कानून और न्याय: विचारण न्यायाधीश और उनकी महत्वपूर्ण भूमिका

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कानून और न्याय: विचारण न्यायाधीश और उनकी महत्वपूर्ण भूमिका

 

सर्वोच्च न्यायालय ने विचारण न्यायालय की भूमिका पर जोर दिया है। एक प्रकरण में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि उनके समान ही विचारण न्यायालयों की भूमिका भारत के नागरिकों के मौलिक अधिकारों को सुरक्षित रखने की है। इस प्रकरण में सर्वोच्च न्यायालय ने हत्या के एक आरोपी की सजा इस आधार पर निरस्त कर दी कि प्रकरण में परिस्थितिजन्य साक्ष्य की पूरी श्रृंखला नहीं बन रही है।

सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में एक हत्या के एक आरोपी की सजा को इस आधार पर निरस्त कर दिया कि अंतिम बार देखे गए साक्ष्य, जिस पर दोषसिद्धी आधारित थी, परिस्थितिजन्य साक्ष्य की पूरी श्रृंखला बनाने में विफल रहा। अपील की अनुमति देते हुए, अदालत ने विचारण न्यायाधीष को मूकदर्षक की तरह कार्यवाही देखने के बजाय सच्चाई जानने के लिए मुकदमे में प्रभावी ढंग से भाग लेने के अपने कर्तव्य की याद दिलाई। इस संबंध में सर्वोच्च न्यायालय ने भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 165 का हवाला दिया, जो विचारण न्यायाधीश को विचारण के दौरान सवाल पूछने का अधिकार देता है। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि हमें डर है कि बचाव पक्ष की जिरह में कमजोरी को इंगित करके पीठासीन न्यायाधीश अप्रत्यक्ष रूप से विचारण में ही कमजोरी को स्वीकार करते हैं। अधिनियम की धारा 165 के तहत, एक विचारण न्यायाधीश के पास किसी भी रूप में, किसी भी समय, किसी भी गवाह से या पक्षकारों से प्रासंगिक या अप्रासंगिक किसी भी तथ्य के बारे में पूछने के लिए जबरदस्त शक्तियां हैं। वास्तव में ऐसा करना विचारण न्यायाधीश का कर्तव्य है, अगर यह महसूस किया जाता है कि कुछ महत्वपूर्ण प्रष्न एक गवाह से पूछे जाने से रह गए थे। मुकदमे का उद्देष्य आखिरकार मामले की सच्चाई तक पहुंचना है।

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा यह भी कहा गया कि एक आपराधिक मुकदमे के पीठासीन न्यायाधीश का कर्तव्य कार्यवाही को एक दर्शक या रिकाॅर्डिंग मशीन के रूप में देखना नहीं है, बल्कि उन्हें सच्चाई का पता लगाने के लिए गवाहों से सवाल पूछकर बुद्धिमत्तापूर्ण सक्रिय रूचि पैदा करके परीक्षण में भाग लेना है।‘ सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया और न्यायमूर्ति संजय कुमार की खंडपीठ ने कहा कि हमारे विचार में, वर्तमान मामले में अभियोजन पक्ष अपने मामले को उचित संदेह से परे साबित करने में सक्षम नहीं रहा है। अंतिम बार साथ देखने का प्रमाण केवल एक बिंदु तक ले जाता है। यह पूरी साक्ष्य श्रृंखला बनाने और जोड़ने में विफल रहता है। हमारे पास यहां केवल अंतिम बार देखे जाने का साक्ष्य है। अंतिम बार देख जाने और मृत्यु के संभावित समय के बीच की लंबी अवधि के कारण, मामले की परिस्थितियों में इसका वजन बहुत कम हो जाता है। अधिनियम की धारा 27 के तहत यह साक्ष्य अपने आप में अपीलकर्ता पर दोष तय करने के लिए पर्याप्त नहीं है।

