झूठ बोले कौआ काटे! मेरा शहर छोड़, हर जगह बरसात हुई

झूठ बोले कौआ काटे! मेरा शहर छोड़, हर जगह बरसात हुई

अबकी सावन में शरारत ये मेरे साथ हुई, मेरा शहर छोड़कर हर जगह बरसात हुई

सुप्रसिद्ध कवि गोपाल दास ‘नीरज’ की पंक्तियों में इस तरह छेड़छाड़ करके मेरे अभिन्न मित्र वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप भटनागर ने अपने शहर का दर्द व्यक्त करते हुए सोशल मीडिया पर आगे लिखा, ‘इन दिनों हर जगह बाढ़ आई हुई है और प्रयागराज में सूखा पड़ा है। …कोढ़ में खाज यह है कि प्रयागराज में पानी न्यूनतम भी नहीं बरसा, लेकिन दुनिया जहान के पानी से गंगा-यमुना में बाढ़ आ गई है। शहर के निचले इलाकों तक पानी पहुंचने लगा है।’ सत्य है, पूरी दुनिया में एक छोर से लेकर दूसरे छोर तक पानी ने तबाही मचा रखी है, तो वहीं, देश के कुछ राज्य, कुछ जगह ऐसे हैं जहां लोग बारिश को तरस रहे हैं, सूखे ने दस्तक दे दी है।

मूसलाधार बारिश, बाढ़ और भूस्खलन से अमेरिका से लेकर जापान और भारत तक जल-प्रलय मचा हुआ है। सड़कें तालाब में तब्दील हो चुकी हैं, पुल टूट गए हैं, सैकड़ों घर तबाह हो गए हैं। हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, गुजरात, जम्मू-कश्मीर, दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान समेत कई हिस्सों में अनेक स्थानों पर बस पानी ही पानी है। वहीं दक्षिण भारतीय राज्य महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना भी जमकर भीग रहे हैं।

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मौसम विभाग की मानें तो पूर्वी मध्य भारत सहित उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश के हिस्सों में आज भारी से बहुत भारी बारिश देखने को मिल सकती है। वहीं, पूर्वी भारत के हिस्सों में 28 से 30 जुलाई के बीच भारी से बहुत भारी बारिश हो सकती है।

दूसरी ओर, देश का एक तिहाई हिस्सा सुखाड़ की ओर बढ़ रहा है। देश में सबसे कम बारिश वाले राज्य में उत्तरप्रदेश का नाम भी शामिल है। राज्य के 31 जिलों में अभी तक झमाझम बारिश का इंतजार है। प्रदेश में 13 जिले ऐसे हैं, जहां अभी तक 40 से 60 प्रतिशत ही बारिश हुई है, 7 जिलों में 40 फीसदी कम बारिश हुई है। बिहार में भी मानसून अभी रुठा ही हुआ है। पूरे राज्य में सामान्य से 41 फीसदी कम बारिश हुई है। वहीं, राज्य के 22 जिले ऐसे हैं जहां 40 फीसदी कम बारिश हुई है। झारखंड में 45 प्रतिशत कम बारिश होने की वजह से राज्य सूखे में जैसे स्थिति है। देश के चार सबसे कम बारिश वाले राज्यों में मेघालय का नाम भी शामिल है। वो मेघालय, जहां भारत में सबसे अधिक बारिश होती है। यहां मासिनराम और चेरापूंजी ऐसी जगहें है जो सबसे अधिक वर्षा के लिए जाने जाते हैं।

सबसे अधिक बुरा हाल उपजाऊ माने जाने वाले गंगा के मैदानी क्षेत्र का है, जहां धान की रोपनी बहुत पीछे चल रही है। हालांकि राष्ट्रीय स्तर पर पिछले वर्ष की तुलना में धान की रोपाई 21 जुलाई तक 4.73 लाख हेक्टेयर में ज्यादा हो चुकी है। फिर भी देश के लगभग दो सौ जिलों में कम एवं असामान्य वर्षा की स्थिति है। धान की खेती को पानी की ज्यादा जरूरत होती है। केरल के कई इलाके 31 फीसदी बारिश की कमी से जूझ रहे है। यहां बारिश बहुत ही कम हुई है।

