चुनाव आयोग पर राजनीतिक गोलाबारी लोकतंत्र के लिए घातक

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चुनाव आयोग पर राजनीतिक गोलाबारी लोकतंत्र के लिए घातक

आलोक मेहता

एक बार फिर कांग्रेस ,आम आदमी पार्टी , शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी , उद्धव ठाकरे की शिव सेना आदि ने चुनाव आयोग और उसकी व्यवस्था पर पक्षपात का आरोप लगा दिए | महाराष्ट्र और हरियाणा विधान सभा चुनाव परिणामों से बौखलाए राहुल गाँधी ने संसद के बजट सत्र के प्रारम्भ में लोक सभा से तथा बाहर से यह आरोप लगाने शुरु कर दिए | दिल्ली विधान सभा के चुनाव में तो अरविन्द केजरीवाल और आम आदमी पार्टी के अन्य नेताओं ने चुनाव मुख्य आयुक्त राजीव कुमार का नाम लेकर लगभग गालियों के साथ आरोप लगा दिए | समाजवादी पार्टी प्रमुख ने तो चुनाव आयोग पर कफन के कपडे डालने जैसे अशोभनीय प्रदर्शन कर दिए | इस विरोध में पराजय के साथ नए चुनाव आयुक्त की नियुक्ति में भी अड़ंगा लगाने और बिहार सहित आगामी चनावों की विश्वसनीयता को ख़त्म करने का इरादा साफ़ दिख रहा है | सीईसी राजीव कुमार 65 वर्ष की आयु पूरी होने पर 18 फरवरी को सेवानिवृत्त होंगे | मुख्य निर्वाचन आयुक्त और अन्य निर्वाचन आयुक्त (नियुक्ति, सेवा शर्तें और कार्यालय की अवधि) अधिनियम, 2023 के प्रावधानों को पहली बार सीईसी की नियुक्ति के लिए लागू किया जा रहा है |

केंद्र सरकार ने अगले मुख्य निर्वाचन आयुक्त (सीईसी) की नियुक्ति के लिए नामों की सूची तैयार करने के वास्ते केंद्रीय कानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल की अध्यक्षता में एक खोज समिति गठित की हुई है | इस समिति के दो सदस्यों के रूप में वित्त विभाग के सचिव और कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग के सचिव शामिल हैं | अब तक सबसे वरिष्ठ निर्वाचन आयुक्त को सीईसी के सेवानिवृत्त होने के बाद मुख्य निर्वाचन आयुक्त के रूप में पदोन्नत किया जाता था |पिछले साल सीईसी और निर्वाचन आयुक्तों (ईसी) की नियुक्तियों को लेकर एक नया कानून लागू होने के बाद नियुक्ति प्रक्रिया में बदलाव आया है | अब एक खोज समिति सीईसी और निर्वाचन आयुक्तों के रूप में नियुक्ति के लिए सचिव स्तर के अधिकारियों के नामों की सूची तैयार करती है |आयुक्त और अन्य निर्वाचन आयुक्त (नियुक्ति, सेवा शर्तें और कार्यालय की अवधि) अधिनियम, 2023 के प्रावधानों को पहली बार सीईसी की नियुक्ति के लिए लागू किया जा रहा है | इस अधिनियम का इस्तेमाल पिछले साल अनूप चंद्र पांडे की सेवानिवृत्ति और अरुण गोयल के इस्तीफे से पैदा हुई रिक्तियों को भरने के लिए निर्वाचन आयुक्तों ज्ञानेश कुमार और एस एस संधू को नियुक्त करने के वास्ते किया गया था | अधिनियम के अनुसार, मुख्य निर्वाचन आयुक्त और निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली चयन समिति की सिफारिश पर की जाएगी. इस समिति में लोकसभा में विपक्ष के नेता और प्रधानमंत्री की ओर से नामित एक केंद्रीय कैबिनेट मंत्री शामिल होंगे |राजीव कुमार के बाद ज्ञानेश कुमार सबसे वरिष्ठ निर्वाचन आयुक्त हैं | ज्ञानेश कुमार का कार्यकाल 26 जनवरी, 2029 तक है |

