चंद्रकांत अग्रवाल की रिपोर्ट
होशंगाबाद के नर्मदा घाट: पितरों को जल देने के लिए हजारों की संख्या में लोग पहुंचे
नर्मदापुरम। आज से पितृ पक्ष प्रारंभ हो गया।नर्मदापुरम में नर्मदा नदी के सेठानी घाट सहित अन्य घाटों पर हर साल की तरह इस बार भी आज पूर्णिमा व प्रतिपदा दोनों तिथियों का आज संगम होने से सैंकड़ों की संख्या में लोग अपने पितरों को जल देने, सुबह 7 बजे से ही पहुँच रहे हैं। शास्त्रों में नर्मदा जल को बहुत पुनीत माना जाता है। हजारों लोग तो गंगा जी में अस्थि विसर्जन न करके यहीं नर्मदा में ही करते हैं। नर्मदा के नर्मदापुरम में तो करीब 5 मुख्य घाट हैं ही,समीपवर्ती कुछ गांवों में भी अब अच्छे घाट बन गए हैं व यहां पर नर्मदा का प्रवाह भी अच्छा है। इनमें से एक आंवली घाट काफी पुनीत माना जाता है। जहां साल भर नर्मदापुरम की तरह ही लोग स्नानादि,सहित अन्य कर्मकांड करने बड़ी संख्या में आते रहते हैं। सभी घाटों पर नावों व गोताखोरों की पर्याप्त व्यवस्था होने से,डूबने की दुर्घटनाएं भी कम ही होती हैं। हालांकि नर्मदा में गंदे नालों के पानी मिलने से इसके जल की गुणवत्ता को लेकर पर्यावरणविद कभी संतुष्ट नहीं रहे। नर्मदा की रेत पाने के लिए अवैध उत्खनन भी बड़े स्तर पर कई वर्षों से जारी है। जिससे कई स्थानों पर जमीन का कटाव भी काफी हुआ है।
तर्पण एक अनेकार्थक शब्द है,
तृप्त करने की क्रिया,देवताओं, ऋषियों या पितरों को तंडुल या तिल मिश्रित जल अर्पित करने की क्रिया,यज्ञ अग्नि का ईंधन,आहार
आँखों में तेल डालना,आदि। यह
श्राद्ध पक्ष के रूप में मनाया जाता है। इसे महालय और पितृ पक्ष भी कहते हैं। श्राद्ध की महिमा एवं विधि का वर्णन विष्णु, वायु, वराह, मत्स्य आदि पुराणों एवं महाभारत, मनुस्मृति आदि शास्त्रों में यथास्थान किया गया है। श्राद्ध का अर्थ अपने देवों, परिवार, वंश परंपरा, संस्कृति और इष्ट के प्रति श्रद्धा रखना है।
हिंदू शास्त्रों में कहा गया है कि जो स्वजन अपने शरीर को छोड़कर चले गए हैं चाहे वे किसी भी रूप में अथवा किसी भी लोक में हों, उनकी तृप्ति और उन्नति के लिए श्रद्धा के साथ जो शुभ संकल्प और तर्पण किया जाता है, वह श्राद्ध है। माना जाता है कि सावन की पूर्णिमा से ही पितर मृत्यु लोक में आ जाते हैं और नवांकुरित कुशा की नोकों पर विराजमान हो जाते हैं। ऐसी मान्यता है कि पितृ पक्ष में हम जो भी पितरों के नाम का निकालते हैं, उसे वे सूक्ष्म रूप में आकर ग्रहण करते हैं।
केवल तीन पीढ़ियों का श्राद्ध और पिंड दान करने का ही विधान है। पुराणों के अनुसार मुताबिक मृत्यु के देवता यमराज श्राद्ध पक्ष में जीव को मुक्त कर देते हैं, ताकि वे स्वजनों के यहां जाकर तर्पण ग्रहण कर सकें। श्राद्ध पक्ष में मांसाहार पूरी तरह वर्जित माना गया है। श्राद्ध पक्ष का माहात्म्य उत्तर व उत्तर-पूर्व भारत में ज्यादा है। तमिलनाडु में आदि अमावसाई, केरल में करिकडा वावुबली और महाराष्ट्र में इसे पितृ पंधरवडा नाम से जानते हैं। श्राद्ध स्त्री या पुरुष, कोई भी कर सकता है। श्रद्धा से कराया गया भोजन और पवित्रता से जल का तर्पण ही श्राद्ध का आधार है। ज्यादातर लोग अपने घरों में ही तर्पण करते हैं। श्राद्ध का अनुष्ठान करते समय दिवंगत प्राणी का नाम और उसके गोत्र का उच्चारण किया जाता है। हाथों में कुश की पैंती (उंगली में पहनने के लिए कुश का अंगूठी जैसा आकार बनाना) डालकर काले तिल से मिले हुए जल से पितरों को तर्पण किया जाता है। मान्यता है कि एक तिल का दान बत्तीस सेर स्वर्ण तिलों के बराबर है। परिवार का उत्तराधिकारी या ज्येष्ठ पुत्र ही श्राद्ध करता है। जिसके घर में कोई पुरुष न हो, वहां स्त्रियां ही इस रिवाज को निभाती हैं। परिवार का अंतिम पुरुष सदस्य अपना श्राद्ध जीते जी करने के लिए स्वतंत्र माना गया है। संन्यासी वर्ग अपना श्राद्ध अपने जीवन में कर ही लेते हैं। श्राद्ध पक्ष में शुभ कार्य वर्जित माने गए हैं। श्राद्ध का समय दोपहर साढे़ बारह बजे से एक बजे के बीच उपयुक्त माना गया है। यात्रा में जा रहे व्यक्ति, रोगी या निर्धन व्यक्ति को कच्चे अन्न से श्राद्ध करने की छूट दी गई है। कुछ लोग कौओं, कुत्तों और गायों के लिए भी अंश निकालते हैं। कहते हैं कि ये सभी जीव यम के काफी नजदीकी हैं और गाय वैतरणी पार कराने में सहायक है।