटे नक्सलियों के गुटों के विलय के बाद हुआ था। बसवराजू के खात्मे को केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने ‘नक्सलवाद ख़त्म करने की लड़ाई में एक ऐतिहासिक उपलब्धि’ बताया। इसी अभियान में 54 माओवादियों को गिरफ्‍तार भी किया गया। इसके पहले दूरस्थ कुरेगुट्टा पहाड़ी मे माओवादियों के ठिकानों को घेरकर सुरक्षा बलों ने 31 माओवादियों को मौत के घाट उतारा था। उनसे बड़ी संख्या में हथियार भी बरामद‍ किए थे। पुलिस ने यह भी दावा किया कि इस वर्ष के पहले चार महीनों में 700 से अधिक माओवादियों ने आत्मसमर्पण किया है। इस बीच सुरक्षा बलों का दावा है कि माओवादियों का ‘रेड काॅरिडोर’ तो दूर, खुद माओवाद चार राज्यों के छह जिलों तक सीमित रह गया है। ये राज्य हैं, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, तेलंगाना और झारखंड। सरकार के मुताबिक़ देश भर में माओवाद प्रभावित ज़िलों की संख्या 126 से घट कर अप्रैल 2018 में 90 रह गई थी, जुलाई 2021 में ऐसे ज़िलों की संख्या 70 हो गई और अप्रैल 2024 के आंकड़ों के अनुसार माओवाद प्रभावित ज़िलों की संख्या महज 38 रह गई है।

 

तो क्या अब सचमुच माओवाद अंतिम सांसें गिन रहा है? इसका उत्तर ‘हां’ में देना अभी जल्दबाजी होगी। कुछ लोग सुरक्षा बलों की कार्रवाई की प्रामाणिकता पर भी सवाल उठा रहे हैं। सुरक्षाबलों को नुकसान भी झेलना पड़ा है। साथ ही माओवाद पर लगाम कसने का राजनीतिक श्रेय लेने की होड़ भी शुरू हो चुकी है। लेकिन क्या माओवादी अब थक चुके हैं? यह अभी गारंटी से नहीं कहा जा सकता। कुरैगुट्टा पहाड़ी पर नक्सलियों के घिरने के बाद माओवादियों ने छग सरकार के साथ शांति वार्ता का प्रस्ताव रखा था, जिसे सरकार ने यह कहकर ठुकरा दिया कि या तो नक्सली हथियार डालें या फिर मरने के लिए तैयार रहें। नक्सलियों की इस पहल को उनके बिखर रहे संगठन को फिर से जमाने के लिए जरूरी इंटरवल के रूप में भी देखा गया। इसका अर्थ यही ‍नहीं कि उनकी कमर पूरी तरह टूट गई है। कहीं न कहीं से उन्हें ऊर्जा अभी भी मिल रही है। जानकारों का कहना है कि सरकार द्वारा प्रतिबंधित माओवादी संगठन का भी एक सुव्यवस्थित ढांचा है, एक तय व्यवस्था है जिसमें एक के जाने से दूसरे के लिए जगह बनती है। यानी एक बसवराजू मरेगा तो दूसरा उसकी जगह ले लेगा। लिहाजा माओवाद को खत्म करना है तो किसानों, आदिवासियों और शोषित समूहों की उन समस्याअों का निदान भी करना पड़ेगा, जिनकी वजह से माअोवाद पनपा। जहां तक मप्र की बात है तो माओवाद राज्य के केवल छग और महाराष्ट्र से लगे कुछ जिलों तक सीमित है, लेकिन वहां भी सरकार की ‍नीति जीरो टाॅलरेंस वाली है। विकास की रोशनी जैसे जैसे आगे बढ़ रही है, नक्सलियों का असर घटता जा रहा है।