अपीलकर्ता (आरोपी) पर अन्य एक सह-आरोपी के साथ वर्ष 2000 में एक व्यक्ति के अपहरण और हत्या का आरोप लगाया गया था। विचारण न्यायालय ने दोनों अभियुक्तों को भारतीय दंड संहिता की धारा 302, धारा 364, धारा 392, धारा 394, धारा 201 और धारा 34 के तहत अपराध के लिए दोषी ठहराया और धारा 302 भारतीय दंड संहिता के तहत आजीवन कारावास की सजा सुनाई। पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने अपीलकर्ता (आरोपी) द्वारा दायर अपील को खारिज कर दिया तथा विचारण न्यायालय की दोषसिद्धी और सजा को यथावत रखा। इसलिए अपीलकर्ता (आरोपी) ने सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष अपील दायर की थी। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि अभियोजन का मामला पूरी तरह से परिस्थितिजन्य साक्ष्य और अंतिम बार देखे गए ‘‘साक्ष्य‘‘ और अपीलकर्ता द्वारा दी गई जानकारी से की गई खोजों पर आधारित है। अभियोजन का मामला दो परिस्थितिजन्य साक्ष्यों पर आधारित है।
सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि परिस्थितिजन्य साक्ष्य के मामले में, मकसद भी महत्वपूर्ण होता है। जहां तक मकसद का सवाल है तो अभियोजन का मामला यह है कि दोनों आरोपियों ने मृतक का ट्रैक्टर चोरी करने के लिए ही उसकी हत्या की थी। इस मामले में मृतक 6 फीट 2 इंच ऊंचाई का 42 वर्षीय सुगठित व्यक्ति था। अभियोजन पक्ष का कहना है कि दोनों अभियुक्तों ने ट्रैक्टर के लिए मृतक का अपहरण कर हत्या कर दी। अब इस ट्रैक्टर को अभियुक्तों ने वैसे भी छोड़ दिया था और इसे वापस लेने के लिए तब तक कुछ नहीं किया जब तक कि उनमें से एक को पकड़ नहीं लिया गया। इससे स्पष्ट है कि मकसद बहुत विष्वसनीय नहीं है। अदालत ने कहा कि जिन तथ्यों के कारण कुछ खुलासे हुए, वे सह-अभियुक्त द्वारा की गई पिछली खोज में पुलिस को पहले से ही ज्ञात थे। सह-अभियुक्त के संकेत पर की गई खोजों को वर्तमान अपीलकर्ता के खिलाफ नहीं पढ़ जा सकता है।
यदि अभियुक्त द्वारा पुलिस की हिरासत में रहते हुए खुलासा किया गया है और इस तरह से एक तथ्य का पता चलता है, तो उस खोज को अधिनियम की धारा 27 के संदर्भ में आरोपी के खिलाफ सबूत के रूप में पढ़ा जा सकता है। न्यायालय ने यह भी कहा कि मृत्यु के 90 घंटे के बाद शरीर में कठोरता आना असामान्य है, हालांकि कुछ परिस्थितियों में संभव है और इसे स्पष्ट करना अभियोजन पक्ष का कर्तव्य था। सर्वोच्च न्यायालय ने आगे कहा कि बचाव पक्ष इस पर सवाल उठाने में विफल रहा और विचारण न्यायालय भी चुप रही।
न्यायालय ने कहा कि अंतिम बार देखा गया साक्ष्य कमजोर आधार पर है। अंतिम बार देखे जाने और मृतक की मृत्यु के समय के बीच के लंबे अंतराल को देखते हुए, साक्ष्य अधिनियम 1872 की धारा 106 वर्तमान मामले के तथ्यों और परिस्थितियों पर लागू नहीं होता है। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि आरोपी पर अपराध का आरोप स्थापित करने के लिए, साक्ष्य की श्रृंखला को पूरा किया जाना चाहिए। श्रृंखला को एक और केवल एक निष्कर्ष की ओर इषारा करना चाहिए। यह केवल अभियुक्त है जिसने अपराध किया है और कोई नहीं। अभियोजन पक्ष इस बोझ का निर्वहन करने में सक्षम नहीं रहा है। