‘मेराइटल रेप’ मुद्दा कहीं शादी की परंपरा तोड़ने की साज़िश तो नहीं!

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हमारे देश में शादी को पवित्र बंधन माना गया है। खासकर हिन्दू धर्म की बात करें तो शादी को दो आत्माओं का मिलन कहा गया।

जिसमें न केवल दो प्राणी बल्कि दो परिवार एक-दूसरे के सुख दुःख के भागीदार बनते हैं। विवाह से समाज की सबसे छोटी इकाई परिवार का आरम्भ होता है।

लेकिन, विवाह जैसी संस्था भी अब सवालों के घेरे में आ गई। वैश्वीकरण के इस युग में शादी जैसे पवित्र बंधन में भी मिलावट का ज़हर घोला जाने लगा। इसे अब ‘मेराइटल रेप’ का नाम दिया गया है।

न्यायालय में इस पर बहस भी छिड़ी हुई है। दिल्ली हाईकोर्ट ‘मेराइटल रेप’ की चर्चाओं को लेकर चर्चा का अखाड़ा बन गया।

इस पर न केवल कोर्ट रूम के अंदर, बल्कि हर घर में चर्चा छिड़ी है। चर्चा हो भी क्यों नहीं, विषय ही ऐसा है। 

हमारे देश में यौन संबंधों पर कोई खुलकर चर्चा नहीं करता। लेकिन, आजकल ‘मेराइटल रेप’ का मुद्दा कोर्ट रूम तक घसीटा गया, ऐसे में अब इस पर बोलना जरूरी हो जाता है।
‘पति यदि पत्नी की इच्छा के विरुद्ध जाकर शारीरिक संबंध बनाता है, तो उसे बलात्कार माना जाएगा।’ यह कोर्ट की टिप्पणी है।
यहां सवाल यह उठता है कि यह कौन तय करेगा कि पति पत्नी के बीच संबंध इच्छा से हुआ या जबरदस्ती बनाया गया! क्या यह एक पक्ष के साथ न्याय तो दूसरे पक्ष के साथ अन्याय नहीं होगा।
सोचिए एक पति-पत्नी अपने रूम में रहते हुए कब क्या करते हैं और किसकी मर्ज़ी से करते हैं इसका निर्धारण कोई और कैसे कर सकता है! ऐसे में कहीं न कहीं ये प्रेम जैसे पवित्र बंधन पर प्रश्नचिन्ह नहीं तो क्या होगा!
यहां किस सिद्धांत को महत्व दिया जाएगा, यह भी सबसे बड़ा सवाल है। जरूरी तो नहीं कि जो क़ानून महिलाओं के पक्ष में बनें, उसका हमेशा सदुपयोग ही होता हो।
यदि कानून पीड़ित पक्ष को ही सर्वोपरि मानेगा, तो दूसरा पक्ष अपनी बेगुनाही कैसे साबित करेगा। सवाल यह भी उठता है कि क्या पति पत्नी के सम्बन्धों को अदालत में लाना निजता का हनन नहीं होगा!
वैसे हमारे देश में कानूनों की कोई कमी नहीं है। इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि समाज में महिलाओं के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार होता आया है।
पर, कानून के दुरुपयोग को भी नकारा नहीं जा सकता। बात महिलाओं को मिलने वाले अधिकारों की करें तो बलात्कार, घरेलू हिंसा या दहेज प्रताड़ना जैसे कानून में महिलाओं के पक्ष को अहमियत दी जाती रही है।
तो क्या यहां भी यही सिद्धांत लागू कर दिया जाएगा?
Meriatal Rape
2019 के एनसीआरबी के आंकड़ों की माने तो 74% बलात्कार के आरोप झूठे साबित हुए। वहीं घरेलू हिंसा और दहेज प्रताड़ना के 80% मामलों में आरोपी बरी हो जाते हैं। तो क्या यह सवाल नहीं उठता की महिलाएं इन कानूनों का गलत उपयोग करती है।
हमारे देश मे बात बराबरी की होती रही है, तो क्या पुरुषों के अधिकारों को महत्व नहीं दिया जाना चाहिए। यदि कोई महिला पुरुष की इच्छा के विरुद्ध संबंध बनाती है, तो क्या कानून उसे संरक्षण देगा!
