

//- आवाज़ -//
पिता के काँपते कंठ स्वर में
झलकने लगी है
दादाजी की आवाज़
करारी डाँट में भी
सुनाई पड़ जाते हैं वे
कभी पिता की छींक
अहसास करा जाती है दादाजी का
कभी दरवाज़ा खुलने की चरमराहट
तो कभी सरकती कुर्सी की खड़खड़ाहट
दे जाती है उनका आभास
बरसों पहले देखा था
दादाजी को जाते हुए.. नि:शब्द
वे पिता को कब दे गए
अपनी आवाज़
पहले तो दोनों आवाज़ें
थीं अलग अलग
एक बूढ़ी, एक युवा
द्वंद्व में हूँ उलझी सी…
प्रतिध्वनि यथार्थ हो या न हो
लौट कर आती है..!
लौट आती हैं
अनंत में विलीन ध्वनियाँ भी बार बार…!!
मीनाक्षी दुबे,देवास
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