राहुल गांधी ने भारतीय चुनाव आयोग पर बड़ा आरोप लगाया है। राहुल गांधी ने कहा कि महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में मतदाताओं और मतदान सूची में गड़बड़ी पाई गई है। इस पर अब चुनाव आयोग की प्रतिक्रिया सामने आई है।

 

 

चुनाव आयोग ने कांग्रेस सांसद राहुल गांधी के महाराष्ट्र वोटर लिस्ट में गड़बड़ी के आरोपों पर पलटवार किया है और कहा है कि इस मामले में पूरे तथ्यों के साथ जवाब दिया जाएगा।

 

ऐसी धारणा बनाई जा रही है कि चुनाव आयोग एकल सदस्यीय निकाय है। चुनाव आयोग ने कहा कि दिल्ली विधानसभा चुनाव 2025 में राजनीतिक दलों और प्रत्याशियों द्वारा उठाए गए मुद्दों पर 1.5 लाख से अधिक अधिकारियों द्वारा कार्रवाई की जा रही है। कहा गया कि ये अधिकारी पूरी निष्पक्षता के साथ अपना काम कर रहे हैं।

उधर, आम आदमी पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक अरविंद केजरीवाल व अन्य आप के वरिष्ठ नेताओं द्वारा आरोप लगाया जा रहा है कि चुनाव आयोग भाजपा कार्यकर्ताओं पर कार्रवाई नहीं कर रहा है। कहा गया कि भाजपा नेताओं द्वारा आचार संहिता का उल्लंघन करने पर चुनाव आयोग कार्रवाई नहीं कर रहा है।

 

राहुल गांधी ने भारतीय चुनाव आयोग पर बड़ा आरोप लगाया है। राहुल गांधी ने कहा कि महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में मतदाताओं और मतदान सूची में गड़बड़ी पाई गई है। कांग्रेस नेता ने दावा किया कि सरकारी आंकड़ों के अनुसार महाराष्ट्र की वयस्क आबादी 9.54 करोड़ है, जबकि राज्य में 9.7 करोड़ मतदाता हैं। उन्होंने आरोप लगाया कि महाराष्ट्र में राज्य की कुल आबादी से अधिक मतदाता हैं। गांधी ने आरोप लगाया कि लोकसभा चुनाव के बाद पांच महीनों में महाराष्ट्र में 39 लाख मतदाता जुड़े, जबकि पिछले पांच वर्षों में 32 लाख मतदाता जुड़े थे। ‘ राहुल द्वारा प्रेस कॉन्फ्रेंस में आरोप लगाए जाने के तुरंत बाद निर्वाचन आयोग ने सोशल मीडिया मंच ‘एक्स’ पर एक पोस्ट में कहा, ‘‘भारत निर्वाचन आयोग (ईसीआई) राजनीतिक दलों को प्राथमिकता वाले पक्षकारों के रूप में मानता है, निश्चित रूप से मतदाता सर्वोपरि हैं और राजनीतिक दलों से आने वाले विचारों, सुझावों, सवालों को बहुत महत्व देता है। उन पूरे तथ्यात्मक और प्रक्रियात्मक प्रक्रिया का पालन करते हुए लिखित में जवाब देगा, जिसे पूरे देश में समान रूप से अपनाया गया है।’’

