Jhooth Bole Kauwa Kaate : आमदनी अठन्नी, खर्चा रूप्पैया

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है न, हैरतअंगेज!

भारत संघ के राज्यों पर 70 लाख करोड़ का कर्ज है। इसके बावजूद, सत्तारूढ़ दलों को मुफ्त की रेवड़ी बांटने में शर्म नहीं आती। चुनाव में मुफ्त बिजली, मुफ्त जलापूर्ति, बेरोजगारों-दैनिक वेतन भोगी श्रमिकों और महिलाओं को विशेष भत्तों के साथ-साथ मुफ्त लैपटॉप, स्मार्टफोन, स्कूटी आदि-इत्यादि जैसी योजनाओं की पेशकश की है तो, पूरा तो करना ही होगा। कौन सा खुद की सुख-सुविधाओं में कटौती होना, जो होना वो तो करदाता आम आदमी के साथ होना है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के चिंता जताने के बाद अब एक जनहित याचिका की सुनवाई करते हुए देश
के सर्वोच्च न्यायालय ने इस त्रासदी का संज्ञान लिया है।

सुप्रीम कोर्ट ने चुनावों के दौरान राजनीतिक दलों द्वारा मुफ्त की रेवड़ी बांटने की संस्कृति पर चिंता जताते हुए गंभीर सवाल उठाए हैं। मुफ्त लोकलुभावन मुद्दों पर केंद्र सरकार और चुनाव आयोग के रूख तय न कर पाने पर भी सुप्रीम कोर्ट ने नाराजगी जाहिर की है। कोर्ट ने केंद्र से यह भी पूछा कि क्या इस मुद्दे से निपटने के लिए वित्त आयोग की राय मांगी जा सकती है।

जनहित याचिका दाखिल करने वाले अधिवक्ता अश्वनि उपाध्याय ने कहा कि भारत के राज्यों पर 70 लाख करोड़ का कर्ज है। पंजाब की आबादी 3 करोड़ है पर कर्ज तीन लाख करोड़ का है। कर्नाटक पर 6 लाख करोड़ का कर्ज है। उपाध्याय का कहना था कि हम श्रीलंका की राह पर चल रहे हैं। वहां भी ऐसे ही रेवड़ी कल्चर बनी थी। सारा का सारा देश ही तबाह हो गया।

कुछ ऐसी ही चिंता अप्रैल में पीएम नरेंद्र मोदी के साथ लंबी बैठक के दौरान कई शीर्ष नौकरशाहों ने व्यक्त की थी। उन्होंने चेतावनी दी कि अगर इस तरह के मुफ्त उपहारों का चलन नहीं रुका तो कुछ राज्यों का हाल नकदी की कमी से जूझ रहे श्रीलंका या ग्रीस जैसा हो सकता है। फिर, जुलाई महीने की शुरुआत में, बुंदेलखंड एक्सप्रेस-वे का उद्घाटन करने के दौरान पीएम मोदी ने कहा कि इस प्रथा को रोकने का समय आ गया है। उन्होंने इसे देश, इसके विकास और भलाई को नुकसान पहुंचाने वाली ‘रेवड़ी संस्कृति’ कहा।

पीएम ने जनता को उन लोगों के खिलाफ आगाह किया जो ‘मुफ्त रेवड़ी’ बांटकर वोट आकर्षित करने की कोशिश करते हैं और कहा कि यह प्रथा देश के लिए हानिकारक है और इसे राजनीति से मिटा दिया जाना चाहिए। देश के लोगों, खास तौर से युवाओं को इस संस्कृति के खिलाफ सतर्क रहने की जरूरत है। रेवड़ी बांटने वाले कभी विकास के कार्य जैसे रोड नेटवर्क, रेल नेटवर्क का निर्माण नहीं करा सकते। ये अस्पताल, स्कूल और गरीबों के लिए घर नहीं बनवा सकते। पीएम ने आगे कहा कि रेवड़ी कल्चर वाले कभी आपके लिए नए एक्सप्रेस-वे नहीं बनाएंगे, नए एयरपोर्ट या डिफेंस कॉरिडोर नहीं बनाएंगे। ऐसे लोगों को लगता है कि मुफ्त की रेवड़ी के बदले उन्होंने जनता जनार्दन को खरीद लिया है।

