![IMG_20220321_151745](https://mediawala.in/wp-content/uploads/2022/03/IMG_20220321_151745.jpg)
Law And Justice:आखिर न्यायालयों में कामकाज की भाषा हिंदी क्यों नहीं!
Law And Justice;भारतीय भाषाओं के क्षेत्र में आज भी सर्वोच्च एवं उच्च न्यायालयों की अधिकृत भाषा अंग्रेजी का होना भारतीय परिप्रेक्ष्य में निश्चित ही अपनी राष्ट्रभाषा एवं अन्य भारतीय भाषाओं के प्रति हमारी अपेक्षा को दर्शाता है। इस संबंध में हमें अबू धाबी से प्रेरणा लेना चाहिए। अरब अमीरात के न्यायालय में अरबी और अंग्रेजी के साथ हिन्दी को भी मान्यता दी गई है।
आजादी के इतने बरसों के बाद आज भी यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि न्यायालयों के काम-काज, बहस और निर्णयों की भाषा अंग्रेजी है। अधीनस्थ न्यायालयों में काम-काज हिन्दी एवं भारतीय भाषाओं में होता है, लेकिन उच्चतम न्यायालयों एवं उच्च न्यायालयों की अधिकृत भाषा आज भी अंग्रेजी ही है।
आमतौर पर इन न्यायालयों में अंग्रेजी भाषा में ही बहस होती है तथा निर्णय भी अंग्रेजी में ही दिए जाते हैं। सर्वोच्च न्यायालय में जो न्यायाधीश हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाएँ जानते हैं, उनके द्वारा भी अधीनस्थ न्यायालयों के निर्णय एवं हिन्दी के अन्य दस्तावेजों का अनुवाद प्रस्तुत करने के लिए आदेश दिया जाता है। निश्चित ही यह दुःखद स्थिति है जिसमें पक्षकार के प्रकरण की सुनवाई में अधिक समय तथा धन व्यय होता है।
किसी भी देश में आजादी के बाद अपनी राष्ट्रभाषा की उपेक्षा का यह अभिनव उदाहरण है। बरसों-बरस मुकदमें में अपना तन, मन, धन और समय लगाने के बाद एक अनपढ़ अथवा अंग्रेजी न जानने वाले पक्षकार को अंत में एक फैसला मिलता है जो अंग्रेजी में होता है। इस पढ़ने के लिए ऐसे पक्षकार को किसी अभिभाषक अथवा अंग्रेजी जानने वाले कानूनी जानकार की आवष्यकता होती है।
भारत में ऐसे पक्षकारों की कमी नहीं है जो अनपढ़ है अथवा अंग्रेजी नहीं समझ पाते है। हालाकि, यह संतोष की बात है कि सर्वोच्च न्यायालय ने कुछ ही समय पूर्व अपने फैसले हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओं में उपलब्ध कराने की व्यवस्था की है। यह भी खुशी की बात है कि मध्यप्रदेश सहित कुछ हिन्दी राज्यों के उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों ने पूर्ण अथवा आंशिक रूप से फैसले हिन्दी में देने की शुरूआत की है।
इनमें नई पीढ़ी के न्यायाधीश भी सम्मिलित है। आज आवश्यकता इस बात की है कि सर्वोच्च न्यायालय में हिन्दी जानने वाले न्यायाधीश अपने फैसले हिंदी में दे तथा हिन्दी न जानने वाले न्यायाधीशों के फैसले का हिन्दी में अनुवाद उपलब्ध हो। साथ ही सर्वोच्च न्यायालय एवं उच्च न्यायालय की भाषा अंग्रेजी के साथ हिन्दी तथा कुछ अन्य भारतीय भाषाएँ भी होनी चाहिए। साथ ही न्यायाधीशों को भी बहस में हिन्दी भाषा को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
इसके साथ यह भी आवश्यक है कि इस न्यायालयों अंग्रेजी भाषा कुछ बरसों तक ही उपयोग में लाने की व्यवस्था की जानी चाहिए। निर्धारित समयावधि के बाद न्यायक्षेत्र एवं न्यायालयों की भाषा केवल हिन्दी तथा निर्धारित अन्य भारतीय भाषाएँ होनी चाहिए।
इस संबंध में संयुक्त अरब अमीरात में अबू धाबी से सीखने की आवश्यकता है। इस देश में भारतीय जनता बड़ी संख्या में है। उन्होंने आमलोगों के लिए न्याय की भाषा अरबी, अंग्रेजी तथा हिन्दी को अपने न्यायालयों के लिए अधिकारिक भाषा घोषित की है। भारत के लिए यह बेहतरीन उदाहरण हो सकता ह।
हमारी न्याय व्यवस्था को इससे सबक सीखने की आवश्यकता है। अरबी तथा अंग्रेजी न जानने वालों के लिए यह आदर्श व्यवस्था है। भारत में भी ऐसी ही व्यवस्था अंगीकार की जा सकती हे।
