

Law and Justice: सर्वोच्च न्यायालय से राष्ट्रपति के तीखे सवाल और समाधान
● विनय झैलावत
अभी कुछ समय पूर्व सर्वोच्च न्यायालय ने राष्ट्रपति और राज्यपाल के लिए विधेयकों की मंजूरी के लिए समय सीमा तय की, जिस पर पूरे देश में चर्चा हुई। उप-राष्ट्रपति, सांसदों एवं राजनेताओं ने इस पर प्रश्नवाचक चिन्ह भी लगाया। एक दुर्लभ कदम के तहत, भारत की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 143 (1) के तहत सर्वोच्च न्यायालय को एक संदर्भ भेजा है। इसके तहत राष्ट्रपति द्वारा इस पर सर्वोच्च न्यायालय से इस पर राय मांगी कि क्या सर्वोच्च न्यायालय विधानमंडलों द्वारा पारित विधेयकों को मंजूरी देने के लिए राज्यपालों और राष्ट्रपति के लिए समय सीमा निर्धारित कर सकता है? संविधान का अनुच्छेद 143 (1) राष्ट्रपति को कानूनी और सार्वजनिक महत्व के मामलों में सर्वोच्च न्यायालय की राय लेने की अनुमति देता है।
सर्वोच्च न्यायालय को अब संदर्भ का उत्तर देने के लिए एक संविधान पीठ का गठन करना होगा। राष्ट्रपति मुर्मू ने सर्वोच्च न्यायालय के उस निर्देश पर सवाल उठाया है जिसमें कहा गया था कि विधेयकों को मंजूरी देने के लिए उसके द्वारा निर्धारित समय-सीमा का पालन न करने की स्थिति में मान ली गई सहमति होगी। संदर्भ में कहा गया है कि राष्ट्रपति और राज्यपाल की मान ली गई सहमति की अवधारणा संवैधानिक योजना से अलग है और राष्ट्रपति और राज्यपाल की शक्तियों को मौलिक रूप से सीमित करती है। राष्ट्रपति ने सर्वोच्च न्यायालय को उसकी राय के लिए 14 तीखे सवाल भेजे। इसमें इस बात पर जोर दिया है कि संविधान के अनुच्छेद 200 और 201, जो राज्यपालों और राष्ट्रपति द्वारा विधेयकों को मंजूरी देने की प्रक्रिया को नियंत्रित करते हैं, कोई समय-सीमा या विशिष्ट प्रक्रियात्मक आवश्यकताएँ निर्धारित नहीं करते हैं।
राष्ट्रपति ने जो सवाल उठाए उनमें पहला सवाल यह है कि जब राज्यपाल के समक्ष भारत के संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत कोई विधेयक प्रस्तुत किया जाता है, तो उसके समक्ष संवैधानिक विकल्प क्या हैं? दुसरा प्रश्न जब राज्यपाल के समक्ष भारत के संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत कोई विधेयक प्रस्तुत किया जाता है, तो क्या वह अपने पास उपलब्ध सभी विकल्पों का प्रयोग करते समय मंत्रिपरिषद द्वारा दी गई सहायता और सलाह से बाध्य है? तीसरा प्रश्न यह है कि क्या भारत के संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल द्वारा संवैधानिक विवेक का प्रयोग न्यायोचित है? चौथा प्रश्न, क्या भारत के संविधान का अनुच्छेद 361 भारत के संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल के कार्यों के संबंध में न्यायिक समीक्षा पर पूर्ण प्रतिबंध लगाता है? पांचवा प्रश्न संवैधानिक रूप से निर्धारित समय सीमा और राज्यपाल द्वारा शक्तियों के प्रयोग के तरीके के अभाव में, क्या राज्यपाल द्वारा भारत के संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत सभी शक्तियों के प्रयोग के लिए न्यायिक आदेशों के माध्यम से समय सीमा और प्रयोग के तरीके को निर्धारित किया जा सकता है?
