झूठ बोले कौआ काटे: गयासुर लेटा तो 5 कोस में फैल गया, वही है गया
– रामेन्द्र सिन्हा
मैंने इसी पौष मास में पौराणिक-ऐतिहासिक नगरी ‘गया’ जाकर पितरों का श्राद्ध और पिंडदान किया। अंधविश्वासी नहीं हूं, परंतु तीन दिवसीय इस कर्मकांड का दूसरा दिवस पूरा होते-होते, साथ गए हम तीनों भाइयों की इच्छा सिर मुंडवाने की हो गई, क्यों? कोई दबाव नहीं था। सिर नहीं मुंडवाते तब भी कोई पंडा-पंडित, आचार्य क्या कर लेता?
खैर, बात पिंडदान और गया से शुरू हुई है तो पहले थोड़ी चर्चा इनके महात्म्य की। माना जाता है कि गया धाम में पिंडदान करने से 108 कुल और 7 पीढ़ियों का उद्धार होता है। ब्रह्माजी के 7 पुत्रों ने सबसे पहले गया की पुण्य भूमि में ही पिंडदान किया था, जो आज भी जारी है।
गरुड़ पुराण के आधार काण्ड में गया की उत्पत्ति का रोचक उल्लेख है। इसके अनुसार जब ब्रह्मा जी सृष्टि की रचना कर रहे थे, उस समय असुर कुल में गया नाम के एक असुर की उत्पत्ति हुई। उसने किसी असुर स्त्री की कोख से जन्म नहीं लिया था, इसलिए उसमें असुरों वाली कोई प्रवृत्ति नहीं थी। ऐसे में उसने सोचा कि यदि वह कोई बड़ा काम नहीं करेगा तो उसे अपने कुल में सम्मान नहीं मिलेगा। यह सोचकर वह भगवान विष्णु की कठोर तपस्या करने लीन हो गया। कुछ समय पश्चात गयासुर की कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने उसे साक्षात दर्शन दिया और उसे वरदान मांगने को कहा।
गयासुर ने भगवान विष्णु से कहा कि आप मेरे शरीर में साक्षात वास करें ताकि जो मुझे देखे उसके समस्त पाप नष्ट हो जाएं, वह जीव पुण्य आत्मा हो जाए। उसे स्वर्ग में स्थान मिले। इसके बाद लोग बिना भय के पाप करने लगे और गयासुर के दर्शन मात्र से पाप मुक्त होने लगे। गयासुर के इस वरदान के कारण स्वर्ग में भी काफी भीड़ बढ़ गई।
मान्यता है कि इस वरदान के कारण यमलोक सूना रहने लगा। परेशान होकर यमराज ने जब ब्रह्मा-विष्णु-महेश को बताया कि गयासुर के इस वरदान के कारण पापी व्यक्ति भी बैकुंठ जाने लगे हैं। इसलिए कोई उपाय कीजिए, जिससे इस पर रोक लग सके। तब ब्रह्माजी ने गयासुर से कहा कि आप परम पवित्र हैं इसलिए, देवता चाहते हैं कि वे आपकी पीठ पर यज्ञ करें। गयासुर इसके लिए तैयार हो गया। गयासुर जब लेटा तो वह पांच कोस में फैल गया। कहते हैं कि इसी पांच कोस में गया फैला हुआ है। गयासुर के शरीर को स्थिर करने के लिए देवताओं द्वारा उनकी पीठ पर एक बड़ा सा पत्थर रखा गया। यह पत्थर प्रेत शिला कहलाता है।
मान्यता के अनुसार, गायसुर के इस समर्पण से विष्णु भगवान ने उसे वरदान दिया कि अब से यह स्थान जहां उसके शरीर पर पत्थर रखा गया वह गया के नाम से जाना जाएगा। यह भी मान्यता है कि खुद भगवान नारायण ने अपना दाहिना पैर गयासुर के ऊपर रखा है। जिस कारण, यहां के प्रसिद्ध विष्णुपद मंदिर में लोग दूर-दूर से दर्शन और तर्पण करने आते हैं।
गरुण पुराण के अनुसार भगवान राम और माता सीता ने भी यहां राजा दशरथ का पिंडदान किया था। गरुण पुराण में उल्लिखित एक कथा के अनुसार भगवान राम माता सीता और लक्ष्मण जी के साथ पिता राजा दशरथ का पिंडदान करने के लिए गया आए थे। वह पिंडदान की सामग्री एकत्रित करने के लिए चले गए और सीता जी फल्गु नदी के किनारे बैठकर उनके आने का इंतजार कर रही थीं। लेकिन, तभी राजा दशरथ जी की आत्मा ने पिंडदान करने की मांग की। ऐसे में सीता जी ने फल्गु नदी के साथ वटवृक्ष, केतकी के फूल और गाय को साक्षी मानकर बालू का पिंड बनाकर पिंडदान कर दिया था।
कुछ देर बाद जब राम और लक्ष्मण जरूरी सामान लेकर आए, तो सीता ने कहा कि पिंडदान तो हो चुका है। लेकिन श्रीराम ने कहा कि बिना सामान पिंडदान कैसे हुआ? इसपर सीता जी ने कहा कि गाय, फल्गु नदी, कौआ, केतकी और बरगद के पेड़ से पूछ लीजिए। जब भगवान श्रीराम ने इन सबसे पूछा तो उनके क्रोध के भय से बरगद को छोड़ कर सभी गवाह मुकर गए। इसके बाद सीता ने गाय को श्राप दिया कि पूजनीय होकर भी तुम्हें इधर-उधर भटकना पड़ेगा। फल्गु नदी को श्राप दिया कि पवित्र होकर भी तुम सूख जाओगी, केतकी के फूल को श्राप दिया कि अब तुम्हें पूजा में इस्तेमाल नहीं किया जाएगा। श्रीराम-सीता की स्थापित 48 पिंडी आज भी गया में मौजूद है। पहले गया में अलग-अलग नामों की कुल 360 वेदियां थी, जहां पिंडदान किया जाता था।
