कानून और न्याय: कानूनी सुधारों के लिए विधि आयोग का गठन सही कदम!
यह भारत सरकार का एक विलंब से उठाया गया लेकिन एक सही कदम है। एक अर्से से बाईसवें विधि आयोग के गठन की मांग की जा रही थी। इस संबंध में सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष एक लोकहित याचिका भी विचाराधीन है। इस आयोग को महत्वपूर्ण विषयों पर विचार करना है। सबसे पहले तो समान नागरिक संहिता जैसा गंभीर विषय उसके समक्ष विचार हेतु आएगा। इसको वैधानिक स्वरूप देने की मांग भी की जा रही है।
सात नवम्बर को केन्द्र सरकार ने कर्नाटक उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीष न्यायमूर्ति रितु राज अवस्थी के अध्यक्षता में भारत के 21वें विधि आयोग का गठन किया है। केन्द्र ने तीन सदस्यों को भी आयोग के सदस्य के रूप में नियुक्त किया है। भारत का विधि आयोग, 21वें आयोग के अध्यक्ष, सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति बीएस चैहान के सेवानिवृत्त होने के बाद 31 अगस्त, 2018 से खाली पड़ा हुआ था। विधि आयोग के गठन में हो रही देरी के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका लंबित है। हाल ही में केंद्र ने सर्वोच्च न्यायालय से कहा था कि समान समान नागरिक संहिता का मामला आयोग के गठित होते ही उसके समक्ष रखा जाएगा।
सर्वोच्च न्यायालय में विधि आयोग को एक वैधानिक निकाय बनाने के निर्देश की मांग वाली याचिका का विरोध करते हुए भारत सरकार ने न्यायालय में कहा था कि 22वें विधि आयोग के अध्यक्ष और सदस्य की नियुक्ति विचाराधीन है, लेकिन भारत के विधि आयोग को वैधानिक बनाने के लिए कोई प्रस्ताव विचाराधीन नहीं है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत अधिवक्ता अश्विनी कुमार उपाध्याय द्वारा दायर एक रिट याचिका में हलफनामा दायर किया गया है। इस याचिका में केंद्र को भारतीय विधि आयोग के अध्यक्ष और सदस्यों को नियुक्त करने और इसे एक वैधानिक निकाय बनाने का निर्देश देने की मांग की गई है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इस मामले में 25 जनवरी 2021 को नोटिस जारी किया गया था। केंद्र सरकार ने कहा कि याचिका में उठाया गया मुद्दा स्पष्ट रूप से शक्ति के पृथक्करण के सिद्धांत से बाहर है।
इसके अलावा सरकार वर्तमान में भारत के विधि आयोग के अध्यक्ष और सदस्यों की नियुक्ति के संबंध में मामले को विचार-विमर्श के लिए ले चुकी है तथा कार्यवाही विचाराधीन है। भारत सरकार ने तर्क दिया कि याचिका विचार योग्य नहीं है। वर्तमान याचिका के माध्यम से याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि संविधान के संरक्षक और मौलिक अधिकारों के रक्षक होने के नाते न्यायालय आवश्यक नियुक्तियों के लिए अपनी संवैधानिक शक्ति का उपयोग कर सकता है। याचिका में कहा गया है कि चूंकि विधि आयोग सितम्बर 2018 से काम नहीं कर रहा है, इसलिए केंद्र सरकार को कानून के विभिन्न पहलुओं पर इस विशेष निकाय की उन सिफारिशों का लाभ नहीं मिल पा रहा है, जो आयोग को इसके अध्ययन और सिफारिशों के लिए सौंपे गए हैं। याचिका में जोर दिया गया कि भारत का विधि आयोग केंद्र, सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों को कानून और न्यायिक प्रशासन से संबंधित किसी भी विषय पर अपने विचार रखता है।
आयोग बताता है और विदेशों में अनुसंधान प्रदान करने के अनुरोधों पर भी विचार करता है। विधि आयोग गरीबों की सेवा में कानून और कानूनी प्रक्रिया का उपयोग करने के लिए आवश्यक सभी उपाय करता है। साथ ही सामान्य महत्व के केंद्रीय अधिनियमों को संषोधित भी करता है। ताकि उन्हें सरल बनाया जा सके और विसंगतियों, अस्पष्टताओं और असमानताओं को दूर किया जा सके। विधि आयोग अब तक देश के कानून के प्रगतिशील विकास और संहिताकरण की दिशा में महत्वपूर्ण योगदान देने में सक्षम रहा है। अब तक आयोग 277 रिपोर्ट प्रस्तुत कर चुका है।
भारत में विधि आयोग की पृष्ठभूमि भी महत्वपूर्ण रही है। भारतीय विधि आयोग न तो एक संवैधानिक निकाय है और न ही वैधानिक निकाय। यह भारत सरकार के आदेश से गठित एक कार्यकारी निकाय है। इसका प्रमुख कार्य है, कानूनी सुधारों के लिए कार्य करना। आयोग का गठन एक निर्धारित अवधि के लिए होता है और यह विधि और न्याय मंत्रालय के लिये परामर्शदाता निकाय के रूप में कार्य करता है। इसके सदस्य मुख्यतः विधि विशेषज्ञ होते हैं। भारत में कानूनी सुधार एक सतत प्रक्रिया रही है। प्राचीन समय में जब धार्मिक और प्रथागत कानून का बोलबाला था तो उसमें समय सुधार प्रक्रिया तदर्थ थी और उन्हें यथोचित रूप से गठित विधि सुधार एजेंसियों द्वारा संस्थागत नहीं किया जाता था। लेकिन, 19वीं शताब्दी के तीसरे दशक से समय-समय पर सरकार द्वारा विधि आयोग गठित किये गए और कानून की उन शाखाओं में जहां सरकार को आवश्यकता महसूस हुई, वहां स्पष्टीकरण, समेकन और संहिताकरण के लिए विधायी सुधारों की सिफारिश करने के लिये उन्हें सशक्त किया गया।