अन्य प्रश्नों में क्या भारत के संविधान के अनुच्छेद 201 के तहत राष्ट्रपति द्वारा संवैधानिक विवेक का प्रयोग न्यायोचित है? संवैधानिक रूप से निर्धारित समय-सीमा और राष्ट्रपति द्वारा शक्तियों के प्रयोग के तरीके के अभाव में, क्या भारत के संविधान के अनुच्छेद 201 के तहत राष्ट्रपति द्वारा विवेक के प्रयोग के लिए न्यायिक आदेशों के माध्यम से समय-सीमाएँ लगाई जा सकती हैं और प्रयोग के तरीके को निर्धारित किया जा सकता है? राष्ट्रपति की शक्तियों को नियंत्रित करने वाली संवैधानिक योजना के प्रकाश में, क्या राष्ट्रपति को भारत के संविधान के अनुच्छेद 143 के तहत संदर्भ के माध्यम से सर्वोच्च न्यायालय से सलाह लेने और राज्यपाल द्वारा राष्ट्रपति की सहमति या अन्यथा के लिए विधेयक को आरक्षित करने पर सर्वोच्च न्यायालय की राय लेने की आवश्यकता है?
इसके अलावा यह भी राय मांगी गई है कि क्या भारत के संविधान के अनुच्छेद 200 और अनुच्छेद 201 के तहत राज्यपाल और राष्ट्रपति के निर्णय, कानून के लागू होने से पहले के चरण में न्यायोचित हैं ? क्या न्यायालयों के लिए किसी विधेयक की सामग्री पर, किसी भी तरह से, कानून बनने से पहले न्यायिक निर्णय लेना अनुमेय है? साथ ही क्या संवैधानिक शक्तियों का प्रयोग तथा राष्ट्रपतिध्राज्यपाल के आदेशों को भारत के संविधान के अनुच्छेद 142 के अंतर्गत किसी भी तरीके से प्रतिस्थापित किया जा सकता है ? इसके अलावा यह भी शामिल है कि क्या राज्य विधानमंडल द्वारा बनाया गया कानून भारत के संविधान के अनुच्छेद 200 के अंतर्गत राज्यपाल की स्वीकृति के बिना लागू कानून है?
राष्ट्रपति द्वारा यह भी पूछा गया है कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 145(3) के प्रावधान के मद्देनजर क्या इस न्यायालय की किसी भी पीठ के लिए यह अनिवार्य नहीं है कि वह पहले यह तय करे कि उसके समक्ष कार्यवाही में शामिल प्रश्न ऐसी प्रकृति का है जिसमें संविधान की व्याख्या के रूप में कानून के महत्वपूर्ण प्रश्न शामिल हैं और इसे कम से कम पांच न्यायाधीशों की पीठ को संदर्भित करे ? यह भी संदर्भित किया गया है कि क्या भारत के संविधान के अनुच्छेद 142 के अंतर्गत सर्वोच्च न्यायालय की शक्तियाँ प्रक्रियात्मक कानून के मामलों तक सीमित हैं या भारत के संविधान का अनुच्छेद 142 ऐसे निर्देश जारी करने/आदेश पारित करने तक विस्तारित है जो संविधान या लागू कानून के मौजूदा मूल या प्रक्रियात्मक प्रावधानों के विपरीत या असंगत हैं? इसके अलावा यह भी राय मांगी गई है कि क्या संविधान भारत के संविधान के अनुच्छेद 131 के तहत मुकदमे के माध्यम से छोड़कर केंद्र सरकार और राज्य सरकारों के बीच विवादों को हल करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय के किसी अन्य क्षेत्राधिकार पर रोक लगाता है?