पुराने अनुभवी कांग्रेसी या प्रतिपक्ष क़े कई लोगों को याद होगा कि किसी समय एक प्रधान मंत्री क़े परिवार क़े सदस्यों क़े विवाह की क़ानूनी प्रक्रिया पूरी करने क़े लिए उनके निवास पर जाने से लेकर सेवा काल में भी निजी सम्बन्ध वाले अधिकारी देश क़े प्रमुख निर्वाचन आयुक्त रहे हैं | किसी प्रधान मंत्री या मुख्यमंत्री क़े साथ वरिष्ठ सचिव रहे अधिकारी भी निर्वाचन आयुक्त बने | लेकिन इन चुनाव आयुक्तों की निष्पक्षता पर सवाल नहीं उठाए गए | अब कांग्रेस क़े नेता चुनावी पराजय की संभावना देखकर ‘ जंगल में शेर आया ‘ क़े अनावशयक हल्ले की तरह चुनाव आयोग पर ही कालिख पोतने का प्रयास कर रहे हैं | कभी देश में अपनी ही सरकार द्वारा शुरु की गई इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन पर सवाल उठाते हैं , तो कभी चुनाव अधिकारी पर | जिस चुनाव में अपना उम्मीदवार विजयी होता है , तब चुनावी व्यवस्था ठीक और निष्पक्ष लगती है , चुनावी हार होने पर जनता क़े फैसले को स्वीकारने क़े बजाय चुनाव – मतदान और अधिकारी पर बेइमानी क़े आरोप लगा देते हैं | जहाँ तक वोटिंग मशीन की बात है पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त ओ पी रावत , एस वाई कुरैशी , सुनील अरोड़ा ही नहीं सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ तक मशीन के उपयोग को पूरी तरह विश्वसनीय बता चुके हैं | वे यह कहते हैं कि पार्टियां अनुकूल जीत होने या अदालती फैसला आने को न्याय और प्रतिकूल होते ही अन्याय और गड़बड़ी का हंगामा करने लगते हैं |

यह आलोचना और गैर जिम्मेदाराना काम नहीं तो क्या कहा जाएगा ? | लेकिन विरोधी नेता तो चुनाव आयोग , सर्वोच्च अदालत , सी बी आई , भारतीय सेना तक के निर्णयों और कार्यों पर प्रश्न चिन्ह लगाने , उनकी निष्पक्षता पर गन्दगी डालने में तनिक संकोच नहीं कर रहे हैं | संवैधानिक और लोकतान्त्रिक संस्थाओं और उनके शीर्ष व्यक्तियों की ईमानदार छवि पर दाग लगाना भारतीय लोकतंत्र की छवि बिगाड़ना ही है | देश और लोकतंत्र की छवि बिगड़ने से भारत में भारी पूंजी लगाने के लिए उत्सुक विदेशी कंपनियां और प्रवासी भारतीय भी दुविधा में फंस रहे हैं | लोकतंत्र में मभेद , असंतोष , राजनीतिक विरोध , आरोप – प्रत्यारोप , क़ानूनी कार्रवाई के साथ सामाजिक आर्थिक विकास स्वाभाविक है , लेकिन क्या कोई सीमा रेखा नहीं होनी चाहिए |

राहुल गाँधी और उनके अज्ञानी सहयोगी कम से कम अपनी पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के पचास सालों के भाषण , सम्मेलनों में कही गई बातों और संसद में अथवा बाहर भी विरोधी नेताओं के तीखे भाषणों का अध्ययन कर सकते हैं | आपात काल के अपवाद को छोड़कर लगभग सभी प्रमुख दलों , विचारों के नेता सत्ता और प्रतिपक्ष में रह चुके हैं | इंदिरा गाँधी को सत्ता से हटने के बाद कुछ दिन जेल भी जाना पड़ा , कितने छापे पड़े , लेकिन उन्होंने या उनके सहयोगियों ने लोकतंत्र ख़त्म होने का आरोप नहीं लगाया | बाद में वह और पार्टी सत्ता में आई , तो आंदोलनों से विरोध हुआ लेकिन यह किसी ने नहीं कहा कि लोकतंत्र ही ख़त्म हो गया | पूर्वाग्रह और राजनीतिक बदले के आरोप लगते हैं | लालू यादव भी अदालत से न्याय की बात कहकर प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी पर गुस्सा निकालते हैं | जय प्रकाश नारायण , मोरारजी देसाई , चौधरी चरण सिंह , अटल बिहारी वाजपेयी , मधु लिमये , जॉर्ज फर्नांडीज जैसे नेता जेल में रहे , लेकिन बाद में सम्पूर्ण व्यवथा पर अनर्गल और अशोभनीय वक्तव्य नहीं देते रहे |

