Khandwa By-Election : महंगाई के मुद्दे को भुनाने में कांग्रेस नाक़ाम रही

जनता ने बेहद अनमने मन से अंततः भाजपा को ही चुना

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खंडवा से जय नागड़ा की चुनाव समीक्षा.                            एक व्यक्ति से पूछा गया ‘आप जंगल से जा रहे हों, अचानक शेर आ जाए तो क्या करोगे?’ उसने बहुत भोलेपन से ज़वाब दिया ‘मैं क्या करूँगा, जो कुछ करेगा शेर ही करेगा!’ मौज़ूदा राजनीतिक परिदृश्य में कांग्रेस की हालत क़रीब ऐसी ही हो गई है। खंडवा लोकसभा उपचुनाव में तमाम स्थितियाँ कांग्रेस के अनुकूल होने के बावज़ूद जो कांग्रेस हाथ पर हाथ धरे बैठे रही, यह सोचकर की जो करना है जनता ही करेगी! कांग्रेस को लगता था कि यदि जनता महंगाई, बेरोजगारी और अव्यवस्था से परेशान है, तो उसे ही बदलाव लाना होगा। जरा इसके उलट कांग्रेस की जगह भाजपा इस स्थिति होती तो वो महंगाई के मुद्दे को अपने पक्ष में पूरी तरह भुना लेती।

मंगलवार जब सुबह जब खंडवा लोकसभा उपचुनाव की मतगणना शुरू हुई, तो बड़ी कश्मकश की स्थिति थी। किसी राउंड में भाजपा आगे दिखती, तो किसी राउंड में कांग्रेस। मतगणना के शुरूआती 10-15 दौर में चुनाव नतीजा बहुत दिलचस्प स्थिति में था। कोई भी उम्मीदवार अपनी सुनिश्चित जीत का दावा करने की हालत में नहीं था, सबके चेहरों पर से हवाईयां उड़ रही थी। जहाँ बीते सालों में दोपहर 12 बजे तक मतगणना स्थल पर ढ़ोल-तासों का शोर गूंजने लगता, पार्टियों के बड़े-बड़े झंडे लहराने लगते, वहीं इस बार शाम तक मतगणना स्थल पर सन्नाटा पसरा था। शाम 5 बजे के बाद जब नतीजे भाजपा के पक्ष में जाते दिखे, तब कांग्रेस ने भी पराजय को स्वीकार करते हुए मैदान छोड़ दिया।

भाजपा को सबसे जायदा बढ़त नेपानगर विधानसभा क्षेत्र से मिली, जहाँ उसने 35217 मतों के बड़े अंतर से से कांग्रेस को पछाड़ा। इसके बाद बड़वाह विधानसभा क्षेत्र से दूसरी बड़ी जीत 21045 मतों अंतर से भाजपा की रही। इसके बाद अपने गृहनगर बुरहानपुर में भाजपा प्रत्याशी ज्ञानेश्वर पाटिल ने 15811 मतों की बढ़त ली। बागली में यह अंतर 11208 था। भाजपा को खंडवा जिले के तीनों विधानसभा क्षेत्रों में कड़ा संघर्ष करना पड़ा। खंडवा में जहाँ 4869 मतों का ही फासला रहा, वहीं पंधाना में भी यह 4801 मतों का था। यहाँ की तीसरी विधानसभा मांधाता तो भाजपा को गंवानी ही पड़ी। यहाँ से कांग्रेस ने 8487 से बढ़त ली। वहीं भीखनगांव में भी कांग्रेस ने 2964 मतों के अंतर से जीत ली। इस तरह कुल मिलाकर भाजपा 82 हजार 140 मतों के अंतर से यह चुनाव जीतने में सफल रही।

हालाँकि पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा की जीत 2 लाख 73 हज़ार 343 मतों के प्रचण्ड बहुमत से हुई थी और मतों का 57.14 प्रतिशत भाजपा के खाते में था। इस बार उसकी जीत का आंकड़ा एक लाख को भी नहीं पार कर सका और 82 हजार पर सिमट गया। उसे मिलने वाले वोटों का प्रतिशत भी घटकर 49.81 प्रतिशत ही रह गया। इस तरह भाजपा के मतों में सीधे सीधे 7. 33% की कमी आई है। उधर, कांग्रेस को इस बार 43. 41% वोट मिले, जो पिछली बार के 38.52% के मुकाबले 4.89% ज़्यादा है।

