Kissa-A-IAS: राजकुमार जिसने IAS बनने के लिए राजपरिवार त्यागा, चीतों को जीवन समर्पित!
डॉ एमके रणजीत सिंह झाला 1961 बैच के मध्य प्रदेश कैडर के पूर्व IAS अधिकारी रहे है। वे IAS अधिकारी बनने वाले शाही परिवार के पहले सदस्य थे। उन्हें भारत के चीता मानव के रूप में भी जाना जाता है। वे 1972 के वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम के वास्तुकार थे। उन्होंने भारत के जंगल का पोषण करने, अभूतपूर्व कानून विकसित करने, लुप्तप्राय प्रजातियों के लिए कार्रवाई करने और भारतीय वन्य जीवों के लिए एक क्रांति को सक्षम करने में 50 साल से अधिक वक़्त बिताया।
उन्हें देश के ‘चीता मानव’ के रूप में भी जाना जाता है। वे 1972 के वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम के वास्तुकार थे और उन्होंने भारत के जंगल का पोषण करने, अभूतपूर्व कानून विकसित करने, लुप्तप्राय प्रजातियों के लिए कार्रवाई करने और भारतीय वन्य जीवों के लिए एक क्रांति को सक्षम करने में 50 से अधिक साल बिताए।
हर किसी का सपना होता है कि उसका जन्म एक शाही परिवार में हो जहां उसे सारी सुख-सुविधाएं मिलें। लेकिन कुछ दुर्लभ लोग ऐसे भी होते हैं जो शाही परिवार के सदस्य के रूप में जन्म लेने के बावजूद समाज और दुनिया में सार्थक योगदान देने के लिए अपना सब कुछ त्याग देते हैं। इससे उनका नाम इतिहास के पन्नों में अंकित हो जाता है और आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा बन जाता है।
गुजरात के सौराष्ट्र के पूर्व वांकानेर शाही राजवंश के उत्तराधिकारी रणजीतसिंह अपनी शाही और भव्य जीवनशैली का त्याग करने के बाद 1961 में भारतीय प्रशासनिक सेवा में शामिल हुए। उन्हें मध्य प्रदेश कैडर आबंटित हुआ।
बचपन से ही उन्हें वन्य जीवन और उनके पालन-पोषण का बेहद शौक रहा है। IAS बनने के बाद, वह मध्य भारत से अत्यधिक लुप्तप्राय बारहसिंघा हिरण, रूसर्वस डुवाउसेली की रक्षा के लिए सबसे महत्वपूर्ण प्रयासों के प्रभारी बन गए।
वन्य जीव संरक्षण में योगदान
उनका अन्य प्रमुख योगदान भारत सरकार के वन और वन्यजीव उप सचिव के रूप में कार्य करते हुए 1972 का वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम लिखना था। उन्होंने राज्यों को राष्ट्रीय उद्यानों और अभयारण्यों के निर्माण के लिए केंद्र सरकार से वित्तीय सहायता देने की योजना बनाई। वह इस अधिनियम के तहत भारत में वन्यजीव संरक्षण के पहले निदेशक भी थे।
इसके बाद, वह उस टीम के सदस्य सचिव भी थे जिसने प्रोजेक्ट टाइगर बनाया, जो दुनिया की सबसे सफल संरक्षण पहलों में से एक थी। फिर, 1975 से 1980 तक, उन्होंने UNEP के बैंकॉक क्षेत्रीय कार्यालय में प्रकृति संरक्षण सलाहकार के रूप में कार्य करके अंतरराष्ट्रीय वन्यजीव क्षेत्र में भी भूमिका निभाई। भारत लौटने के बाद, उन्होंने 11 अभयारण्यों और आठ राष्ट्रीय उद्यानों का प्रबंधन किया।
उनके उल्लेखनीय योगदानों में से एक चीतों के प्रति है क्योंकि वह चीतों को पुन: उत्पन्न करने के आह्वान में सबसे आगे थे। ‘भारत में अफ्रीकी चीता परिचय परियोजना’ 2009 में स्थापित की गई थी, और औपचारिक रूप से 2020 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा पेश की गई थी और रणजीत सिंह को विशेषज्ञ समूह का नेतृत्व करने के लिए चुना गया था। उन्होंने वन्य जीवन पर विभिन्न प्रसिद्ध पुस्तकें भी लिखीं।
वन्य जीवों के प्रति उनके महत्वपूर्ण योगदान के लिए, उन्हें वन्यजीव संरक्षण में उनके काम के लिए 2014 में लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड मिला। उन्होंने वन्यजीव संरक्षण के निदेशक, भारतीय वन्यजीव ट्रस्ट (WTI) के अध्यक्ष, डब्ल्यूडब्ल्यूएफ बाघ संरक्षण कार्यक्रम (टीसीपी) के महानिदेशक आदि सहित कई पदों पर कार्य किया है।
वाइल्ड लाइफ कानून बनाने में इंदिरा गांधी ने मदद ली
अपने एक इंटरव्यू में उन्होंने भी कहा कि तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी उन्हें व्यक्तिगत रूप से जानती थी। कई बार वे उनसे मिले और वाइल्ड लाइफ कंजर्वेशन को लेकर केंद्र में जो नीतियां बनाई गईं, उसमें उनकी भी सलाह ली गई। जब केंद्र सरकार ने वाइल्डलाइफ प्रोटेक्शन कानून 1972 बनाया तो उसका मसौदा उन्होंने ही तैयार किया था। इसी के बाद कई वाइल्ड लाइफ सेंचुरीज बनाई गईं।
वाइल्ड लाइफ की कई किताबें लिखी
वे वाइल्ड ट्रस्ट ऑफ इंडिया के चेयरमैन तो रहे ही साथ वाइल्ड लाइफ से जुड़ी कई संस्थाओं के साथ भी काम किया। बाद में उन्होंने वाइल्ड लाइफ को लेकर एक चर्चित किताब लिखी ‘ए लाइफ विद वाइल्ड लाइफ-फ्राम प्रिंसले टू प्रजेंट!’ इससे देश में टाइगर को लेकर उनके काम से भी बहुत कुछ उनके बारे में जानने को मिला। इसके अलावा भी उन्होंने वाइल्ड लाइफ को लेकर कई किताबें लिखीं।
जब वे मध्य प्रदेश में तैनात थे तब यहां बारहसिंघा की प्रजाति बिल्कुल विलुप्त होने के करीब पहुंच गई थी। लेकिन, उनकी कोशिश से उसका संरक्षण हो सका। बाद में उन्होंने इस पर किताब भी लिखी ‘द इंडियन ब्लैकबक।’
नामीबिया से चीतों को लाने में भी भूमिका
जब नामीबिया से 8 चीतों को भारत में लाकर कुनो नेशनल पार्क में रखा गया, तो इसके पीछे भी उनकी ही लॉबिंग थी। उनकी वजह से उनका नाम तब खबरों में भी आया। ये सबको मालूम है कि चीता कई दशक पहले ही भारत से विलुप्त हो चुका था। 1947 में देश में तब चीता खत्म हो गए थे। 70 के दशक में ईरान से चीता लाने के लिए कोशिश शुरू की। लेकिन, ये मामला पहले आपातकाल लगने और फिर ईरान के शाह के वहां अमेरिका भाग जाने की वजह से पूरा नहीं हो सका था।
बता दे कि रणजीत सिंह धार जिले के कलेक्टर भी रहे हैं। वे अपने समय के क्रिकेट के भी बेहतरीन खिलाड़ी रहे है।