झूठ बोले कौआ काटेः

बाढ़ के पानी में डूबे गांव-शहर या सूखाड़, प्रकृति की नाराजगी की बानगी नहीं तो और क्या हैं? प्रकृति के काम में मनुष्य के बेजा दखल के विरुद्ध प्रकृति की यह नाराजगी मानसून को ही असामान्य नहीं बना रही, इसके चलते कहीं भूस्खलन हो रहे हैं, कहीं हिमस्खलन तो कहीं एक के बाद एक बादल फटने की घटनाएं। निस्संदेह, इन सबके पीछे हमारी विलासितापूर्ण जीवन शैली भी है। इस शैली के लोभ में हमने विकास के जिस मॉडल को चुना है, उसमें प्रदूषण उगलते कारखाने, सड़कों पर वाहनों के सैलाब, वातानुकूलन की संस्कृति, जंगलों के कटान व पहाड़ों से निर्मम व्यवहार ने जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग को जन्म दिया है।

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ग्लोबल वार्मिंग जिस रफ्तार से बढ़ रही है उसमें 60 प्रतिशत से ज्यादा योगदान विकसित देशों का ही है। पृथ्वी को हानिकारक पराबैंगनी किरणों से बचाने वाली ओजोन परत में ब्लैक होल बनने लगे हैं। हालत अगर यही रहे तो हो सकता है कि सन् 2050 के बाद आर्कटिक में बर्फ ढूंढने से भी न मिले।

आंकड़ों की माने तो 19वीं सदी के बाद से पृथ्वी की सतह का तापमान 3 से 6 डिग्री तक बढ़ गया है। एशिया में तापमान 50 डिग्री तक पहुंच चुका है। तापमान परिवर्तन के चलते ही जलवायु परिवर्तन नई करवट ले रहा है। मेडिकल पत्रिका लेंसेट की एक रिपोर्ट के अनुसार जलवायु परिवर्तन की वजह से दुनिया को हुए कुल नुकसान का 99 प्रतिशत हिस्सा भारत सरीखे निम्न आय वाले देश में हुआ।

प्रातःकाल ‘सूर्य देवो भवः, वृक्ष देवो भवः’ मंत्र का जाप करने वाले हमारे देश के वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा में 16 प्रतिशत की वृद्धि हो चुकी है, क्योंकि हम पांच टन सीसा और 10 टन पारा प्रति वर्ष वायुमंडल में उड़ेलते हैं। रासायनिक उर्वरकों के अत्यधिक इस्तेमाल से हमारी जमीन बांझ बन गई है और उत्पादन 30 प्रतिशत कम हो गया है।

संयुक्त राष्ट्र के क्लाइमेट चेंज पैनल ने कहा है कि वर्ष 2035 तक हिमालय के ग्लेशियर सूख जाएंगे और गंगा-यमुना जैसी नदियों के प्रवाह से भारत वंचित हो जाएगा। हिमालय में हिमपात कम हो रहा है। एवरेस्ट की हिलेरी स्टेप की चट्टानें कम बर्फबारी के कारण नंगी दिखाई देती है।

ग्लोबल वार्मिंग के निवारण के लिए पेड़ों की अंधाधुंध कटाई पर रोक लगानी चाहिए, प्लास्टिक का उपयोग कम करना चाहिए, इलेक्ट्रॉनिक और बिजली से चलने वाले उपकरणों का उपयोग कम करना होगा। गैर पारंपरिक उर्जा स्रोतों पर ध्यान देना चाहिए, ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लिए आवश्यक दिशा निर्देश बनाने चाहिए। सरकार और अन्य संगठनो को ग्लोबल वार्मिंग के बारे लोगों को जागरूक करना चाहिए।

ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन के खतरों से निपटने के लिए हमें जल प्रबंधन पर भी ध्यान देना होगा। वाटर हार्वेस्टिंग, जलाशयों का निर्माण एवं संरक्षण के साथ ही नदी जोड़ो परियोजना को भी अमलीजामा पहनाना होगा।