सीता सीता के श्राप के कारण ही फल्गु नदी की जल धारा अंदर ही अंदर प्रवाहित होती है और उसे अंत: सलिला कहा जाता है। बरसात के दिनों में भी फल्गु में पानी का जमाव नहीं होता है। यद्यपि, रबर डैम बना कर बिहार सरकार ने गत सितंबर माह से गंगा नदी का पानी फल्गु में पहुंचा दिया है। तो, अब फल्गु का अंतः सलिला स्वरूप गया में लुप्त हो चुका है।
झूठ बोले कौआ काटेः
गयासुर और राजा दशरथ को पिंडदान की कथा तर्क-विज्ञान की कसौटी पर भले ही मिथक प्रतीत हो, आस्था और श्रद्धा की कसौटी पर ऐसे अनुष्ठान दिखाई देने की तुलना में अधिक तर्कसंगत हो सकते हैं। लगभग हर भारतीय घर में भगवान की वेदी के सामने प्रतिदिन एक दीपक जलाया जाता है। कुछ घरों में इसे भोर में जलाया जाता है, कुछ में, दिन में दो बार और कुछ में इसे लगातार रखा जाता है – अखंड दीप। सभी शुभ कार्य दीप प्रज्वलित करने के साथ शुरू होते हैं। बल्ब या ट्यूबलाइट क्यों नहीं जलाते? वह भी अंधकार को दूर करेगा। लेकिन पारंपरिक तेल के दीये का एक आध्यात्मिक महत्व है। दीपक में तेल या घी हमारे वासना या नकारात्मक प्रवृत्तियों का प्रतीक है और बाती, अहंकार का। आध्यात्मिक ज्ञान से प्रकाशित होने पर, वासना धीरे-धीरे समाप्त हो जाती है और अहंकार भी अंततः नष्ट हो जाता है।
इसी प्रकार, Hindu Rituals and Routines, Why do we follow them? में बताया गया है कि हम घर में मंदिर कक्ष या स्थान की व्यवस्था क्यों रखते हैं? क्योंकि, वहां की गई नियमित पूजा, ध्यान और जप के माध्यम से संचित आध्यात्मिक विचार और स्पंदन प्रार्थना कक्ष में व्याप्त हो जाता है। हम कितने भी थके हुए या व्याकुल हों, उपासना स्थल पर कुछ देर ध्यान करने मार् से, हम शांत, कायाकल्प और आध्यात्मिक रूप से उन्नत महसूस करते हैं।
हम माथे पर तिलक क्यों लगाते हैं? तिलक भौंहों के बीच के स्थान को ढकता है, जो स्मृति और सोच का आसन है। इसे योग की भाषा में आज्ञा चक्र के नाम से जाना जाता है। संपूर्ण शरीर विद्युत चुम्बकीय तरंगों के रूप में ऊर्जा का उत्सर्जन करता है – माथे और भौंहों के बीच का सूक्ष्म स्थान विशेष रूप से। इसलिए, चिंता गर्मी पैदा करती है और सिरदर्द का कारण बनती है। तिलक माथे को ठंडक देते हैं, हमारी रक्षा करते हैं और ऊर्जा हानि को रोकते हैं। तिलक हमें हमारे संकल्प की याद भी दिलाता है।
हम भस्म क्यों लगाते हैं? किसी भी जली हुई वस्तु की राख को पवित्र विभूति नहीं माना जाता है। भस्म यज्ञ अग्नि की राख है, जहां विशेष लकड़ी के साथ घी और अन्य जड़ी-बूटियां भगवान की पूजा के रूप में चढ़ाई जाती हैं, या अभिषेक के रूप में राख डालकर देवता की पूजा की जाती है और फिर भस्म के रूप में वितरित की जाती है। भस्म शब्द का अर्थ है, “वह जिससे हमारे पाप नष्ट हो जाते हैं और भगवान का स्मरण किया जाता है।” भा निहित भर्त्सनम (“नष्ट करने के लिए”) और स्म का अर्थ स्मरणम (“याद रखना”) है। इसलिए भस्म का प्रयोग बुराई के विनाश और परमात्मा के स्मरण को दर्शाता है।
भोग लगाने से पहले भगवान को भोग क्यों लगाते हैं? जीवन में हमें अपने कर्मों के फल के रूप में जो मिलता है, वह वास्तव में उसी सर्वशक्तिमान ईश्वर प्रदत्त है। भोग लगाने के पीछे भाव है “तेरा तुझको अर्पण”। मैं आपको वह प्रदान करता हूं जो आपका है।हम उपवास क्यों करते हैं? उप का अर्थ है “निकट” और वास का अर्थ है “रहना”। इसलिए उपवास का अर्थ (भगवान) के पास रहना है, जिसका अर्थ है भगवान के साथ घनिष्ठ मानसिक निकटता प्राप्त करना। फिर उपवास का भोजन से क्या लेना-देना?