बोले तो, सवा साल पहले मद्रास उच्च न्यायालय ने मुफ्त उपहार बांटकर लोगों को आलसी बनाने के लिए राजनीतिक दलों को फटकार लगाई थी। न्यायालय द्वारा पारित आदेश में कहा गया कि राजनीतिक दलों को चुनावी वादे करने से प्रतिबंधित या रोका जाना चाहिए, जो कि सरकारी खजाने पर दबाव डाल सकते हैं, खासकर यदि राज्य वित्तीय संकट का सामना कर रहा है। अन्यथा, वित्त के लिए, राज्य को शराब की दुकानों की संख्या बढ़ानी होगी।

अब जरा राज्यों की कंगाली का हाल सुनिये। हाल ही में आरबीआई ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि राज्य सरकारें मुफ्त की योजनाओं पर जमकर खर्च कर रही हैं, जिससे वो कर्ज के जाल में फंसती जा रही हैं। आरबीआई की ‘स्टेट फाइनेंसेस: अ रिस्क एनालिसिस’ रिपोर्ट के अनुसार, पंजाब, राजस्थान, बिहार, केरल और पश्चिम बंगाल कर्ज में धंसते जा रहे हैं और उनकी हालत बिगड़ रही है। रिपोर्ट में 10 राज्यों की स्थिति को अलार्मिंग बताया गया है। बैंक के अनुसार उन्हें अपनी आर्थिक स्थिति बेहतर करनी होगी, अन्यथा आने वाले समय में स्थिति और भी बदतर हो सकती है। ये राज्य हैं- राजस्थान, केरल, प. बंगाल, पंजाब, बिहार, आंध्र प्रदेश, झारखंड, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और हरियाणा। इन राज्यों का नाम ‘स्टेट जीडीपी’ में कर्ज की भागीदारी के आधार पर लिया गया है।

रिपोर्ट के अनुसार, साल 2026-27 तक पंजाब सरकार पर ग्रॉस स्टेट डोमेस्टिक प्रोडक्ट (GSDP) का 45 फीसदी से अधिक कर्ज हो सकता है। इसके अतिरिक्त राजस्थान, केरल और पश्चिम बंगाल का कर्ज GSDP का 35 फीसदी तक जा सकता है। आरबीआई की रिपोर्ट में बताया गया था कि मार्च, 2021 तक देशभर की सभी राज्य सरकारों पर 69.47 लाख करोड़ रुपये का कर्ज है। आरबीआई ने अपनी इस रिपोर्ट में कैग के डेटा के हवाले से बताया है कि राज्य सरकारों ने 2020-21 में सब्सिडी पर कुल खर्च का 11.2 फीसदी खर्च किया था, जबकि 2021-22 में 12.9 फीसदी खर्च किया था।

झूठ बोले कौआ काटेः

इसे कहते हैं आमदनी अठन्नी, खर्चा रूप्पैया। खर्च अधिक है और आमदनी कम है, तो कर्ज लेना ही पड़ेगा। श्रीलंका के साथ भी ऐसा ही हुआ। खर्च और कर्ज का प्रबंधन सही तरीके से नहीं किया, तो हो गया कंगाल। 51 अरब डालर का कर्ज, न खाने-पीने का सामान, न ही बिजली, गैस-पेट्रोल-डीजल!

भारत में मुफ्त की रेवड़ी बांटने की संस्कृति को पुष्पित-पल्लवित करने का श्रेय तमिलनाडु की राजनीति को है। वहां द्रमुक और अभा अन्ना द्रमुक के बीच जनता को उपहार देकर लुभाने की होड़ से शुरूआत हुई- मुफ्त कलर टीवी, अम्मा कैंटीन, अम्मा वाटर, अम्मा लैपटॉप, अम्मा फार्मेसी, अम्मा बेबी केयर किट, अम्मा इंश्योरेंस आदि। करूणानिधि के नेतृत्व वाली द्रमुक भी पीछे नहीं रही। तमिल जनता को चुनाव के समय उपहार की आदत लग गई। इसी संस्कृति को देश भर के राजनीतिक दलों ने मतदाताओं को लुभाने के साधन के रूप में न केवल अपनाया, मुफ्त की रेवड़ी बांटने में दो हाथ आगे बढ़ गए। सारे दल इस दलदल में फंस चुके हैं, बोले तो कोई दूध का धुला नहीं है।

