न्यायाधीश से हमेशा यह अपेक्षा की जाती है कि वह संयमित व्यवहार एवं आचरण रखे। न्यायाधीश को प्रकरण से संबंधित विधिक प्रावधानों के आधार पर ही अपना निर्णय देना चाहिए। उन्हें अपने व्यक्तिगत पूर्वाग्रहों तथा समाचार पत्रों, टीवी में प्रकाशित-प्रसारित होने वाले समाचारों से भी प्रभावित नहीं होना चाहिए। वह न्यायदान की प्रक्रिया को प्रभावित करने वाला काम माना जाएगा।
देश के एक उच्च न्यायालय में प्रदेशव्यापी अभिभाषकों की हड़ताल के कारण फौजदारी अपीलें अभिभाषकों की अनुपस्थिति में खारिज कर दी। अभिभाषकों ने इन अपीलों में अपनी अनुपस्थिति की कोई सूचना न्यायालय को नहीं दी थी। इस उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को समाचार पत्रों से यह जानकारी प्राप्त हुई कि अभिभाषक हड़ताल पर है।
चूंकि, हड़ताल के कारणों का समर्थन न्यायालय भी कर रहा था, इस कारण उसका भी बहिष्कार अभिभाषकों द्वारा किया जा रहा था। न्यायालय की राय थी कि वकीलों का आचरण अत्यंत उच्छंखल था तथा वकीलों की कार्यवाही को किसी भी दशा में स्वीकार नहीं किया जा सकता। इन मामलों में अपील को पुनः रेकार्ड पर लेने की अभिभाषकों की प्रार्थना को भी न्यायालय द्वारा अस्वीकार कर दिया गया।
इन निर्णयों के विरूद्ध उच्चतम न्यायालय के समक्ष विशेष याचिका प्रस्तुत की गई। सर्वोच्च न्यायालय ने भारतीय दण्ड विधान के प्रावधानों का हवाला देते हुए कहा गया कि इन प्रावधानों के अंतर्गत दोनों पक्षों को सुने बगैर अपील का निराकरण नहीं किया जा सकता है।
उच्च न्यायालय का यह मानना था कि दण्ड विधान की धारा 386 के प्रावधानों के तहत गुण-दोषों के आधार पर अनुपस्थिति में भी अपील का निराकरण किया जा सकता है।
उच्च न्यायालय ने इस संदर्भ में रामनरेश यादव विरूद्ध बिहार राज्य में दिए गए निर्णय का हवाला देते हुए कहा गया था कि यदि वकीलों द्वारा सुनवाई में बाधा डाली जा रही हो, तो फौजदारी अपील को अभियोजन की अनुपस्थिति में खारिज की जा सकती है।
उच्चतम न्यायालय ने कहा कि उच्च न्यायालय ने प्रकरण से असंबंधित मामलों से प्रभावित होकर न्यायिक असंयमता का परिचय दिया है। उच्च न्यायालय द्वारा वकीलों की हड़ताल पर विचार नहीं किया जाना चाहिए था। किसी भी न्यायाधीष से बेहतर संयम की अपेक्षा की जाती है।
न्यायिक प्रक्रिया की मांग यही होती है कि न्यायाधीष अपने प्रकरण से संबंधित कानूनी नियमों की परिधि में रहते हुए ही अपना निर्णय दें। उसे निष्पक्षता के साथ अपनी निजी भावनाओं पर संयम रखते हुए ही किसी प्रकरण के समस्त पहलुओं पर विचार करना चाहिए।
किसी विषय में अभिभाषकों की खास विचारों को उच्छंखल आचरण नहीं माना जा सकता है। सर्वोच्च न्यायालय ने प्रस्तुत अपीलों को स्वीकार किया गया तथा अपीलों को गुण-दोषों पर सुनवाई के आदेष प्रदान किए।
इसी प्रकार के विषय पर विचार करते हुए एक अन्य प्रकरण में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि न्यायिक संयम एवं अनुशासन न्याय के व्यवस्थित प्रषासन के लिए उतने ही आवश्यक हैं, जितने कि वे सेना की दक्षता के लिए जरुरी हैं। स्वनियंत्रण एवं विनम्रता का कर्तव्य हमारे न्यायाधीशों का आधारभूत आदर्श होना चाहिए।
निर्णय लेते समय यह गुण न्यायाधीशों के सम्मान अर्जन के लिए उतना ही आवश्यक है, जितना कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए।
सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि निसंदेह प्रत्येक न्यायाधीश प्रकरणों में निर्णय देते समय अथवा निर्णय से संबंध में कार्यपालन करते समय स्वयं की राय कायम करने के लिए स्वतंत्र है।
लेकिन, शासन के विरूद्ध दिए गए पूर्ववर्ती आलोचनात्मक कथनों के संबंध में इस न्यायालय द्वारा विचारों को दृष्टिगत रखते हुए संबंधित न्यायाधीष को आगाह होना चाहिए कि भले ही वे अपने निर्णय में बहुत ही स्पष्ट क्यों न हों।
अपीलार्थी की निंदा न की जाए। एक न्यायाधीश के लिए कड़वाहट के लेशमात्र से भी बचना आवश्यक है। न्यायाधीश से यह उम्मीद की जाती है कि वह अपीलार्थी के व्यावसायिक आचरण पर लांछन न लगाए।
इस फैसले में सर्वोच्च न्यायालय की पीठ ने न्यायजगत के विभिन्न न्यायाधीषों द्वारा पारित न्याय दृष्टांतों में व्यक्त विचारों का हवाला देते हुए कहा कि न्यायाधीश की पीठ शक्तियों का पद है।
न्यायाधीशों के पास न केवल बाध्यकारी निर्णय देने का अधिकार है, बल्कि अन्य अधिकारियों के द्वारा शक्तियों के प्रयोग को विधिमान्य भी बनाते हैं। न्यायाधीशों के पास न्याय क्षेत्र का संपूर्ण एवं अचुनौतीपूर्ण नियंत्रण है।
लेकिन, वे अपने अधिकार का अधिवक्ताओं, पक्षकारों एवं गवाहों के प्रति असंयत टिप्पणियों, अषोभनीय परिहास एवं तीव्र नींदा द्वारा दुरूपयोग नहीं कर सकते हैं।
न्यायालय का कहना था कि समुचित न्याय प्रशासन के लिए यह अति-महत्वपूर्ण सामान्य सिद्धांत है कि उन व्यक्तियों एवं प्राधिकारियों, जिनका आचरण विचारण के लिए न्यायालय के समक्ष लाया गया है, के विरूद्ध अपमान या टिप्पणियां नहीं की जानी चाहिए, जब तक कि निर्णय दिए जाने के लिए उनके आचरण की आलोचना करना अत्यंत आवश्यक न हो।
न्यायालय ने यह माना कि प्रकरण में दिए गए फैसले में अपीलार्थी के व्यावसायिक आचरण पर व्यक्त किए गए विचार एवं लगाए गए लांछन न केवल क्षेत्राधिकार से बाहर है, वरन वे पूर्णतया अन्यायसंगत व अनुचित थे। न्यायालय ने इन टिप्पणियों को आदेश से निकालने का निर्देश दिया|