न्याय और कानून: ‘पंच परमेश्वर’ की सीख केस के दबाव कम करने के लिए जरुरी!  

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न्यायालयों के समक्ष प्रकरणों के अंबार को देखते हुए यही लगता है कि हमें प्रकरणों एवं विवादों के निराकरण के लिए वैकल्पिक माध्यमों की मदद लेनी होगी। इस संदर्भ में मुंशी प्रेमचंद की पहली कहानी ‘पंच परमेश्वर’ आज भी उतनी ही सामयिक है, जितनी की उस समय थी। ‘पंच परमेश्वर की जय’ से ही प्रकरणों की इस बढ़ती संख्या पर कुछ हद तक नियंत्रण संभव है।

न्यायालयों के समक्ष प्रकरणों का जो अंबार है, उसे देखते हुए यह महसूस किया जा रहा है कि इससे निजात पाने अथवा इसे कम करने के लिए वैकल्पिक उपाय खोजने होंगे। इन विकल्पों का चयन जितनी जल्द हो सके, न्याय व्यवस्था के लिए उतना ही बेहतर होगा।

इसी दिशा में मध्यस्थता एवं सुलह ऐसे दो महत्वपूर्ण उपाय है जो प्रकरणों की संख्या को कम कर सकते हैं। इस संदर्भ में मुंशी प्रेमचंद की पहली कहानी ‘पंच परमेश्वर’ की बरबस याद आती है।

यह कहानी सन 1916 में लिखी गई थी।

मुझे लगता है इस महान कथाकार के मन में उस समय भी कमोबेश न्याय व्यवस्था एवं प्रकरणों के शीघ्र निराकरण की कल्पना रही होगी। यह कहानी ‘पंच’ द्वारा अपने मित्र के खिलाफ दिए गए फैसले पर है।

इस कहानी का ‘पंच’ कहता है कि मैं धर्म के सर्वोच्च आसन पर बैठा हूॅं। मेरे मुंह से इस समय जो कुछ निकलेगा वह देववाणी के तुल्य होगा। देववाणी में मेरी मनोदशा का समावेश कदापि नहीं होना चाहिए।

उस पंचायत में पंच द्वारा दिए गए फैसले का सभी स्वीकार करते हैं और ‘पंच परमेश्वर की जय’ के नारे गूंजते हैं। जिसके खिलाफ फैसला दिया गया वह जुम्मन नामक पात्र भी पंच अलगू के पास आकर कहता है कि पंच के पद पर बैठकर न कोई किसी का दोस्त होता है, न दुश्मन। न्याय के सिवा उसे कुछ नहीं सूझता है।

आज मुझे विश्वास हो गया है कि पंच की जुबान से खुदा बोलता है। ‘पंच परमेश्वर’ कहानी समाज में शीघ्र और प्रभावी न्याय की भावना को अभिव्यक्त करती है।

आज इसी कहानी के मूल तत्वों को समाज में कानून के रूप में लागू करने का प्रयास किया जा रहा है। मध्यस्थता और सुलह ऐसे दो महत्वपूर्ण रास्ते हैं जिन पर चलकर प्रकरणों की संख्या पर नियंत्रण किया जा सकता है। सरकार भी इस दिशा में विचार कर रही है।

मध्यस्थता और सुलह (संशोधन) अधिनियम एक ऐसा ही प्रयास है। इसमें भारतीय मध्यस्थता परिषद के गठन का प्रावधान है। इसके माध्यम से प्रकरणों का निराकरण का प्रयास किया गया है।

मध्यस्थता में विवाद का निराकरण एक तीसरा पक्ष करता है, जिसका किसी भी पक्ष अथवा विवाद से संबंध नहीं होता है। वह दोनों पक्षों को सुनकर विवाद का निराकरण करता है।

इसी प्रकार सुलह में एक समझौताकार होता है जो विवाद के निपटारे के लिए समझौते तक पहुंचने में मदद करता है।

यदि आवश्यक हो तो तकनीकी विशेषज्ञ की मदद भी ली जा सकती है। इसके लिए यह आवश्यक है कि विवादित पक्षों के मध्य एक अनुबंध हो जिनमें इसका उल्लेख हो। मध्यस्थ का निर्णय बाध्यकारी होगा।

साथ ही पक्षकारों के अधिकारों का निर्धारण निष्पक्ष एवं न्यायिक प्रक्रिया द्वारा किया जाना चाहिए। पक्षकारों का अनुबंध में यह आशय भी होना चाहिए कि वे आवश्यक होने पर विवाद का निर्णय मध्यस्थता द्वारा करवाएंगे।

विवाद के पक्षकारों के अनुबंध में विवाद की निश्चितता, विषय की निश्चितता एवं मध्यस्थता अधिकरण की निश्चितता होना चाहिए। यह महत्वपूर्ण है कि अनुबंध का कोई निश्चित प्रारूप नहीं है लेकिन पक्षकारों की सहमति आवश्यक है।

केन्द्र सरकार द्वारा मध्यस्थता एवं सुलह (संशोधन) अधिनियम 2019 के विभिन्न प्रावधानों के लिए एक राजपत्र अधिसूचना जारी की गई है। यह प्रावधान 30 अगस्त 2019 से लागू है।

इसमें पुराने प्रावधानों की कई धाराओं के प्रावधानों को संशोधित कर दिया गया है तथा कुछ नई धाराएं सम्मिलित की गई है। इसमें भारतीय मध्यस्थता परिषद का गठन सर्वाधिक महत्वपूर्ण कदम है।