आऱबीआई रिपोर्ट के अनुसार, आंध्र प्रदेश की आमदनी 1,91,262 करोड़ है, जबकि यह 2,39,986 करोड़ रुपया खर्च कर रहा है। अर्थात, आंध्र प्रदेश करीब-करीब 49 हजार करोड़ रुपये अधिक खर्च कर रहा है। पंजाब की आमदनी 96,078 करोड़ है, जबकि खर्च 1,19,913 करोड़ है। इसी प्रकार से राजस्थान की आमदनी 2,15,256 करोड़ है, जबकि खर्च 2,73,468 करोड़ है। तेलंगाना की आमदनी 1,93,089 करोड़ है, जबकि खर्च 2,45,257 करोड़ है। उप्र की आमदनी 5,01,778 करोड़ है, जबकि खर्च 5,82,956 करोड़ है। प.बंगाल का खर्च 2,60,629 करोड़ है, जबकि आमदनी 1,98,232 करोड़ है। गुजरात की आमदनी 1,82,295 करोड़ है, जबकि खर्च 2,18,408 करोड़ है। दिल्ली की आमदनी 61,891 करोड़ है, जबकि खर्च 71,085 करोड़ है।

आरबीआई की रिपोर्ट में कर्ज पर ब्याज भुगतान को लेकर राज्यों को अलर्ट किया गया है। बिहार, केरल, राजस्थान, पंजाब और प.बंगाल को विशेष तौर पर इस पैमाने पर अलर्ट किया गया है। रिपोर्ट ने साफ तौर पर कहा है कि सबसे ज्यादा मुफ्त उपहार आंध्र प्रदेश सरकार द्वारा दिया जा रहा है। उसके बाद झारखंड, मध्य प्रदेश, पंजाब और प. बंगाल का नंबर आता है। बिजली कंपनियों को भुगतान नहीं किया जा रहा है। और इसमें तमिलनाडु, मध्य प्रदेश, राजस्थान, पंजाब और झारखंड को विशेष तौर पर चिन्हित किया गया है।

पंद्रहवें वित्त आयोग के अध्यक्ष एनके सिंह ने अप्रैल में दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में एक व्याख्यान के दौरान चेतावनी दी थी कि कैसे मुफ्त की राजनीति वित्तीय आपदाओं को जन्म दे सकती है। वर्षों से मुफ्त की राजनीति भारत में चुनावी लड़ाई का एक अभिन्न अंग बन गई है और हाल ही में पांच राज्यों, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, गोवा, पंजाब और मणिपुर में हुए विधानसभा चुनावों में परिदृश्य अलग नहीं था। श्री सिंह ने आगाह करते हुए कहा कि अगर राज्यों ने मतदाताओं को
प्रभावित करने के लिए मुफ्त उपहार देना जारी रखा तो भारत उप-राष्ट्रीय दिवालिया होने की संभावना का सामना कर सकता है।

झूठ बोले कौआ काटे, मुफ्त की संस्कृति के उन्मूलन के लिए जनता में एक दृष्टिकोण परिवर्तन की आवश्यकता है। सरकारों को कर राजस्व का उपयोग करने के लिए जवाबदेह बनाया जाना चाहिए क्योंकि मुफ्त उपहार हमेशा करदाताओं पर बोझ साबित होते हैं। इसके साथ ही पार्टियों के आंतरिक लोकतंत्र को मजबूत करने की आवश्यकता है ताकि चुनाव में विकास के वादे किए जाएं न कि मुफ्तखोरी के। इससे राजनीति के अपराधीकरण पर भी अंकुश लगेगा। चुनाव आयोग को भी अधिक से अधिक शक्तियाँ दी जानी चाहिए जैसे किसी राजनीतिक दल का पंजीकरण रद्द करने की शक्ति, अवमानना ​​की शक्ति आदि। इससे चुनाव के दौरान शराब और अन्य सामानों के वितरण में कमी आएगी और वांछित सीमा के अनुसार खर्च सुनिश्चित होगा। सरकार को 2021 में मद्रास हाईकोर्ट द्वारा दी गई सलाह के अनुसार रोजगार सृजन और बुनियादी ढांचे के विकास के लिए मुफ्त में खर्च किए जाने वाले धन का उपयोग करना चाहिए। इससे राज्य का सामाजिक उत्थान और प्रगति होगी।