चुनाव के ये परिणाम कांग्रेस और भाजपा दोनों के लिए गहरा सबक है। भाजपा यदि जनता के मूड को देखे तो उसे नाराज़गी साफ़ नज़र आएगी। आम जनता की अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतरने से उसके प्रतिबद्ध वोटर ने भाजपा को वोट देने के बजाए मतदान से ही दूरी बना ली। पिछले चुनाव के मुकाबले 13% कम मतदान इसका साफ प्रमाण भी है। भाजपा को मिलने वाले मतों में 7.33% की जो बड़ी गिरावट आई, वह परिवर्तन का सबब भी बन सकती है। खंडवा की स्थानीय समस्याएं और स्थानीय जनप्रतिनिधि की उदासीनता से लोगों का भाजपा से मोहभंग होता दिख रहा है। इसी तरह पंधाना में भी विधायक राम दांगोरे के लिए भी चुनाव के परिणाम खतरे की घंटी है। मांधाता में तो सालभर में ही हालात उलट गए, कांग्रेस से भाजपा में आए नारायण पटेल अपने मतदाताओं को संभाल नहीं पाए और यहाँ पराजय मिली।                                        IMG 20211103 WA0037

अब कांग्रेस की स्थिति देखे तो बीते दो दशकों में सबसे अनुकूल स्थितियां उसके लिए इस बार के इस उपचुनाव में थी। पेट्रोल-डीज़ल के साथ ही खाने के तेल में जो आग लगी हैं, उससे उपजे जन आक्रोश को भी कांग्रेस भुना नहीं पाई। खंडवा के स्थानीय प्रत्याशी का मुद्दा भी ज्यादा असरकारी नहीं रहा, अन्यथा खंडवा जिले में तीन विधानसभा क्षेत्रो में तो उसे बढ़त मिलती ही। सबसे बड़ा नुकसान कांग्रेस ने इस चुनाव में उठाया, वह भी अपने ही प्रतिबद्ध वोटर की उपेक्षा का। आमतौर पर अल्पसंख्यक समुदाय की थोकबंद वोटिंग कांग्रेस के लिए बहुत फायदेमंद रहती है। लेकिन, कांग्रेस ने बहुसख्यंक की नाराज़गी न झेलना पड़े, इसके लिए अपने ही वोट बैंक से दूरियां बना ली। इससे जहाँ बहुसंख्यक समुदाय तो उससे जुड़ा नहीं, जो जुड़ा था वह भी छूट गया। खंडवा और बुरहानपुर के अल्पसंख्यक बहुल क्षेत्रों में बहुत कम मतदान हुआ, जिससे कांग्रेस को सीधा नुकसान हुआ। चुनाव की रणनीति बनाने में असफ़ल रहने के साथ ही मैदानी जमावट में भी कांग्रेस पूरी तरह असफ़ल ही रही।

अपने ही कार्यकर्ताओं को साध न पाने की वजह से अनेक बूथ पर उसके एजेंट ही नज़र नहीं आए। कांग्रेस इस बार अपनी हार का ठीकरा भितरघात का आरोप लगाकर भी नहीं फोड़ सकती। सच बात तो यह है कि चुनाव जीतने की इच्छाशक्ति का अभाव ही कांग्रेस में दिख रहा था। वह बस भाग्य भरोसे बैठी रही कि महंगाई और बेरोजगारी, कोरोना त्रासदी को लेकर जनता भाजपा के खिलाफ मतदान करेगी और उसे यह सीट अपनी झोली में मिल जाएगी।

संस्कृत की उक्ति है :

उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः

यथा सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति न मुखेन मृगाः

(अर्थ- कार्य उद्यम करने से पूर्ण होते हैं, मन में इच्छा करने से नहीं। जैसे सोते हुए शेर के मुंह में मृग अपने आप प्रवेश नहीं कर जाते।)