हम मंदिर में घंटी क्यों बजाते हैं? क्या यह भगवान को जगाने के लिए है? लेकिन प्रभु कभी नहीं सोते। क्या यह प्रभु को यह बताने के लिए है कि हम आए हैं? उसे बताने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि वह सब कुछ जानता है। क्या यह उसके परिसर में प्रवेश करने की अनुमति मांगने का एक रूप है? या, यह घर वापसी है तो, इसके लिए किसी अनुमति की आवश्यकता नहीं है। भगवानहर समय हमारा स्वागत करते हैं। दरअसल, घंटी बजने से वह ध्वनि उत्पन्न होती है जिसे शुभ ध्वनि माना जाता है। यह ध्वनि उत्पन्न करता है ओम, भगवान का सार्वभौमिक नाम। आरती करते समय भी हम घंटी बजाते हैं। यह कभी-कभी शंख और अन्य वाद्य यंत्रों की शुभ ध्वनियों के साथ होता है। घंटी, शंख और अन्य वाद्य यंत्रों को बजाने का एक अतिरिक्त महत्व यह है कि वे किसी भी अशुभ या अप्रासंगिक शोर और टिप्पणियों को नजरअंदाज करने में मदद करते हैं जो उपासकों को उनकी भक्ति की तीव्रता, एकाग्रता और आंतरिक शांति में परेशान या विचलित कर सकते हैं।
ऐसी अनेक क्रियाएं और अनुष्ठान लोग वांछित परिणाम प्राप्त करने के इरादे से करते हैं। उद्देश्य अपनी चिंता को कम करने से लेकर अपने आत्मविश्वास को बढ़ाने तक का हो सकता है। मनोवैज्ञानिकों द्वारा किया गया शोध दर्शाता है कि अनुष्ठानों का लोगों के विचारों, भावनाओं और व्यवहारों पर एक कारणात्मक प्रभाव हो सकता है।
तो, जब गया में हम तीनों भाई पारिवारिक मित्र परिवार संग फल्गु तट पर पितरों का पिंडदान-तर्पण अनुष्ठान प्रारंभ करके दो दिनों में प्रेतशिला, ब्रहम सरोवर, राम कुंड, धर्मारण्य, सीता कुंड और विष्णुपद मंदिर में पूजा-पाठ में लीन हुए तो आचार्य रवि पांडेय ने अपने प्रवचनों से हमारी कर्तव्यनिष्ठा और श्रद्धा में भक्ति की लौ को भड़का दिया। पितरों मे लीन कर दिया। तीसरे दिन सुबह सिर मुंडवा कर जैसे हम और गौरवान्वित-संतुष्ट महसूस कर रहे थे। हमने मुंडप्रिष्ठा, धौतपद,, आदि गदाधर, वैतरणी, और अक्षय वट पर पूजन-पिंडदान और अंत मे ब्राह्मण भोज के साथ श्राद्ध अनुष्ठान को संपन्न किया। सत्य है कि श्राद्ध (या धर्म का पालन) श्रद्धा की बात है और भारत में हिंदू धर्म सिर्फ एक धर्म नहीं है। यह जीवन का एक तरीका है।
और हां, हमने स्फटिक के शिवलिंग और बोध गया में विश्व प्रसिद्ध महाबोधि मंदिर का दर्शन-भ्रमण भी किया जहां बोधि वृक्ष के नीचे भगवान बुद्ध ने ज्ञान प्राप्त किया था।
और ये भी गजबः
एक किवदंती ये भी प्रचलित है कि गयासुर को भगवान विष्णु ने बुरे कर्म करने वालों को मोक्ष देने से रोकने के लिए पाताल लोक जाने को कहा, इसके लिए भगवान श्रीहरि ने गयासुर की छाती पर पैर रख दिया। इससे गयासुर धरती के भीतर चला गया। आज भी गयासुर के शरीर पर विष्णु पद चिन्ह है, उसी जगह पर विष्णु पद मंदिर है। ये पदचिन्ह 9 प्रतीकों से युक्त है, जिसमें शंख, चक्र और गदा शामिल है। धरती के अंदर समाहित गयासुर ने भगवान विष्णु से अपने लिए आहार की याचना की, तो भगवान ने कहा कि यहां हर दिन कोई ना कोई तुम्हें पित्तरों के तर्पण के लिए भोजन करा जाएगा। विष्णुपद मंदिर का 1787 में इंदौर की महारानी अहिल्या बाई ने पुनरूद्धार करवाया था।a