अप्रैल में एक ऐतिहासिक फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने एक समय सीमा निर्धारित की थी जिसके भीतर राज्यपाल को राज्य विधानसभाओं द्वारा उनके समक्ष प्रस्तुत विधेयकों पर कार्रवाई करनी होगी। न्यायालय ने कहा था कि इस समय सीमा का पालन न करने पर न्यायालय द्वारा न्यायिक समीक्षा की जाएगी। जस्टिस जेबी पारदीवाला और आर महादेवन की पीठ ने कहा था कि हालांकि अनुच्छेद 200 के तहत कोई समय सीमा निर्धारित नहीं की गई है, लेकिन प्रावधान को इस तरह से नहीं पढ़ा जा सकता है कि राज्यपाल को विधेयकों के स्वीकृति के लिए उनके समक्ष प्रस्तुत किए जाने पर कार्रवाई न करने की अनुमति मिल जाए।
सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में यह भी कहा कि अनुच्छेद 201 के तहत राष्ट्रपति द्वारा किए गए कार्यों का निर्वहन न्यायिक समीक्षा के दायरे में आता है। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि राष्ट्रपति को ऐसे संदर्भ प्राप्त होने की तिथि से तीन महीने की अवधि के भीतर विधेयकों पर निर्णय लेना आवश्यक है और इस अवधि से अधिक देरी होने पर उचित कारण दर्ज करके संबंधित राज्य को सूचित करना होगा। तमिलनाडु सरकार द्वारा दायर एक मामले में पारित फैसले की उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ सहित कई लोगों ने आलोचना की थी। संविधान का अनुच्छेद 143(1) राष्ट्रपति को यह अधिकार देता है कि वे किसी भी महत्वपूर्ण कानूनी या संवैधानिक प्रश्न पर सर्वोच्च न्यायालय से परामर्श ले सकें। हालांकि, सर्वोच्च न्यायालय की यह राय बाध्यकारी नहीं होती, लेकिन इसका संवैधानिक महत्व काफी अधिक होता है। संविधान के अनुच्छेद 145(3) के तहत इस तरह की राय कम से कम पांच न्यायाधीशों की पीठ द्वारा दी जाती है। राष्ट्रपति ने यह संदर्भ 13 मई को भेजा, जिसमें कुल 14 कानूनी प्रश्न शामिल हैं।
इन प्रश्नों में न केवल विधेयकों पर निर्णय की समय सीमा से जुड़े मुद्दे शामिल हैं, बल्कि यह भी पूछा गया है कि सर्वोच्च न्यायालय को खुद यह पहले तय करना चाहिए या नहीं कि कोई मामला संविधान की व्याख्या से संबंधित है, जिससे उसे बड़ी पीठ को सौंपा जा सके। एक प्रश्न सर्वोच्च न्यायालय की अनुच्छेद 142 के तहत पूर्ण न्याय करने की शक्ति की सीमाओं को लेकर भी है। वहीं, अंतिम प्रश्न केंद्र और राज्यों के बीच विवादों की मूल सुनवाई के अधिकार क्षेत्र पर केंद्रित है कि क्या यह सिर्फ सर्वोच्च न्यायालय के पास है या अन्य अदालतों के पास भी?
इससे पहले भी सर्वोच्च न्यायालय ने कुछ मामलों में राय देने से इंकार किया है। सन् 1993 में राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद में जब मंदिर की पूर्व स्थिति पर राय मांगी गई थी, तब न्यायालय ने धार्मिक और संवैधानिक मूल्यों का हवाला देते हुए मना कर दिया था। सन् 1982 में पाकिस्तान से आए प्रवासियों के पुनर्वास से संबंधित एक कानून पर राय मांगी गई थी, लेकिन कानून पारित हो जाने और उस पर याचिकाएं दायर हो जाने से राय अप्रासंगिक हो गई थी। इस बार के मामले को लेकर यह आशंका भी उठी है कि कहीं राष्ट्रपति (सरकार) पहले से दिए गए सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को पलटना तो नहीं चाहतीं। हालांकि, सर्वोच्च न्यायालय पहले स्पष्ट कर चुका है कि अनुच्छेद 143 के तहत दी गई राय किसी न्यायिक निर्णय की समीक्षा या उसे पलटने का जरिया नहीं बन सकती। सन् 1991 में कावेरी जल विवाद में न्यायालय ने कहा था कि पहले दिए गए निर्णय पर दोबारा राय मांगना न्यायपालिका की गरिमा के खिलाफ है।
संपूर्ण विवाद कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच संतुलन की बहस को फिर से सामने लाता है। विपक्ष-शासित राज्यों में विधेयकों को राज्यपालों द्वारा लंबे समय तक रोककर रखने या अस्वीकार करने की घटनाओं से यह मुद्दा गरमाया है। तमिलनाडु के राज्यपाल ने ऐसे 10 विधेयकों को राष्ट्रपति के पास भेज दिया था। सर्वोच्च न्यायालय ने इस स्थिति को केंद्र और राज्य के संबंधों में असंतुलन बताया और समय सीमा जरूरी ठहराई। इसके बाद उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ और अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमणी ने सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी को कार्यपालिका की गरिमा के खिलाफ बताया। अब देखना यह होगा कि सर्वोच्च न्यायालय इस संवैधानिक मुद्दे पर क्या राय देता है और यह राय केंद्र-राज्य संबंधों और संविधान की व्याख्या को किस दिशा में ले जाएगी।