Mango Things : ‘आम’ के बहाने बदलती दुनिया की कुछ खास बातें!

पेड़ पर आम के पकने का इंतज़ार अब कौन करता है!

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Mango Things : ‘आम’ के बहाने बदलती दुनिया की कुछ खास बातें!

खंडवा के वरिष्ठ जय नागड़ा का कॉलम

बाज़ार आम से पटा हुआ है, लेकिन बेस्वाद … अच्छे आम की तलाश में आज भरी दोपहर में फ्रूट मार्केट में भी हो आये, बादाम, केसर, लाल पट्टा सभी था दिखने में ख़ूबसूरत लेकिन खाने में लगा कि पहले वाली बात नहीं है …. फ्रूट के एक पुराने व्यापारी से पूछा कि ऐसा क्यों हो रहा है? जवाब मिला कच्चे आम को केमिकल से पकाने में वह ऊपर से पीला तो दिखने लगता है लेकिन उसके गुण नहीं आ पाते … पेड़ पर पकने का इंतज़ार अब कौन करता है! सबको जल्दी है? व्यापारी को पैसा खड़ा करने की जल्दी है तो ग्राहक को भी अच्छे बुरे की समझ नहीं है!

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शाम को बिटिया नेहा से बात हो रही थी, जो एक मल्टीनेशनल कम्पनी में टेलेन्ट इक्विज़ेशन की ज़िम्मेदारी देखती है , कह रही थी कि कम्पनी अब सिर्फ आईआईटी, आईआईएम या किसी बड़े संस्थान की डिग्रियों पर प्लेसमेंट नहीं करती बल्कि यह देखती है कि जिसे बहुत बड़े पैकेज पर अपॉइंट किया जा रहा है वह मल्टीटास्किंग है या नहीं? ज़ाहिर है कंपनियों को परफॉर्म करने वालों की ज़रुरत है बजाय डिग्रीधारियों के … उसने यह भी कहा कि अब जॉब में वे ही ज़्यादा सफ़ल हो रहे है जिनका स्कूलिंग बेहतर हुआ है , जिन्होने सिर्फ नंबर लाने पर नहीं बल्कि पूरी पर्सनाल्टी डेवलेपमेंट पर ध्यान दिया है। स्कूल में सीखी बहुत सी बातें यहाँ व्यावहारिक रूप से काम में आ रही है। तक़रीबन यही बात छोटी बिटिया यशस्वी ने भी कही जो बॉश (Bostch) में यूएक्स एक्सपर्ट के बतौर सेवारत है।
आप सोचेंगे ये दोनों बातों का आपस में क्या साम्य? आम के स्वाद से प्लेसमेंट का क्या सम्बन्ध? हाँ, एक बहुत गहरा सम्बन्ध है क्वालिटी का, गुणवत्ता का!
यह सच है कि हमारे समाज में सब को हर बात की ज़ल्दी है , मामला खानपान का हो या कॅरियर का … फ़ास्टफूड संस्कृति के दुष्प्रभाव तो हमने महसूस कर लिया, अब स्वास्थ्य की चिन्ता ने हमें पौष्टिक और स्वास्थ्यप्रद पारम्परिक भोजन शैली की ओर लौटने पर मज़बूर कर दिया लेकिन जीवन के अन्य क्षेत्रों में?
दरअसल किसी भी व्यक्ति के जीवन में उसके स्कूल एजुकेशन का बहुत महत्वपूर्ण योगदान रहता है, उसका सम्पूर्ण व्यक्तित्व का आधार ही स्कूल में तैयार होता है चाहे वह छोटे से गांव का सरकारी स्कूल हो या फिर कोई सर्वसुविधायुक्त निजी स्कूल।
इस समय बड़ी दिक़्क़त यह हो रही है कि आठवीं के बाद बच्चे कोचिंग की दौड़ में इस कदर शामिल हो जाते है कि स्कूल हाशिये पर छूटने लगता है। अब तो बड़ी समस्या यह आ रही है कि कोचिंग जाने वाला विद्यार्थी स्कूल से ही पूरी तरह दूर होने लगा है , डमी एडमिशन के विकल्प ने उसे पूरी तरह कोचिंग पर निर्भर कर दिया है। कोचिंग स्टूडेंट्स की पढ़ाई में सहायक तो हो सकते है लेकिन वे कभी भी स्कूल का विकल्प नहीं हो सकते है। इसको आप इसी बात से आसानी से समझ सकते है कि प्रत्येक स्कूल में फ़िजिक्स , केमेस्ट्री, बायोलॉजी, मेथ्स, कम्प्यूटर आदि की व्यवस्थित लेब होती है जिससे स्टूडेंट्स प्रेक्टिकल कर विज्ञान के आधारभूत नियम समझ सके, नई एजुकेशन पॉलिसी में भी सीबीएसई का इसी पर जोर है कि स्टूडेंट्स की समझ बेहतर होनी चाहिये। लेकिन क्या ऐसा हो रहा है ? किसी भी कोचिंग संस्थान में प्रेक्टिकल के लिए कोई लैब होती है क्या? दरअसल पूरी तरह कमर्शियल हो चुके इन कोचिंग संस्थानों में सिर्फ सरकार का ध्यान उनके द्वारा दिए जाने वाले इनकम टेक्स तक ही सीमित है , शिक्षा विभाग का इन पर न तो कोई नियंत्रण है और न ही कोई नियम क़ायदे इन पर लागू होते है।
इन कोचिंग संस्थानों के सामने सिर्फ एक चुनौती होती है कि कैसे प्रतिस्पर्धी परीक्षाओं में बेहतर नतीजे दे जिससे उनका व्यापार और तेजी से बढ़े। इन कोचिंग संस्थानों से कुछ बच्चे परिणाम देकर बड़े शैक्षणिक संस्थानों में चयनित भी हो जाते है लेकिन जीवन की दौड़ में पिछड़ने लगते है। अक्सर किसी उच्च शैक्षणिक संस्थान से किसी स्टूडेंट के करोड़ो के पैकेज पर चयनित होने की खबरे तो अखबारों की सुर्खियां बनती है लेकिन बाद में एक -दो साल बाद उनका क्या हश्र होता है यह सामने कम ही आ पाता है। बड़ी उपलब्धियों के बावजूद कई डिप्रेशन का शिकार होने लगते है। दरअसल इनकी हालत उन्ही कच्चे आम की तरह ही होती है जिन्हे कृत्रिम तरीक़े से पका दिया गया, बिना यथार्थ के जीवन संघर्ष की गर्मी और अनुभव पाये ये बाज़ार में तो आ गए लेकिन बेस्वाद है!