राजनीति का ज़हरीला विभाजन
अनेक कारणों से विश्व के लगभग सभी लोकतांत्रिक राष्ट्रों की राजनीति न केवल विभाजित हो गई है बल्कि विषाक्त हो गयी है। वैसे तो प्रजातंत्र का अर्थ ही मतभेद होता है और अपने हितों और सिद्धांतों को सशक्त ढंग से उठाने का राजनैतिक दलों को न केवल अधिकार है, अपितु यह उनका दायित्व भी है। सत्तारूढ़ पार्टी का पुरज़ोर विरोध करना उनका कर्तव्य है। परन्तु वोटों की छटपटाहट और सोशल मीडिया के बढ़ते प्रभाव में सामाजिक विभाजन के साथ-साथ राजनैतिक और धार्मिक ध्रुवीकरण भी हो गया है। एक निरपेक्ष राजनीतिक समीक्षक के लिए आज कल भारत समेत लगभग सभी प्रजातांत्रिक देशों में स्थिति को समझना बहुत कठिन हो गया है। यदि किसी भावना के वश कोई व्यक्ति किसी प्रकार के ध्रुवीकरण का शिकार हो जाता है तो उसे सब कुछ समझना बहुत आसान हो जाता है। अपने पक्ष के सभी तर्क उसे अकाट्य लगते हैं। वह दूसरे के तर्कों में कोई सत्य का अंश ढूँढने से इंकार कर देता है। विचार विमर्श का स्थान वितंडावाद ने ले लिया है।
स्वतंत्र भारत की नव लोकार्पित संसद भवन के कार्यक्रम का विपक्षी पार्टियों द्वारा बहिष्कार करना बिलकुल आश्चर्यजनक नहीं है। आश्चर्य तो तब होता यदि बिना किसी विघ्न के सभी राजनैतिक दल इसके लोकार्पण कार्यक्रम में सम्मिलित हो कर इस भवन की सराहना करते। लेकिन आगामी डेढ़ शताब्दी तक खड़ा रहने वाला यह भवन फ़िलहाल भारत का नहीं बल्कि मोदी का संसद भवन है। दोनों ही पक्षों ने इसी भावना से कार्य किया है और सुविधाजनक तर्कों की खोज की है।
सरकार यदि इसका उद्घाटन भारत के राष्ट्रपति से करवाती तो यह अधिक स्वाभाविक होता। पूरे कार्यक्रम में भारतीय संस्कृति का प्रदर्शन किया जाना भी उतना ही स्वाभाविक है जितना 1927 में इम्पीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल ( भारत की पहली संसद) के उद्घाटन में औपनिवेशिक सत्ता की छाप थी। लेकिन भारतीय संस्कृति के नाम पर अत्यधिक हिंदू रीति रिवाज़ का प्रदर्शन संविधान की धर्मनिरपेक्ष भावना को प्रतिबिंबित नहीं करता है। लेकिन यह कार्यक्रम वर्तमान शक्तिशाली BJP दल और उसके सर्वोच्च नेता मोदी की राजनीति पर आधारित था। प्राचीन भारत के गौरव को अतिरंजित ढंग से प्रस्तुत कर उसे वर्तमान से जोड़ने की भाजपा की घोषित नीति है।
विपक्ष की जिन 21 पार्टियों ने इस कार्यक्रम का बहिष्कार किया है उनका मुख्य तर्क यह है कि राष्ट्रपति द्वारा इसका उद्घाटन न कराया जाना उन्हें सहन नहीं है। उनका यह तर्क सही है परंतु पाखंड से भरा है। यदि वास्तव में राष्ट्रपति इसका उद्घाटन करने वाली होती तो बहिष्कार के लिए कोई दूसरा तर्क ढूंढ लिया जाता। ये दल प्रारंभ से ही नए भवन की कोई आवश्यकता ही नहीं बता रहे थे यद्यपि पूर्व में उनकी सरकारें नए भवन की इच्छा करती रही हैं। लेकिन मोदी द्वारा इसका निर्माण करना उन्हें रास नहीं आया। कुछ ने तो बढ़ चढ़कर उसे ताबूत और कलंक तक कह दिया। प्रारम्भ में ही सुप्रीम कोर्ट तक इसे रोकने की लड़ाई उन्होंने लड़ी। इन पार्टियों का सामर्थ्य केवल विधानसभा भवन बनाने तक था और उन्होंने उन भवनों का उद्घाटन अपनी राजनैतिक सुविधा से किया। संगोल के इतिहास को ही उन्होंने नकार दिया। तंजोर के मठाधीशों ने 14 अगस्त 1947 को पंडित नेहरू के घर जाकर उन्हें संगोल भेंट किया था परन्तु स्वाभाविक रूप से इसे उस समय कोई महत्व नहीं दिया गया। उसी दिन नेहरू और उनके आगामी मंत्रिमंडल के सदस्य डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद के निवास पर हवन में सम्मिलित हुए जिसमें सबको लाल टीका लगाया गया। स्वतंत्रता की अर्धरात्रि को भारतीय परंपरानुसार शंखनाद से भविष्य का स्वागत किया गया।
2011 के बाद से भारत की संसद में विवेक का कोई विशेष स्थान नहीं रह गया है। UPA के तथाकथित घोटालों को लेकर उस समय BJP ने अनेक सत्रों में संसद को ठप कर दिया था तथा इसके लिए सैद्धान्तिक औचित्य भी दिया था। वर्तमान विपक्ष ने इसी परंपरा का निष्ठा से निर्वहन किया है और हमारी संसद एक निरर्थक शोर का बाज़ार बनकर रह गयी है। लगभग सभी महत्वपूर्ण विधेयक बिना किसी बहस के शोर शराबे में पास कर दिए जाते हैं। स्पष्ट दिखाई दे रहा है कि यह नया संसद भवन अपने प्रारंभ में ही आगामी सत्रों में राजनीतिक अव्यवस्था का मूक दर्शक होगा।