‘गुरमीत पुत्र चुप हो जा… इस समय बाप-बेटे पर शराब हावी है; क्यों तुम अपनी हड्डियाँ तुड़वाती हो। मार्था से सुखबीरे का पल्ला मैं झुड़वाऊँगी। बस तुम थोड़ा सब्र रखो।’ बीजी ने मधुर और धीमी आवाज़ में कहा।
‘पाँच सालों से आपसे यही सुनती आ रही हूँ; मेरे सब्र का बाँध टूट चुका है। अब आप गिनवाएँगी, बेटी यह महलनुमा घर तेरा है, कार तेरे पास है, क्रेडिट कार्ड्स तेरे पास हैं। दिन भर कहाँ जाती हो, कहाँ से आती हो, कोई नहीं पूछता। जो खिला देती हो खा लेते हैं; जब नहीं खिलाती तब भी कोई कुछ नहीं कहता। बीजी मुझे यह सब कुछ नहीं, पति चाहिए; जो पाँच सालों में आप मुझे नहीं दे पाईं। अब तो मैं तलाक ही चाहती हूँ। तोड़ लें जितनी हड्डियाँ तोड़नी हैं।’
मनप्रीत परिवार के झगड़े को सुन रही है…वह सुन ही सकती है…कुछ कर नहीं सकती। वह बहुत-सी बातें समझती है, पर बोल नहीं सकती। बेबस सी बिस्तर पर पड़ी है।
रात में वह अपने कमरे में अकेली सोती है…उसका पति अक्सर उसके साथ नहीं होता। आधी रात को उसकी नींद खुल जाती है। नींद खुलना आदत बन गई है, कभी डर कर और कभी पारिवारिक झगड़े से। ऐसे में वह दिल्ली पहुँच जाती, जहाँ वह जन्मी पली है। शायद दिल्ली की यादें उसे कछुए के खोल सी अपने भीतर समेट लेती हैं और वह स्वयं को इस असुरक्षित माहौल में सुरक्षित महसूस करती है। उसे अपनी शादी का समय बहुत याद आता। शादी की चहल-पहल, धूम-धड़ाका और उसके पापा के चेहरे की ख़ुशी की सुधि उसके चेहरे पर प्रसन्नता ले आती। उसके पापा सरकारी नौकर हैं और उस पर तीन बेटियाँ। उसकी शादी का सारा खर्चा उसके सुसराल वालों ने किया था और दहेज भी नहीं लिया। उसके पापा बहुत खुश थे, कैसे खुश न होते…उसकी मम्मी तो अपनी भावनाएँ छिपा ही नहीं पाईं; जब किसी रिश्तेदार ने कहा– ‘मनप्रीत की मम्मी कम से कम एक बेटी की शादी का खर्चा तो बच गया।’ वे रो पड़ी थीं, उसे पता है, वे सुख के आँसू थे।
वह अपने पापा से नाराज़ भी है। उनके जिस दोस्त ने उसका रिश्ता करवाया, उसके सुसराल के बारे में उसने पूरा सच नहीं बताया और उसके पापा ने अपने दोस्त पर आँख मूँद कर विश्वास कर लिया। उसने अन्दर बेहद रोष है। अकेले में बुदबुदाकर वह अपना रोष निकालती- ‘बिना सोचे-समझे विदेश के लालच में उसे अजनबी परिवार के हवाले कर दिया। यह भी नहीं सोचा, बेटी का जीवन जिस परिवार से जुड़ा है, उनके बारे में छानबीन कर लें। शादी में सुसराल वाले कितने सभ्य और सुसंस्कृत लग रहे थे पर यहाँ आकर…।’ उसके भीतर सुसराल का डर बैठ गया है। बात-बात पर वह घबराने लगी है।
वह अपनी माँ को कुछ बताना नहीं चाहती। वहाँ सब इसी बात से खुश हैं कि बेटी विदेश में ब्याही गई, हींग लगी न फिटकरी रंग चोखा हुआ। वह घर पर फ़ोन करने से कतराने लगी है। जब भी वह फ़ोन करती है, मम्मी-पापा एक ही बात कहते हैं–‘मन, तुम वहाँ सेट हो जाओ, फिर हमें भी बुलाना।’ वह झुँझला जाती है…कोई उसे यह नहीं पूछता, ‘मन तुम वहाँ कैसे रह रही हो? तुम्हारे सुसराल वाले कैसे हैं? तुम्हें वहाँ कोई कष्ट तो नहीं!’ उसके भीतर प्रश्न कौंधते रहते हैं…..कैसे हो गए हैं मेरे मम्मी-पापा! मेरे बारे में कुछ जानना नहीं चाहते! जिन्हें मेरे पल-पल का पता होता था, मेरे मन में क्या चल रहा है, उसकी खबर तक होती थी, अब मेरे दुःख, दर्द से बेख़बर रहना चाहते हैं, मेरी आह तक नहीं सुनना चाहते। विदेश आना ही सिर्फ उनकी चाहत बन गई है। विदेश जाने की इतनी ललक क्यों है देशवासियों को? विदेश जाना एक स्टेटस सिम्बल सा बन गया है। यहाँ पढ़ाई के लिए आना और बात है पर बेटियों को कैसे उस परिवार में भेज दिया जाता हैं, जिसके बारे में स्वयं माँ -बाप कुछ नहीं जानते होते। बस किसी एक की राय पर अपने जिगर का टुकड़ा अजनबियों को सौंप देते हैं। फिर वे जैसे चाहें उनके साथ व्यवहार करें। यह त्रासदी लड़कियाँ कब तक झेलेंगी ? खरपतवार से उभरते प्रश्नों के उत्तर ढूँढ़ती वह हर समय बेचैन रहती है और उसे नींद भी ढंग से नहीं आती…तिस पर जेठ-जेठानी का झगड़ा भी हर दूसरी- तीसरी रात उसकी नींद तोड़ देता।