वैसे, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि महिलाओं को संरक्षण के लिए बनाए गए कानूनों का उपयोग कहीं न कहीं पुरूषों के शोषण के लिए किया जाना आम बात हो गई है। दहेज़ जैसे मामलों में यह कई बार कोर्ट में साबित भी हुआ है।
हाल ही में दिल्ली हाईकोर्ट ने एक याचिका की सुनवाई के दौरान यह तर्क दिया कि महिला के विवाहित या अविवाहित होने से उसकी गरिमा प्रभावित नहीं हो सकती। महिला हर परिस्थिति में महिला ही रहती है।
फिर वह अविवाहित हो या विवाहित, उसके सम्मान की हर परिस्थिति में रक्षा की जानी चाहिए। किसी पुरुष द्वारा महिला की इच्छा के विरुद्ध उस पर खुद को लादे जाने से अविवाहित महिला की गरिमा तो भंग हो, लेकिन विवाहित महिला की गरिमा अप्रभावित रहे? यह कोर्ट की टिप्पणी भर नहीं है। बल्कि कोर्ट की यह टिप्पणी वर्तमान समाज को आईना दिखाने का काम कर रही है।
शादी जैसी संस्था को लेकर हमारा समाज किस दिशा में आगे बढ़ रहा है। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 21 जीवन जीने के अधिकार और दैहिक स्वतंत्रता का अधिकार प्रदान करता है, तो वही अनुच्छेद 14 समता की बात करता है।
आईपीसी के सेक्शन 375 में रेप को परिभाषित किया गया है, जिसमें वैवाहिक बलात्कार को लेकर अपवाद मौजूद है। इसमें पत्नी के साथ शारीरिक संबंध बनाने को बलात्कार नहीं माना गया। बस शर्त यही है कि पत्नी की उम्र 15 साल से कम नहीं हो।
पति-पत्नी का सम्बन्ध विश्वास की डोर से बंधा होता है। पति अपनी ही पत्नी का बलात्कार करें, क्या यह सम्भव है। यदि ऐसा होता है तो निश्चित ही सजा के प्रावधान की वकालत की जाना चाहिए।
Meriatal Rape1
रेप को लेकर अपवाद का बचाव करने से पहले आंकड़ों पर गौर करना जरूरी है। आंकड़ों की माने तो देश में 15 से 49 साल के बीच की हर तीन में से एक महिला पति की हिंसा का शिकार होती है। भले हमारे देश में ‘मेराइटल रेप’ को अपराध नहीं माना गया है।
लेकिन, आईपीसी के सेक्शन 498 (ए) व घरेलू हिंसा अधिनियम 2005 में यौन उत्पीड़न में सजा का प्रावधान किया गया। ऐसा पहली बार नहीं, जब कानून में वैवाहिक रिश्ते में पीड़ित पक्ष को संरक्षण की मांग उठी हो। समय-समय पर ‘मेराइटल रेप’ पर कानून बनाने की मांग भी की जाती रही है। पर क्या कानून बना देने भर से महिलाओं पर होने वाले अत्याचार कम हो जाएंगे! ‘मेराइटल रेप’ पर कानून बनाने से पहले भारतीय परिवेश पर गौर किया जाना भी जरूरी है।
हमारे देश में विशेषकर हिन्दू धर्म की बात करें, तो शादी को कोई एग्रीमेंट नहीं समझा जाता। इसलिए विदेशी संस्कृति से तुलना करना उचित नहीं है। परिवार हमारी संस्कृति में निहित है, अतः कोई भी कानून बनाने से पहले समाज का परिवेश और हमारी संस्कृति को ध्यान में भी रखा जाना चाहिए। वैसे भी बीते दिन एक फ़िल्म निर्माता ने शादी जैसी व्यवस्था पर सवाल खड़ा कर दिया। ऐसे में इन कानूनों या संरक्षण की आड़ में कहीं शादी जैसी परंपरा को ध्वस्त करके पश्चिमी संस्कृति को अंगीकार करने की साजिश तो नहीं। इस पर भी गौर किया जाना चाहिए।