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि इस मामले में अभियोजन पक्ष द्वारा पेष किए गए साक्ष्य परिस्थितिजन्य साक्ष्य के मामले में आवष्यक मानकों को पूरा नहीं करते हैं। इस विवेचना के आधार पर सर्वोच्च न्यायालय ने अपीलकर्ता पर लगाए गए दोषसिद्धि और सजा को रद्द कर दिया और उसे तत्काल रिहा करने का निर्देश दिया। यह पहली बार नहीं है जब सर्वोच्च न्यायालय ने विचारण न्यायालय की जिम्मेदारी पर कोई टिप्पणी या कोई निर्देश दिए हों। इसके पहले भी न्यायप्रणाली को उनकी जिम्मेदारी के लिये उच्चतम न्यायालय द्वारा निर्देश दिए हैं।
सर्वोच्च न्यायालय ने एक प्रकरण में कहा है कि निचली अदालतों की भूमिका पर जोर देते हुए आपराधिक अदालत प्रक्रिया के दुरूपयोग को रोकने के बारे में कहा कि सर्वोच्च न्यायालय के समान ही मजिस्ट्रेट और ट्रायल जजों की भारत के नागरिकों के मौलिक अधिकारों को सुरक्षित रखने की जिम्मेदारी है। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि, निजी शिकायत प्राप्त होने पर, मजिस्ट्रेट को सबसे पहले जांच करनी चाहिए कि क्या निजी षिकायत में लगाए गए आरोप, अन्य बातों के साथ, छोटी मुकदमेबाजी का उदाहरण तो नहीं। उसके बाद, षिकायतकर्ता के मामले का समर्थन करने वाले सबूतों की जांच करना और उसे इकट्ठा करना चाहिए। भारतीय संविधान और दण्ड प्रक्रिया संहिता के तहत ट्रायल जज का कर्तव्य है, प्रारंभिक अवस्था में तुच्छ मुकदमेबाजी की पहचान करना और उसका निपटारा करना, पर्याप्त रूप से विचारण न्यायालय इसके लिए शक्तियां और अधिकार प्राप्त है।
पीठ ने कहा कि इस तरह के मामलों में अन्याय को रोकने में ट्रायल कोर्ट और मजिस्ट्रेट की महत्वपूर्ण भूमिका है। वे आपराधिक न्याय प्रणाली की अखंडता, और पीड़ित और व्याकुल वादियों की रक्षा की पहली पंक्ति है। हम इस बात पर विचार कर रहे हैं कि ट्रायल कोर्ट के पास ट्रायल के बाद आरोपी व्यक्ति को न केवल बरी या दोषी ठहराने का फैसला करने की शक्ति है। इसके साथ ही फिट मामलों में आरोपी को डिस्चार्ज करने की शक्ति है और ट्रायल के चरण तक पहुंचने से पहले ही तुच्छ मुकदमों को खत्म करने का भी कर्तव्य है। यह न केवल लोगों के धन की बचत होगी और इसके साथ ही न्यायिक समय को बचाएगा, बल्कि स्वतंत्रता के अधिकार की भी रक्षा करेगा जो कि प्रत्येक व्यक्ति भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत हकदार हैं। इस संदर्भ में, सर्वोच्च न्यायालय के समान ही मजिस्ट्रेट और ट्रायल जजों की भारत के नागरिकों के मौलिक अधिकारों को सुरक्षित रखने की जिम्मेदारी है। न्यायसंगत मुकदमेबाजी को और अधिक प्रभावी बनाना न्याय प्रणाली की दिशा में यह एक महत्वपूर्ण कदम है। खंडपीठ ने यह भी कहा कि भारत में न्याय विरण प्रणाली में बैकलाॅग से ग्रस्त है।

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विनय झैलावत

लेखक : पूर्व असिस्टेंट सॉलिसिटर जनरल एवं इंदौर हाई कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता हैं