प्रथम आयोग वर्ष 1834 और 1833 के चार्टर एक्ट के तहत लार्ड मैकाले की अध्यक्षता में गठित किया गया था। इसने दंड संहिता और दंड प्रक्रिया संहिता को संहिताबद्ध करने की सिफारिश की थी। इसके बाद द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ विधि आयोग, जो क्रमशः वर्ष 1853, 1861 और 1879 में गठित किये गए थे, ने 50 वर्ष की अवधि में उस समय प्रचलित अंग्रेजी कानूनों के पैटर्न पर, जिन्हें कि भारतीय दषाओं के अनुकूल किया गया था, कि व्यापक किस्मों से भारतीय विधि जगत को समृद्ध किया। भारतीय नागरिक प्रक्रिया संहिता, भारतीय संविदा अधिनियम, भारतीय साक्ष्य अधिनियम, संपत्ति अंतरण अधिनियम आदि प्रथम चार विधि आयोगों का परिणाम है। भारत सरकार ने स्वतंत्र भारत का प्रथम विधि आयोग वर्ष 1955 में भारत के तत्कालीन अटाॅर्नी जनरल एमसी सीतलवाड की अध्यक्षता में गठित किया गया था।
यदि हम देखे तो विधि आयोग केंद्र सरकार द्वारा इसे संदर्भित या स्वतः किसी मुद्दे पर कानून में शोध या भारत में विद्यमान कानूनों की समीक्षा तथा उनमें संशोधन करने और नया कानून बनाने के लिए सिफारिश करता है। न्याय वितरण प्रणाली में सुधार लाने हेतु यह अध्ययन और शोध का कार्य भी करता है ताकि प्रक्रिया में देरी को समाप्त किया जा सके। मामलों का त्वरित निपटारा हो और मुकदमों के खर्च में कमी पर भी आयोग विचार करता है। अप्रचलित कानूनों की समीक्षा/निरसन ऐसे कानूनों की पहचान करना जो अब प्रासंगिक न हों और अप्रचलित तथा अनावश्यक कानूनों के निरसन की सिफारिश करना। कानून और गरीबी गरीबों को प्रभावित करने वाले कानूनों का परीक्षण करता है और सामाजिक आर्थिक विधानों के लिये पश्च लेखा-परीक्षा का कार्य करता है। उन नए कानूनों के निर्माण का सुझाव देता है जो नीति-निर्देशक तत्वों को लागू करने और संविधान की प्रस्तावना में तय उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिये आवश्यक है।
न्यायिक प्रशासन कानून और न्यायिक प्रशासन से सम्बद्ध किसी विषय, जिसे कि सरकार ने विधि और न्याय मंत्रालय (विधि कार्य विभाग) के मार्फत विशेष रूप से विधि आयोग को संदर्भित किया हो, पर विचार करना और सरकार को इस पर अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत करना। शोध किसी बाहरी देष को शोध उपलब्ध कराने हेतु निवेदन पर विचार करना जिसे सरकार ने विधि और न्याय मंत्रालय (विधि कार्य विभाग) के मार्फत इसे संदर्भित किया हो। लैंगिक समानता को प्रोत्साहित करने की दृष्टि से मौजूदा कानूनों की जांच करना और उनमें सुझाना। खाद्य सुरक्षा और बेरोजगारी पर वैश्वीकरण के प्रभाव की जांच करना और वंचित वर्ग के लोगों के हितों के लिये उपाय सुझाना।
समय-समय पर सभी मुद्दों, मामलों, अध्ययनों और अनुसंधानों जो कि इसके द्वारा लिए गए थे, पर रिपोर्ट तैयार करना और केन्द्रीय सरकार को प्रस्तुत करना तथा ऐसी रिपोर्टों में ऐसे प्रभावी उपायों की सिफारिश करना जिन्हें केंद्र और किसी राज्य द्वारा अपनाया जाना है। ऐसे अन्य कार्यों का निष्पादन करना जिन्हें समय-समय केंद्र सरकार द्वारा इसे सौंपा जाए। अपनी सिफारिशों को ठोस रूप देने से पहले आयोग नोडल मंत्रालय/विभाग और ऐसे अन्य हितधारकों से परामर्श करता है, जिसे आयोग इस उद्देश्य के लिए आवश्यक समझे। भारत के विधि आयोग ने अभी तक विभिन्न मुद्दों पर 277 प्रतिवेदन प्रस्तुत किए हैं, उनमें से कुछ सुधारात्मक प्रतिवेदन है।
पश्चिमी लोकतांत्रिक देशों में विधि आयोग एक विधिक निकाय है। यदि इस आयोग को विधिक दर्जा दिया जाता है तो यह केवल संसद के प्रति जवाबदेह होगा, न कि कार्यपालिका के प्रति। इसके अलावा किसी भी आयोग की कार्यक्षमता में सुधार के लिए निरंतरता बेहद आवश्यक होती है। विधि आयोग का कार्यकाल तीन वर्ष का है, प्रत्येक कार्यकाल की समाप्ति और अगले आयोग की नियुक्ति मध्य काफी अंतराल होता है। विधि आयोग के सदस्यों की नियुक्ति भी केवल अध्यक्ष से परामर्श के पश्चात ही की जानी चाहिये। वर्तमान व्यवस्था में सदस्यों की नियुक्ति को लेकर कई बार भेदभाव और पक्षपात आरोप लगते रहे हैं।
विनय झैलावत
लेखक : पूर्व असिस्टेंट सॉलिसिटर जनरल एवं इंदौर हाई कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता हैं