पं.दीनदयाल उपाध्याय, अटलजी और अपने राजीवलोचन अग्निहोत्री का राष्ट्रधर्म

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पं.दीनदयाल उपाध्याय

डा. राजीवलोचन अग्निहोत्री को अब शायद जुजबी लोग ही जानते होंगे। संभव है भाजपा की सबसे बुजुर्ग पीढ़ी को वो याद हों। पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी की जयंती पर मैंने उन्हें उनके उत्तराधिकारी के तौरपर स्मरण किया तो श्रोता हैरत में आ गए। यह उत्तराधिकार पंडितजी के संपादकीय दायित्वों को लेकर था। अग्निहोत्री जी पंडित दीनदयाल के बाद राष्ट्रधर्म और प्रकारांतर में पान्चजन्य के संपादक बने थे। राष्ट्रधर्म में अटलबिहारी वाजपेयी उनके सहयोगी संपादक थे।

विन्ध्य की संघ/भाजपा राजनीति के पितामह केशव पान्डेय जी ने जब यह जानकारी दी कि उनका ननिहाल हमारे गाँव नेबूहाहर्दी में था व वे रिश्ते में चाचा (पान्डेय जी के) लगते हैं तो भावनात्मक तौर पर और भी निहाल हो गया। अग्निहोत्री जी सतना जिले के रजरवार गाँव के निवासी थे। उनके तीनों बेटों डा.साकेत अग्निहोत्री( आकाशवाणी भोपाल के सह.निदेशक रहे अब स्वर्गीय), डा.वसंत अग्निहोत्री(बच्चों के डाक्टर व रीवा में पदस्थ) व भास्कर अग्निहोत्री को जानता ही नहीं निकटता भी रही। साकेत बताते थे कि अटलजी पापा को बड़े भाई सा सम्मान देते थे व इंदौर में उनसे कई बार घर मिलने आए।

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रीवा में उनकी ख्याति संस्कृत के प्रकांड विद्वानों में होती है। ठाकुर रणमत सिंह महाविद्यालय में 1957 के बाद पढ़ने वालों के वे गुरू रहे। उन्होंने संस्कृत साहित्य पर कई महत्वपूर्ण शोध किए। कुछ एक शोधप्रबंध अग्निहोत्री जी के व्यक्तित्व व कृतित्व पर भी हुए हैं पर उससे उनका संपादक, व रासेसं.से जुड़ाव व जनसंघ के संस्थापक नेतावाला पक्ष अछूता है। विन्ध्य में इस महापुरुष को स्मरण करने वाले नहीं रहे, नई पीढ़ी के लिए यह सनसनीखेज आश्चर्य हो सकता है कि अग्निहोत्री जी पत्रकारिता में अटलजी के गुरू या वरिष्ठ थे। संघ से जुड़े पुरानी पीढ़ी के स्वयंसेवक जानते होंगे कि वे पंडित जी के कितने परमप्रिय थे। बहरहाल हमें इस महापुरुष के बारे में और भी कुछ जानना चाहिए..।

जिस राष्ट्रधर्म के वह संपादक थे वह यशस्वी मासिकपत्र देश की आजादी के
वर्ष 1947 में लखनऊ से शुरू हुआ था। यह दौर गांधी, नेहरू के चरमोत्कर्ष का था। हर भाषा में रचा जाने वाला साहित्य और पत्र पत्रिकाएं स्थापित महापुरुषों को धुंधलके में डाल गांधी,नेहरू को महामानव ,महापुरुष, युगपुरुष, इतिहासपुरुष गढने में लगीं थी।

समकालीन साहित्यकारों में भी यही सबकुछ रचकर राष्ट्रकवि बनने और राज्यसभा में जाने की स्पर्धा मची थी। लगे हाथ सावरकर, हेडगेवार, गुरु गोलवरकर जैसे सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के उद्घोषकों को राष्ट्रीय खलनायक चित्रित करने की होड़ थी।

नेहरूवियन सेकुलर बनने की शायद सबसे बड़ी योग्यता यही थी कि सावरकर को स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास से कैसे खारिज किया जाए। ऐसे कठिन दौर में पं. दीनदयाल उपाध्याय ने राष्ट्रधर्म निकालने का बीडा उठाया। उन्हें मालूम था कि अपने आदर्शों, सिद्धान्तों और प्रेरक महापुरुषों की कीर्ति की लौ जलाए रखने का यही एक मात्र तरीका है भले ही यह संघर्ष दीए और तूफान की लड़ाई जैसा हो।