इस संस्था को कई महत्वपूर्ण जिम्मेदारियों को वहन करना होगा। यह परिषद मध्यस्थता करने वाली संस्थाओं को ग्रेड देगी तथा मान्यता प्रदान करेगी। साथ ही ऐसे कदम उठाएगी जिससे मध्यस्थता, सुलह तथा वैकल्पिक समाधान को बढ़ावा देगी।

इसका उद्देश्य वैकल्पिक विवाद समाधान व्यवस्था से जुड़े सभी मामलों में मानक बनाने के लिए नीति और दिशा निर्देश तय करने के साथ ही मध्यस्थता वाले निर्णयों को वर्तमान आधुनिक साधनों के माध्यम से जमा करना भी इसका कार्य होगा।

इसके अध्यक्ष सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश अथवा उच्च न्यायालय के मुख्य सेवानिवृत्त न्यायाधीश होंगे तथा यह निगम निकाय के रूप में कार्य करेगी।

सदस्यों के रूप में प्रतिष्ठित एवं जानकार व्यक्तियों को सम्मिलित किया जा सकेगा। संबंधित नियुक्तियों पर आपत्ति होने पर इसे सर्वोच्च न्यायालय अथवा संबंधित उच्च न्यायालयों में चुनौती देकर अन्य व्यक्तियों की नियुक्ति की प्रार्थना कर सकते हैं।

अभी कुछ समय पूर्व न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचुड़ दुबई में आयोजित ‘वैश्वीकरण के युग में मध्यस्थता’ पर अंतराष्ट्रीय सम्मेलन के चौथे सम्मेलन में वर्चुअल तरीके से सम्मिलित हुए थे।

उनका कहना था कि एक सुव्यवस्थित अनुबंध पारंपरिक मध्यस्थता का एक प्रभावी विकल्प है, जो अब पारंपरिक मुकदमेबाजी से मेल खाने लगा है।

उन्होंने कहा कि न्याय की खोज में प्रौद्योगिकी और मध्यस्थता अविभाज्य हो गई है। यह कोविड-19 की महामारी के दौरान और भी स्पष्ट हुई है।

प्रौद्योगिकी और मध्यस्थता न्याय की खोज में इतनी अंतर्निहित है कि इन अवधारणाओं में से किसी एक को संदर्भित किए बगैर चर्चा करना असंभव है।

न्यायमूर्ति चंद्रचुड़ ने कहा कि चूंकि पारंपरिक मध्यस्थता धीरे-धीरे लेकिन लगातार पारंपरिक मुकदमेबाजी प्रणाली से मिलती-जुलती है।

विवादों के निपटारे में उच्च लागत और समय की खपत को देखते हुए सुव्यवस्थित अनुबंध मध्यस्थता का एक प्रभावी विकल्प प्रतीत होता है।

यह भी एक महत्वपूर्ण तथ्य है कि लोगों को सस्ता, सुलभ और त्वरित न्याय दिलाने में न्यायाधीशों से अधिक सफल अभिभाषक रहे हैं। राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण द्वारा वैकल्पिक विवाद केन्द्र की शुरूआत राज्य स्तर पर की गई है।

इसके माध्यम से मीडिएशन और लोक अदालतों के माध्यम से भी प्रकरणों के निराकरण की व्यवस्था की गई है। मध्यस्थता का एक चिंताजनक पहलू पंचाट अथवा पंचो द्वारा दिए गए फैसलों पर शीघ्रता से अमल नहीं हो पा रहा है।

इस पर ध्यान दिया जाना भी आवश्यक है।

एक मामले में तो 30 साल से भी अधिक समय से अमल नहीं हो पाया। मध्यस्थता की कार्यवाही व फैसले की इससे अधिक दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति और क्या हो सकती है।

मध्यस्थता अधिनियम के तहत पारित आदेश को अगर जल्द लागू नहीं किया जाता है तो मध्यस्थता अधिनियम के साथ-साथ वाणिज्यिक न्यायालय की कार्यवाही व गठन के उद्देश्य भी विफल हो जाएंगे।

अपनी तमाम कमियों के बावजूद मध्यस्थता एवं सूलह ही ऐसे माध्यम है जिनके माध्यम से बड़े-बड़े विवादों को हल किया जा सकता है।

जरुरत इस बात की है कि संबंधित पक्ष ‘पंच फैसले’ को स्वीकारें तथा उसमें अनावश्यक आपत्तियां एवं तकनीकी बाधाऐं उत्पन्न न करें।

इसके लिए लोगों में जागरूकता भी पैदा करने के लिए एक जन आंदोलन चलाना होगा ताकि लोगों में यह भावना एवं जानकारी पैदा की जा सके कि विवादों के निपटारे के लिए वैकल्पिक उपायों का उपयोग किया जा सके।

यदि ऐसा हो सका तो प्रकरणों के इस अंबार को रोक पाना कुछ अंशों में संभव हो सकेगा। हमें इस बात का ध्यान रखना होगा कि ‘पंच परमेश्वर’ के माध्यम से मुंशी प्रेमचंद ने जो ‘जिम्मेदारी का भाव’ पैदा किया था, वह आज भी उतना ही ‘सामयिक’ और आवश्यक’ है।

यही विवादों के निराकरण तक पहुंचने का सहज, सरल, किफायती और आसान रास्ता है।