नववर्ष का संकल्प: ‘पंचमहायज्ञ‘ जो मनुष्य को पर्यावरण, समाज और ईश्‍वर से जोडते हैं

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जब हम ‘यज्ञ‘ शब्द का उपयोग करते हैं तो सामान्य रूप से ऐसा माना जाता है कि मंत्र बोलते हुए स्वाहा कहकर अग्नि में आहुति देने की क्रिया ही यज्ञ है। सनातनधर्म में यज्ञ का अर्थ इतना सीमित नहीं है। सृष्टि में प्रत्येक जड़ व चेतन का विशिष्‍ट इकोसिस्टम है। जैसे सूर्य समय पर उदय और अस्त होता है, चंद्रमा नियम से घटता-बढ़ता है, ग्रह निश्चित गति से निर्धारित कक्षा में अपने नक्षत्रों की परिक्रमा करते हैं, बीज से अंकुर, वृक्ष, फल और फिर बीज बनता है। समुद्र का जल वाष्पीकृत होकर बादल बनता है, बादल वर्षा करता है जो सब जीव-जगत का आधार है, यह जल फिर समुद्र में मिल जाता है। प्राणी ऑक्‍सीजन का उपयोग करके कार्बन डाई ऑक्‍साइड देते हैं जो पौधों का भोजन है और वे बदले में ऑक्‍सीजन देते हैं। शाकाहारी जानवर घास खाते हैं, उन्हें मांसाहारी जीव खाते हैं और वे मरकर फिर मिट्टी में मिलकर घास आदि वनस्पतियाँ बन जाते हैं। इसमें विलम्ब की, क्रम परिवर्तन की कहीं कोई गुंजाइश नहीं है। वेदों में इसे ‘ऋत‘ कहा गया है। यह नियम ही धर्म हैं और यह प्रक्रिया ही यज्ञचक्र है। ऐसे असंख्य यज्ञचक्र आपस में जुड़े हैं और परस्पर अवलंबित हैं। पूरा ब्रह्माण्ड अनन्त विस्तार वाला यज्ञचक्र है जिसका प्रत्येक घटक निश्चित नियम से चल रहा है।

इस यज्ञचक्र में कोई हमेशा के लिए कुछ संग्रह नहीं कर रहा, जो ले रहा है उसे कुछ परिवर्तन के साथ दूसरे को दे रहा है। गीता में कहा गया है कि ब्रह्मा ने मानवजाति को यज्ञ के साथ उत्पन्न किया और कहा कि देवता और मनुष्य एक दूसरे का पोषण करके उच्चतम कल्याण को प्राप्त करें (गीता 3/10-11) जो बदले में कुछ दिये बगैर भोग करता है वह चोर है (गीता 3/12)। प्रकार हमारे चारों ओर सृष्टि की जो रचनाएँ हैं उनके यज्ञचक्र से तादात्म्य बनाकर जीवन जीने की शिक्षा दी गई है।

इन असंख्य यज्ञचक्रों में से किसी में भी परिवर्तन होता है तो उसका प्रभाव समूचे ब्रह्माण्ड पर पड़ता है। किसी एक जीव या वस्तु पर हुई घटना का प्रभाव संपूर्ण ब्रह्माण्ड पर पड़ता है। बहुत छोटा उदाहरण मौसम का लें। पहाड़ों पर वर्फ गिरती है तो मैदानी भागों में शीतलहर चलने लगती है, चंद्रमा की गति से समुद्र में ज्वार भाटा आने लगते हैं । मौसमविज्ञानी कहते हैं कि यदि हॉंगकॉंग में तितली पंख फड़फड़ाती है तो उसका असर लंदन के मौसम पर होता है भले ही वह इतना शूक्ष्म है कि हम उसे महसूस न कर सकें। इसी प्रकार हमारे कर्म, विचार आदि हमारे चारों ओर के वातावरण को प्रभावित करते हैं। शंकराचार्य के अद्वैत के विचार ने और कार्लमार्क्‍स के साम्यवाद के विचार ने अपने-अपने तरीके से दुनिया के जीवन की दिशा ही बदल दी। हम किसी से प्रेम करते हैं या घृणा करते हैं तो हमारा परिवश भी उन भावनाओं से प्रभावित होता है।