पंडितजी राष्ट्रधर्म के आल इन वन थे। प्रूफरीडर से लेकर प्रधान संपादक, प्रबंधक, वितरक। वे लिखते भी थे और लिखवाते भी।

जब व्यस्तता बढी तो इसके संपादन का दायित्व राजीव लोचन अग्निहोत्री और अटलबिहारी वाजपेयी को संयुक्त रूप से सौंपा। वाजपेयीजी राजीवलोचनजी के सहयोगी थे।

समयकाल का यह क्रूर नियम है कि हमेशा चढते सूरज को सलाम किया जाता है इसलिए जहां एक ओर वाजपेयी जी सबकी जुबान पर हैं वहीं राजीव लोचन अग्निहोत्रीजी को भुला दिया गया।

बीते साल जब मैं..चरैवेति.. का संपादक था तब राष्ट्रधर्म के प्रबंध संपादक पवनपुत्र बादल जी सहयोग की प्रत्याशा में भोपाल आए थे। वे राष्ट्रधर्म का अटलजी पर केंद्रित विशेषांक..’हम सबके अटलजी’ .निकालना चाहते थे। विशेषांक के ब्रोशर में राष्ट्रधर्म के एक अंक के संपादकीय पृष्ठ की पृष्ठिभूमि थी जिसमें संपादक के रूप में पहला नाम राजीवलोचनजी का और दूसरा नाम अटलबिहारी जी का था।

एक पत्रकार होने के नाते पीडा़ यह हुई कि राजीवलोचनजी का नाम ब्लर यानी की धूमिल कर दिया गया था ताकि अटलजी का नाम उभर सकेः कहते हैं हर आदमी की चमक में ग्रहों, नक्षत्रों और सितारों की चमक भी शामिल हो जाती है आम आदमी की बिसात ही क्या।

अंक अटलजी पर था जाहिर है उनहीं के नाम पर चमक होगी। जहां तक मुझे मालुम है पं.दीनदयालजी राजीवलोचन जी को अटलजी से ज्यादा मान देते थे या यूं कह लीजिए कि ज्यादा काम का आदमी समझते थे, इसीलिए मेरी जानकारी के अनुसार ..राष्ट्रधर्म.. के बाद पान्चजन्य..और फिर नागपुर से दैनिक युगधर्म.. के प्रकाशन की जिम्मेदारी राजीवलोचनजी को ही सौंपी।

अब शायद ही लोग जानते हों कि पंडित दीनदयाल उपाध्याय का यह उद्भट सहयोगी कौन था कहां का रहने वाला..अब किस हाल में है..।

खैर राजीवलोचन अग्नीहोत्री रीवा के मेधावी युवा थे जो संघ और पंडित दीनदयालजी के निकट पहुंचे। जनसंघ के गठन के बाद पार्टी ने कुछ ही सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे। 1952 में जहां अटलजी बलरामपुर से लड़े वहीं राजीवलोचनजी रीवा लोकसभा से जनसंघ से उम्मीदवार थे। दोनों लोग चुनाव हारे। पार्टी का काम करते हुए दोनों पत्रिकाएं व अखबार निकालते रहे।

52और 56 के बीच मोड़ तब आया जब अटलजी राजनीति में डूबते चले गए और राजीवलोचन अग्निहोत्री गृहस्थी के जंजाल में उलझते। 1957 के चुनाव में अटलजी बलरामपुर(गोंडा) से जीतकर लोकसभा पहुँचे और इधर अग्निहोत्री जी बन गए सरकारी मुलाजिम।

राजीवलोचन जी को परिवार पालने के लिए विन्ध्यप्रदेश सरकार के सूचना विभाग में सहायक की नौकरी करनी पड़ी। वे तत्कालीन सूचनाधिकारी विद्यानिवास मिश्रजी के सहायक बने।

प्रकारान्तर में उच्च शिक्षा विभाग में प्राध्यापक बने और रीवा तथा जीवन के उत्तरार्ध में इंदौर में रहे। हां अटलजी ने मित्रधर्म निभाया वे लगातार अग्निहोत्री जी व उनके बाल बच्चों की खबर लेते रहे भले ही अन्य लोग उनके प्रति बेखबर रहे हों।

राष्ट्रधर्म, पान्चजन्य और युगधर्म की कहानी के वास्तव में कोई केन्द्रीय किरदार हैं तो अटलजी से पहले राजीवलोचन अग्निहोत्रीजी हैं भले ही उनका योगदान आज समय के गर्त में हो।