फिलहाल, सुप्रीम कोर्ट में 3 अगस्त को मुफ्त उपहार पर सुनवाई होने की संभावना है। आगे-आगे देखिये होता है क्या?

और ये भी गजबः

देश में चपरासी से लेकर सुप्रीम कोर्ट के जज तक को केवल एक पेंशन मिलती है, लेकिन सांसद, विधायक और मंत्रियों पर यह नियम लागू नहीं है। यानी, विधायक से यदि कोई सांसद बन जाए तो उसे विधायक की पेंशन के साथ ही लोकसभा सांसद का वेतन और भत्ता भी मिलता है। इसी तरह राज्यसभा सांसद चुने जाने और केंद्रीय मंत्री बन जाने पर मंत्री का वेतन-भत्ता और विधायक-सांसद की पेंशन भी मिलती है। जबकि, सरकारी अधिकारी और कर्मचारियों को एक ही पेंशन मिलती है। वह भी 33 साल की नौकरी पूरी करने के बाद। वहीं, नेताओं को एक दिन का विधायक या सांसद बनने
पर भी पेंशन की पात्रता होती है। हांलाकि, 90 के दशक से पहले नियम था कि जब तक पांच साल का कार्यकाल पूरा नहीं होगा, तब तक विधायकों को पेंशन नहीं मिलेगी।

1954 में लागू किये गये सांसदों के वेतन, भत्ता एवं पेंशन अधिनियम में अब तक 29 बार मनमाने संशोधन किये जा चुके हैं। मनमाना इसलिये कि जैसा सांसद चाहते हैं स्वयं वैसा ही निर्णय ले लेते हैं। दुनिया का शायद ही कोई ऐसा देश होगा जहां सांसद अपने वेतन, भत्ते, पेंशन व सुविधाओं का स्वयं निर्णय ले लेते हों। यही हाल देश की विधान सभाओं व विधान परिषदों के सदस्यों का भी है। जिन्हें हर महीने मोटी रकम पेंशन के रूप में मिलती है। इसी तरह कई नेता विभिन्न बोर्ड, निकाय, मंडल के साथ ही यूनिवर्सिटी में कुलपति से लेकर राष्ट्रीय संस्थानों के चेयरमैन तक हो जाते हैं। इन्हें पुराने पदों की पेंशन के साथ ही वर्तमान पदों का वेतन भी मिलता है, जो संविधान में निहित समानता के अधिकार का खुला उल्लंघन है।

दूसरी ओर, रेल मंत्रालय ने वरिष्ठ नागरिक, मान्यता प्राप्त पत्रकार, युवा, किसान, दूधिये, सेंट जॉन एम्बुलेंस ब्रिगेड, भारत सेवा दल, रिसर्च स्कॉलर्स, पदक विजेता शिक्षक, सर्वोदय समाज, स्काउट गाइड, वॉर विडो, आर्टिस्ट व खिलाड़ियों सहित 30 से ज्यादा कैटेगरी के लोगों को टिकटों पर मिलने वाली 30 फीसदी की छूट बंद कर दी है, जबकि विधायक और सांसदों को एसी सेकंड में एक सहायक के साथ राज्य के अंदर असीमित यात्रा कूपन मिलते हैं। वहीं, राज्य के बाहर सीमित यात्रा सुविधा हासिल है। आम आदमी की विसंगति देखिय़े कि आरएसी में भले ही आधी बर्थ पर यात्रा पूरी करनी
पड़े, पैसा पूरी बर्थ का देना पड़ता है। है न गजब!