हमारे चारों ओर जो कुछ है उसे हम पर्यावरण कहते हैं। पर्यावरण सजीव है जैसे जीव, प्राणी, वनस्पति आदि, भौतिक भी है जैसे खनिज, पहाड़, वायु, प्रकश, जल आदि और मानसिक भी जैसे विचार, संस्कृति, साहित्य आदि। संसार में रहने के लिए कर्म करना और इस प्रक्रिया में पर्यावरण के साधनों का उपयोग भी आवष्यक है। परंतु इस उपयोग पर धर्मग्रंथ एक बंधन लगाते हैं, वे कहते हैं कि इस विश्‍व-यज्ञ-चक्र को अपनाते हुए, उसे अक्षुण्ण रखते हुए, मनुष्य अपनी कामनाओं की पूर्ति करे तो उसका मोक्षप्राप्ति का मार्ग प्रशस्त होगा। इस प्रकार यज्ञचक्र को अपनाने का अर्थ है अपने दृष्ट और अदृष्ट पर्यावरण का पोषण करना और उसके बाद अपनी आवश्‍यकता के अनुरूप उपयोग करना। यह यज्ञ वाह्य रूप से भी होते है और मानसिक स्तर पर भावनात्मक रूप से भी ।

इसे जीवन में क्रियान्वित करने के लिए स्मृति ग्रंथों में पॉंच कार्य प्रतिदिन करना सभी को आवश्‍यक बताया है। यह बहुत छोटे कार्य हैं परंतु इनके महत्व के कारण इन्हें यज्ञ नहीं बल्कि ‘महायज्ञ‘ कहा गया है। इनका यह भी उद्देश्‍य है कि इस संसार में हम से पहले वाली पीढि़यॉं ज्ञान, संस्कार, सौहार्द्र, समन्वय की जो विरासत छोड़ गई हैं, उसके लिए हम उनके कृतज्ञ हों, उनका संरक्षण करें और आने वाली पीढ़ियों को यह संसार और सुन्दर बनाकर छोड़कर जाएँ।

• इनमें पहला है ‘ऋषियज्ञ’। ऋषि अर्थात् हमारे ऐसे पूर्वज जिन्होंने ज्ञान-विज्ञान की खोज की। यह ज्ञान-विज्ञान चाहे वह आध्यात्मिक जैसे वेद, उपनिषद या अन्य कोई धर्मग्रंथ आदि हो या भौतिक विज्ञान जैसे चिकित्सा, रसायन आदि या साहित्य, संस्कृति की परंपरा आदि, इनका यदि हम अध्ययन नहीं करेंगे और उसका प्रचार-प्रसार नहीं करेंगे तो वह ज्ञान लुप्त हो जाएगा। इनका अध्ययन-मनन करना, उसे समृद्ध करना और दूसरों को बाँटना ही ऋषियज्ञ है। प्रतिदिन कुछ समय अच्छे ग्रंथ, साहित्य, विचार, विज्ञान आदि का अध्ययन करके ही हम ऋषियों के ऋण से मुक्त हो सकते हैं।

• दूसरा है ‘देवयज्ञ’ । इसका आंतरिक अर्थ है कि संसार को संचालित करने वाली देव शक्तियों को उनके द्वारा प्रदान की गई सुरक्षा, दयालुता के कारण कृतज्ञता स्वरूप हम अपने अधिकार की वस्तुओं में से कुछ भाग दे रहे हैं। इस प्रकार हम सुपर फिजीकल संसार को मान्यता देते हैं और उनके साथ परस्पर अंतर्संबंधों को स्वीकार करते हैं । इससे हमें अदृष्य प्रकृति के साथ समन्वय से रहने की प्रेरणा मिलती है। इसका वाह्य रूप है मानसिक रूप से एकाग्र रहकर मंत्रों के उच्चारण के साथ अग्नि में होम करना।

