law and justice: न्याय न केवल होना चाहिए, बल्कि दिखना भी चाहिए!

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न्याय का एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है कि न्याय न केवल होना चाहिए बल्कि दिखना भी चाहिए। दुर्भाग्य से प्रकरणों में लगने वाले धन, समय एवं परेशानियों ने इस सिद्धांत को समाप्त प्रायः सा ही कर दिया है। आशा की जानी चाहिए कि संबंधित पक्ष समय रहते इस संबंध में ‘विचार मंथन’ कर ‘अमृत’ को निकालने में समर्थ हो सकेंगे। राष्ट्रीय न्यायिक डाटाग्रिड के अनुसार 15 सितम्बर 2021 तक भारत के अधीनस्थ न्यायालयों में प्राप्त जानकारी के अनुसार 37 लाख मामले पिछले दस सालों से विचाराधीन है।

 भारतीय न्याय व्यवस्था में अभी भी काफी सुधारों की आवश्यकता महसूस की जा रही है। अभी हाल ही में एक पक्षकार अपने दीवानी मामलों में परामर्श के लिए हमारे दफ्तर आए थे। परामर्श के बाद उनका एक स्वाभाविक प्रश्न था कि वकील साहब समय कितना लगेगा। हमारा स्वाभाविक उत्तर था कम से कम दस से पंद्रह साल। यह सुनकर उनके चेहरे पर आश्चर्य मिश्रित भाव उभरे और उन्हें धक्का सा लगा। लेकिन, कई मुकदमों में यह समयावधि अधिक भी होती है। दीवानी मुकदमों का संचालन दीवानी प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत होता है। पिछले कुछ सालों में इसमें काफी सुधार भी हुआ है। हालात कुछ सुधरे भी है। लेकिन, यह सुधार ‘आटे में नमक’ के बराबर ही है। अभी भी प्रक्रियात्मक कानूनों में सुधारों की काफी गुंजाइश है। फौजदारी कानूनों में भी कमोबेश यही स्थिति विद्यमान है।

भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधिपति न्यायमूर्ति रंजन गोगोई ने अभी कुछ समय पूर्व ही भारत की न्याय व्यवस्था को इस कदर जर्जर बताया था कि लोग न्यायालय में आकर पछताने लगते हैं। उनका यह भी कहना था कि न्यायालय आम आदमी की पहुंच से बाहर हो चुके हैं, यह केवल पैसे वालों और बड़ी-बड़ी कंपनियों के लोग ही न्यायालय में जाना चाहते हैं। न्यायमूर्ति गोगोई ने वर्तमान न्याय प्रणाली के काम न करने का सवाल भी उठाया तथा कहा कि इसके कई कारण है। उन्होंने न्यायाधीशों की नियुक्ति तथा उनके प्रशिक्षण में परिवर्तन की बात भी कहीं। उनका कहना था कि संबंधित पक्षों को हालात बदलने के लिए तुरंत कदम उठाना होंगे। न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया तथा विलंब को उन्होंने समस्या का एक महत्वपूर्ण कारण बताया।

अपने स्वयं के खिलाफ लगाए जाने वाले आरोपों के खिलाफ न्यायालय जाने के प्रश्न पर वे बोले कि अगर आप कोर्ट जाएंगे, तो यही होगा कि इन आरोपों पर आपकी कोर्ट में भी खिंचाई होगी और न्याय भी नहीं मिलेगा। न्यायमूर्ति गोगोई ने साफगोई और कडुआ सच बताते हुए कहा कि कोर्ट कौन जाता है। अगर आप न्यायालय जाएंगे तो पछताएंगे। न्यायमूर्ति गोगोई ने कहा कि हमारे पास एक जर्जर न्याय व्यवस्था है। जब सन् 2020 में न्यायपालिका सहित सभी संगठन सुस्त पड़ गए हैं तो अधीनस्थ न्यायालयों में साठ लाख और उच्च न्यायालयों में तीन लाख एवं सर्वोच्च न्यायालय में छः से सात हजार नए प्रकरण आ गए हैं। इसके लिए एक रोडमैप बनाना जरुरी है। उनका यह भी मानना है कि न्यायपालिका प्रभावी तरीके से काम करे, इसके लिए यह आवश्यक है। उनको यह भी लगता है कि इसके लिए शुरूआत भी की गई है।

भारत के एक पूर्व मुख्य न्यायाधीश को यदि यह लगता है तो निश्चित ही चिंता की बात है। यह प्रश्न तो है ही कि इस दिशा में उनके समय कितना काम हुआ! यदि नहीं हुआ तो उन्होंने इसके लिए क्या प्रयास किए गए। यदि नहीं हुए तो उसके लिए कौन जवाबदार है। राष्ट्रीय न्यायिक डाटाग्रिड के अनुसार 15 सितम्बर 2021 तक भारत के अधीनस्थ न्यायालयों में प्राप्त जानकारी के अनुसार 37 लाख मामले पिछले दस सालों से विचाराधीन है। 9,20,000 प्रकरण उच्च न्यायालयों में विचाराधीन है। लगभग 6,60,000 मामले बीस सालों से विचाराधीन है। तीस सालों से भी अधिक प्रकरण भी है जिनकी संख्या 1,31,000 है। किसी भी व्यवस्था के लिए यह चिंताजनक स्थिति है। अधीनस्थ न्यायालयों में तो लंबित मामले करोड़ में हैं। जबकि, उच्च न्यायालयों में लंबित मामले लाखों में और सर्वोच्च न्यायालय में लंबित मामले हजार में हैं।
इन आंकड़ों के निराकरण में सबसे महत्वपूर्ण कारण न्यायाधीशों की कमी है। अभी हाल ही में भारत के वर्तमान मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति एनवी रमन्ना ने 29 अप्रैल को उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों की 39वीं काॅफ्रेंस में बताया कि उच्च न्यायालयों में 126 न्यायाधीशों की नियुक्तियां हो चुकी है तथा 50 स्थानों की पूर्ति शीघ्र ही होने की उम्मीद कर रहे हैं। इसमें शीघ्र न्याय के लिए सूचना और प्रौद्योगिकी की आधारभूत संरचना तथा जिला न्यायालयों के भवनों के निर्माण पर भी चर्चा की गई। यह महत्वपूर्ण तथ्य है कि आज भी कई न्यायालयों में मूलभूत सुविधाओं का भी अभाव है। इसे जिला एवं सत्र न्यायालय इन्दौर में इसे साफ-साफ महसूस किया जा सकता है। वर्तमान में कंप्यूटर का उपयोग तेजी से बढ़ रहा है। लेकिन प्रशिक्षित स्टाॅफ की कमी है। इसके अलावा मुकदमें के एक पक्ष द्वारा विलंब कारित करना सबसे बड़ा कारण है। एक दिलचस्प तथ्य यह भी है कि प्राप्त आंकड़ों के अनुसार बड़ी आबादी के क्षेत्र में न्यायालयों पर कुछ कम तथा कम आबादी के क्षेत्र के न्यायालयों में अधिक मामले विचाराधीन है। ऐसा क्यों है, इस पर भी विचार जरुरी है।

