कृषि कानूनों की वापसी – प्रजातंत्र की विडंबना

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जैसी कि कुछ दिनों पहले आशंका व्यक्त की जा रही थी, उसी के अनुरूप आज प्रधानमंत्री मोदी ने कृषि क़ानूनों को वापस लेने की घोषणा कर दी है। उत्तर प्रदेश में आगामी चुनावों में अपनी विजय सुनिश्चित करने के लिए मोदी ने बिना झिझक ये क़ानून वापस कर लिये हैं। इन कानूनों को वापस लिए जाने से संबंधित किसानों के साथ- साथ समस्त मोदी विरोधी विपक्ष अति प्रसन्न है। प्रश्न किसानों के हितों का नहीं बल्कि मोदी के अहंकार को चोट पहुँचाना एवं चुनावी गणित है जिसमें विपक्ष किसानों के कंधों पर चढ़कर विजयी होता प्रतीत हो रहा है। कोई इसे महान आदर्शों की विजय बताएगा और कोई इसे भारत के किसानों की दृढ़ता का प्रतीक मानेगा और कुछ अन्य इसे सत्याग्रह की स्वाभाविक परिणति भी बता सकते हैं।

तीनों कृषि क़ानूनों के गुण दोषों पर चर्चा का यह समय नहीं है।इन कृषि क़ानूनों के पक्ष में मैं अपने आर्थिक तर्क देता रहा हूँ। प्रश्न कानूनों की गुणवत्ता का नहीं है क्योंकि 2019 में स्वयं कांग्रेस ने अपने घोषणा पत्र में इसी प्रकार की बात कही थी। फ़िलहाल भारत के पश्चिमोत्तर के सम्पन्न किसानों सहित भारत के कुल छह प्रतिशत से कम किसानों को प्रतिवर्ष बढ़ता हुआ समर्थन मूल्य मिलता रहेगा जिसकी भरपाई पूरे देश के करदाता करेंगे।

सम्पन्न किसानों और मंडी के एजेंटों के समक्ष मोदी के घुटने टेकने का मुख्य कारण पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ प्रतिशत वोट हैं जिनसे उत्तर प्रदेश के चुनाव पर भारी प्रभाव पड़ सकता है।उत्तर प्रदेश के सिंहासन के दरकने से 2024 में भाजपा की केंद्रीय सत्ता को गंभीर ख़तरा हो सकता है। सत्ता के आगे अहंकार और सिद्धान्तों दोनों का कोई महत्व नहीं है।वोट के लिए भाजपा अब पश्चिमी उत्तर प्रदेश के विद्रोही जाट किसानों को ध्रुवीकृत हिंदुओं में बदल देने का प्रयास करेगी।

किसान आंदोलन के राजनीतिक उथल पुथल की भयावह छाया भारत के पूरे इक्कीसवीं शताब्दी की प्रगति के मार्ग पर पड़ सकती है।इस देश ने 90 के दशक में मनमोहन सिंह द्वारा किए गए सफल सुधारों को देखा है। ये सुधार विदेशी व्यापार के आयात शुल्क और कारखानों को लगाने के लाइसेंस तक सीमित थे। इसके बाद सुधारों का काम केवल छुट पुट तरीक़े से चल रहा है।ये कृषि क़ानून, जो यद्यपि ऐच्छिक थे, फिर भी सुधार की दिशा में एक बड़ा क़दम थे।

इसका सफल विरोध अब भविष्य में कोई भी सुधार नहीं होने देगा क्योंकि कोई भी सुधार ऐसा नहीं है जिससे किसी न किसी वर्ग को तात्कालिक रूप से त्याग न करना पड़े।पार्टियों के राजनीतिक दलदल में चाहे जो विपक्ष हो वह भविष्य की सरकारों कोई भी अर्थपूर्ण क़दम नहीं उठाने देगा।दूसरे शब्दों में यदि कांग्रेस की सत्ता आयी तो यही भाजपा सुधार विरोधी हो जाएगी।कृषि क्षेत्र में तो कुछ भी करने को कोई भी राजनीतिक दल अनेक दशकों तक तैयार नहीं होगा।

यद्यपि मैं निराशावादी नहीं हूँ परन्तु फिर भी भारत के विश्व शक्ति के रूप में अगले कुछ दशकों तक उभरने में मुझे बड़ा संदेह है। ऐसा नहीं है कि प्रजातांत्रिक देशों में आर्थिक क्रांतियां नहीं हुई है फिर भी सभी प्रजातांत्रिक देशों में सत्ता के संचालन में अनेक विकृतियाँ आ रही हैं। भारत एक विशाल विषमताओं का भंडार है जहाँ सभी हितों में से कोई सर्वमान्य हित को एक माला में पिरोकर आगे बढ़ना संभव नहीं दिखाई देता है। राजनीतिक सत्ताएँ केवल नारेबाज़ी और सांकेतिक कदमों से देश की जनता को भ्रमित करती रहेंगी। देश में स्वयमेव आर्थिक वृद्धि तो होती रहेगी परन्तु चीन जैसे किसी आर्थिक चमत्कार की अपेक्षा करना आगामी अनेक दशकों तक बेमानी होगी।