बोले तो, देश की कुछ नदियों में आवश्यकता से अधिक पानी रहता है तथा अधिकांश नदियां ऐसी हैं जो बरसात के मौसम के अलावा वर्षभर सूखी रहती हैं या उनमें पानी की मात्रा बेहद कम रहती है। ब्रह्मपुत्र जैसी जिन नदियों में पानी अधिक रहता है, उनसे लगातार बाढ़ आने का खतरा बना रहता है। राष्ट्रीय नदी-जोड़ो परियोजना जल अधिशेष वाली नदी घाटी (जहां बाढ़ की स्थिति रहती है) से जल की कमी वाली नदी घाटी (जहां जल के अभाव या सूखे की स्थिति रहती है) में अंतर-घाटी जल अंतरण परियोजनाओं के माध्यम से जल के हस्तांतरण की परिकल्पना करती है।

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1999 में एनडीए सरकार बनने के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने नदी जोड़ो परियोजना पर काम शुरू किया। हालांकि, 2004 में एनडीएन सरकार जाते ही यह योजना फिर ठंडे बस्ते में चली गई। 2012 में सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को निर्देश दिए कि वह इस परियोजना पर समयबद्ध तरीके से अमल करे। जिससे इसकी लागत और न बढ़े। कोर्ट ने योजना पर अमल के लिए एक उच्च स्तरीय समिति भी बनाई।

मोदी सरकार ने नदी जोड़ो अभियान को अपनी प्राथमिकता में रखा है। सरकार का मकसद सूखा और बाढ़ की समस्या को खत्म करना है। साथ ही किसानों के पानी के मामले में आत्मनिर्भर बनाना है ताकि वो सिर्फ मानसून पर ही निर्भर न रहें। मोदी सरकार ने इस प्रोजेक्ट का जिम्मा राष्ट्रीय जल विकास प्राधिकरण को सौंपा है। प्राधिकरण की मॉनिटरिंग का जिम्मा केंद्रीय जल संसाधन मंत्री को सौंपा गया है।

और ये भी गजबः

हमारी पृथ्वी के चारों ओर का वायुमंडल एक कांच की खिड़की की तरह है जो सूर्य से आने वाले अधिकांश विकिरण को पृथ्वी के धरातल तक प्रवेश करने तो देता है, किन्तु पृथ्वी द्वारा वापस भेजे जाने वाले लंबे विकिरण को अंतरिक्ष में जाने से रोकता है। बाहर जाने वाले इस लंबे अवरक्त (इंफ्रारेड) विकिरण को ग्रीनहाऊस गैस द्वारा अवशोषित कर लिया जाता है जो कि वायुमंडल में साधारण रूप में मौजूद रहती हैं। वायुमंडल पुनः इसके कुछ भाग को वापस पृथ्वी पर भेजता है। विकिरण का यही वापसी प्रवाह ग्रीनहाऊस प्रवाह कहलाता है जो कि पृथ्वी को गर्म रखता है।

इस प्रकार वायुमंडलीय ग्रीनहाऊस गैस पृथ्वी के ऊपर एक कंबल की तरह काम करती है जो पृथ्वी से बाह्य अंतरिक्ष को भेजी जाने वाली ऊष्मा को नियंत्रित करती है ताकि पृथ्वी की गर्मी को स्वास्थ्य की दृष्टि बरकरार रखा जा सके। यह अद्भुत स्थिति ही ग्रीनहाऊस प्रभाव कहलाती है। पृथ्वी का औसत वार्षिक तापमान लगभग 15° C है। यदि ग्रीनहाऊस गैस न हों तो पृथ्वी का तापमान गिरकर लगभग 20°C हो जाएगा। पृथ्वी को गर्म रखने की वायुमंडल की यह क्षमता ग्रीनहाऊस गैसों की उपस्थिति पर निर्भर करती है। यदि इन ग्रीनहाऊस गैसों की मात्रा में वृद्धि हो जाए तो ये पराबैंगनी (अल्ट्रावॉयलेट) किरणों को अत्यधिक मात्रा में अवशोषित कर लेंगी। परिणामस्वरूप ग्रीनहाऊस प्रभाव बढ़ जाएगा जिससे वैश्विक तापमान में अत्यधिक वृद्धि हो जाएगी। तापमान में वृद्धि की यह स्थिति ही ग्लोबल वार्मिंग कहलाती है।

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रामेन्द्र सिन्हा
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