न्यायालयों में जजों की कमी विचाराधीन मामलों के लिए मुख्य कारण है। सितम्बर 2021 तक प्राप्त जानकारी के अनुसार सर्वोच्च न्यायालयों में स्वीकृत संख्या से एक पद खाली था। लेकिन, उच्च न्यायालयों में कुछ स्वीकृत पदों में से 42 प्रतिशत पद खाली थे। अधीनस्थ न्यायालयों में 21 फीसदी पद खाली थे। प्रकरणों के अंबार के निपटान के लिए फास्ट ट्रेक और परिवार न्यायालयों का गठन किया गया। लेकिन, वहां भी स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। यहां भी प्रकरणों की संख्या तेजी से बढ़ी है। वहां भी यही हालत है। प्रकरण बढ़ रहे हैं तथा न्यायाधीशों की संख्या कम है। साथ ही अनेक पद रिक्त है। सन् 2019 तक देशभर में 4.8 लाख कैदी जेलों में बंद है, जिनमें 3.3 लाख मामले अंडर ट्रायल है।

न्यायाधीशों की नियुक्तियों में सर्वोच्च न्यायालय एवं केन्द्रीय सरकार के मध्य निरंतर टकराव चलता रहता है। विचाराधीन बड़ी संख्या के प्रकरणों के अंबार को देखते हुए सर्वोच्च न्यायालय, न्यायाधीशों की संख्या में वृद्धि करने के लिए आग्रह करता रहा है। लेकिन, नामों पर सहमति न होने से गेंद एक पाले से दूसरे पाले में दौड़ती रहती है। इस कारण भी न्यायाधीशों की नियुक्ति में विलंब होता है। यह स्थिति चिंताजनक है, जिसे तुरन्त सुधारा जाना चाहिए। प्रक्रियात्मक कानूनों में अविलंब सुधार अपेक्षित है। सर्वोच्च न्यायालय भी यह मान चुका है कि त्वरित सुनवाई का पक्षकार का अधिकार है और इस पर उचित समय के भीतर सुनवाई जरुरी है। इसके लिए एक कार्ययोजना प्रस्तुत करने के लिए भी कहा गया है।

इनके अलावा न्यायालयों में राजनीतिक एवं अन्य निजी लाभ के लिए प्रस्तुत याचिकाओं पर रोक भी आवश्यक है। छोटे मामले तथा कम रकम की अपीलों पर भी नियंत्रण किया जाना भी आवश्यक है। न्यायालयों के पास अंतरिम सहायता के प्रकरणों का भी अंबार है। इस कारण न्यायालयों को स्वाभाविक रूप से पुराने मामलों की अंतिम सुुनवाई के लिए समय नहीं मिल पाता है।

न्याय का एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है कि न्याय न केवल होना चाहिए बल्कि वह दिखना भी चाहिए। दुर्भाग्य से दिवानी एवं फौजदारी दोनों ही प्रकार के प्रकरणों में लगने वाले समय, धन एवं परेशानियों ने इस सिद्धांत को समाप्त प्रायः सा ही कर दिया है। कई बार तो पीढ़ियां ही बदल जाती है, लेकिन प्रकरणों का निराकरण नहीं हो पाता है। देश की न्याय व्यवस्था पर अकसर उंगलियां उठाई जाती है। यदि न्याय पाने के लिए इतना धन व समय और परेषानियां उठाना पड़े तो समूची न्याय व्यवस्था पर प्रश्नवाचक चिन्ह लगने के साथ ही उसकी छवि धूमिल होना ही है।

 यह आवश्यक है कि इस व्यवस्था को तत्काल सुधारा जाए। सरकार, सर्वोच्च न्यायालय एवं अभिभाषक संघों को इस संबंध में विचार मंथन कर प्रभावी कदम उठाने ही होंगे। अन्यथा लोगों के मन में आज भी न्याय की अंतिम आशा की किरण न्याय प्रणाली ही है, वह भी नष्ट हो जाएगी। उम्मीद की जाना चाहिए कि ऐसा नहीं होगा तथा समय रहते संबंधित पक्ष इस संबंध में विचार मंथन कर अमृत को निकालने में समर्थ हो सकेंगे।

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विनय झैलावत

लेखक : पूर्व असिस्टेंट सॉलिसिटर जनरल एवं इंदौर हाई कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता हैं