• अपने स्वर्गवासी हो चुके पूर्वजों को स्मरण करके जल चढ़ाना या तर्पण करना ‘पितृयज्ञ’ है। इसके तहत हम अपने उन पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हैं जिन्होंने हमसे पहले इस पृथ्वी को और अधिक सुंदर बनाया, संरक्षित किया, हमें इस संसार में लाए और अपने अनुभवों से हमें समृद्ध किया। हमारा कर्तव्य है कि हम अपने पूर्वजों से प्रेरणा लेकर आने वाली पीढ़ी के लिए भी अधिक सभ्य और सुसंस्कृत समाज, सुंदर धरती और समृद्ध धरोहर छोड़कर जाऍं।

• प्रत्येक मनुष्य का सत्कार करना, उसे भोजन या जरूरत की अन्य वस्तु देना ‘मनुष्ययज्ञ’ कहलाता है। इसका आंतरिक अर्थ है मानवता की सेवा और सहायता करना। इसके प्रकार हैं – भूखे को भोजन देना, वस्त्र देना, दीन-हीन को आश्रय देना, दुःखी को सांत्वना देना और उसका दुःख दूर करने का उपाय करना। घर आये व्यक्ति को आदर सम्मान देना, जलपान कराना इसी का भाग है जिसे अतिथियज्ञ भी कहते हैं।

• पाँचवाँ है ‘भूतयज्ञ’ । इसका वाह्य स्वरूप है स्वयं भोजन करने के पहले प्रकृति के छोटे जीवों के लिए खाद्य पदार्थ देना है। जैसे चींटी को पंजीरी डालना, पक्षियों को दाना डालना और हमारे आसपास रहने वाले गाय, कुत्ते आदि जानवरों को रोटी देना। इसका आंतरिक अर्थ है अपने से नीचे के जीवन में रह रहे जीवों के प्रति दयालुता, उनके द्वारा प्रकृति का संतुलन बनाए रखने के लिए और हमारी भलाई के लिए किये जा रहे कृत्य, जिन्हें हम कई बार जानते भी नहीं हैं, के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करना और उनका पोषण करना ।

इन पंचमहायज्ञों द्वारा हम संसार के विकास में अपना योगदान देते हैं। इसका अर्थ है ईश्‍वर द्वारा बनाए गये सृष्टि के यज्ञचक्र के अनुरूप अपने जीवन को संचालित करना। यज्ञ यह संदेश देते हैं कि मनुष्य इस संसार में अकेला नहीं है वरन् वह अखिल ब्रह्माण्ड का एक अंग है और सभी की प्रसन्नता और विकास में ही उसकी प्रसन्नता और विकास निहित है। केवल स्वार्थी होकर, विश्‍व से कटकर और एकांगी होकर कोई भी सुखी नहीं हो सकता। पूरा विश्‍व ही आपस में अंतर्संबंधित है व परस्पराश्रित है। जिसे संरक्षित रखने की व्यवस्था पंचमहायज्ञों के माध्यम से की गई है। इन्हें प्रतिदिन निष्कामभाव से ईश्‍वर को अर्पण करते हुए करना चाहिए। यह शरीर, इन्द्रिय और मन को पुष्ट करते हैं, भावना और बुद्धि को शुद्ध करते हैं । हमें अपने परिवेश से सहभागिता की शिक्षा देते हैं और हमारी चेतना को विश्‍व चेतना का अंग बनाते हुए पूर्णता की ओर विकसित करते हैं। नएवर्ष में प्रतिदिन पंचमहायज्ञ करने का संकल्प लेना नई शुरूआत होगा।