भारत में भी हिन्दी, कुछ भारतीय भाषाएँ तथा कुछ बरसों के लिए अंग्रेजी को स्वीकार किया जा सकता है। अबू धाबी में अदालतों में पक्षकार हिन्दी में कार्यवाही कर सकेंगे। भारत में भी हिन्दी तथा भारतीय भाषाओं में पक्षकारों को मुकदमे की कार्यवाही, अधिकारों और कर्तव्यों के बारे में पारदर्शी ढंग से मदद हो सकेगी।
दुर्भाग्य से भारत की नौकरशाही अंग्रेजों की न्याय व्यवस्था को कायम रखने हेतु अडिग है। इसमें जितनी बाधाऐं उपस्थित हो सकती हैं उसमें कोई कमी नहीं छोड़ रही है। आजादी के बाद यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि न्यायपालिका के सभी तरह के काम-काज राष्ट्रभाषा एवं आम लोगों की भाषा में हो। लेकिन भारत जैसे प्रजातांत्रिक देष में आज भी अंग्रेजी को प्राथमिकता तथा आग्रह दुर्भाग्यपूर्ण है। भारत जैसे देषों में जहां बहुसंख्यक आबादी कम पढ़ी अथवा गांवों में रहने वाली है, वहां यह स्थिति चिंताजनक है। शासकीय षिक्षा व्यवस्था भी चिंताजनक है।
अधिकांष शासकीय विद्यालयों में पढ़ाई का माध्यम भी हिन्दी अथवा स्थानीय भाषाऐं हैं। इस कारण अनपढ़ अथवा इन स्थानीय भाषाओं के माध्यमों से पढ़ी आम जनता एवं छात्र तेजी से पिछड़ रहे हैं। ये छात्र उन छात्रों से पिछड़ रहे हैं जो अंग्रेजी माध्यम एवं पब्लिक स्कुलों अथवा निजी विद्यालयों से निकले हैं। इस वातावरण के कारण इन विद्यार्थियों के मध्य एक विभाजन की गहरी रेखा खींच रही है।
इस स्थिति में इन सभी विद्यार्थियों की न्यायिक, सामाजिक सांस्कृतिक, आर्थिक व शैक्षाणिक पहलुओं पर गंभीर विचार किया जाना आवश्यक है। अंग्रेजी भाषा का अपना महत्व है। लेकिन जिस देश की राष्ट्रभाषा हिन्दी हो वहां न्यायालयों में हिन्दी की उपेक्षा को किसी भी प्रकार से सही नहीं ठहराया जा सकता है। जिस भाषा में न्यायालयीन कार्यवाही की भाषा को आम जनता समझ ही न सके, जहां दिन-प्रतिदिन के काम की भाषा उसकी अपनी भाषा हो वहां हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओं को अधिकृत रूप से मान्यता देनी होगी।
पक्षकार भी न्यायालयों में दस्तावेजों में निहित अर्थ समझने में स्वयं को असमर्थ पाते हैं। न्याय की भाषा हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाओं के बनने से आम भारतीय जनता को कानूनी प्रक्रिया, उनके अधिकार तथा शर्तें जानने और समझने में आसानी होगी। साथ ही अंग्रेजी के अनुवाद कराने की बाध्यता समाप्त होने से समय एवं धन की बचत भी होगी। निश्चित ही इससे न्याय व्यवस्था में पारदर्शिता भी आएगी।
आज आवश्यकता इस बात की है, कि हिन्दी तथा भारतीय भाषाओं के महत्व को न्याय जगत में प्राथमिकता दी जाए। आज न्यायालयों में भारतीय भाषाओं में काम करने वाले व्यक्ति को अलग दृष्टिकोण से देखा जाता है। लेकिन, यह संतोष की बात है कि इन सब के बाद भी कुछ व्यक्ति एवं अभिभाषकों ने विपरीत परिस्थितियों में भी हिन्दी में उच्च मापदणें का पालन करते हुए न्यायालयों में हिन्दी में काम किया है। इसी का परिणाम है कि आज न्याय जगत में भी धीरे-धीरे हिन्दी के पक्ष में वातावरण बन रहा है तथा हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं में काम करने एवं मान्यता देने की बात होने लगी है।
——————
![WhatsApp Image 2021 10 25 at 10.13.34 AM WhatsApp Image 2021 10 25 at 10.13.34 AM](https://mediawala.in/wp-content/uploads/2021/10/WhatsApp-Image-2021-10-25-at-10.13.34-AM-120x120.jpeg)
विनय झैलावत
लेखक : पूर्व असिस्टेंट सॉलिसिटर जनरल एवं इंदौर हाई कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता हैं