याद करें – बीस वर्ष पहले बिहार , उत्तर प्रदेश , हरियाणा , पंजाब जैसे कई राज्यों में मतदान केंद्रों पर फर्जी मतदान , मत पेटियों की लूट और हिंसक संघर्ष की घटनाएं होती थीं और प्रशासन बेबस हो जाता था | कुछ गांवों में बाहुबलियों और उनके समर्थकों द्वारा चुनाव जीतने के लिए दिए गई धमकियों के डर से कई गांव खाली हो जाते थे | हाल के वर्षों में ईमानदार और समर्पित अधिकारियों ने ही चुनावी व्यवस्था को अधिकाधिक निष्पक्ष , आधुनिक और भयमुक्त बना दिया है | अब हिंसा और लूटपाट की खबरें बहुत कम देखने को मिलती है | चुनावी प्रचार , खर्च पर निगरानी , गैर क़ानूनी तरीकों पर अंकुश , उम्मीदवारों की योग्यता पृष्ठभूमि आमदनी इत्यादि की सार्वजनिक घोषणा जैसी पारदर्शिता का लाभ हो रहा है | राजनीतिक पार्टियों को मान्यता , विजय पराजय के बाद की जाने वाली शिकायतों पर सुनवाई ने व्यवस्था की साख बढ़ाई है | देश में पहले एक चुनाव आयुक्त होते थे , फिर दो हुए | तब अदालत के एक निर्णय के बाद चुनाव आयोग के सदस्य तीन हो गए | एक उच्च स्तरीय समिति लम्बे प्रशासनिक अनुभव वाले व्यक्ति को चुनाव आयुक्त बनाए जाने की सिफारिश सरकार को करती है | चुनाव आयुक्त किसी राजनीतिक दल अथवा सरकार के बजाय के लिए केवल राष्ट्रपति एवं शीर्ष न्यायालयों के लिए जवाबदेह होते हैं | चुनाव प्रक्रिया के दौरान प्रदेशों की प्रशासन व्यवस्था चुनाव आयोग के पास आ जाती है |

‘ एक देश , एक चुनाव ‘ का मुद्दा भी इसी तरह का समझा जाना चाहिए | प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने यदि इसे उठाया है , तो इसे केवल उनकी पार्टी के एकछत्र राज और अनंत काल तक सत्ता बानी रहने वाला मुद्दा क्यों समझा जाना चाहिए ? केवल तानाशाही अथवा कम्युनिस्ट व्यवस्था में यह संभव है | सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि यह कोई नया मोदी मन्त्र नहीं है | संविधान निर्माताओं द्वारा स्थापित लोकतंत्र के आधार पर 1952 से 1967 तक चली आदर्श व्यवस्था को पुनः अपनाना मात्र है | ऐसा भीं नहीं कि देश में एक साथ चुनाव होने पर करोड़ों का खर्च बढ़ जायेगा अथवा क्षेत्रीय और स्थानीय स्तर की पार्टी अथवा निर्दलीय उम्मीदवार नहीं जीत सकेंगे | सत्तर वर्षों का इतिहास गवाह है कि अरबपति उद्योगपति , राजा महाराजा , प्रधान मंत्री तक चुनाव हारे हैं और पंचायत स्तर तक जनता के बीच चुनकर आये बिना मंत्री और प्रधान मंत्री भी रहे हैं |हाँ , मंडी के बिचौलियों की तरह चुनावी धंधों से हर साल करोड़ों रुपया कमाने वाले एक बड़े वर्ग को आर्थिक नुक्सान होगा | यही नहीं निरंतर चुनाव होते रहने पर अपनी आवाज और समर्थन के बल पर पार्टियों में महत्व पाने वाले नेताओं को भी घाटा उठाना पड़ेगा और किसी सदन में रहकर ही अपनी धाक जमानी पड़ेगी |

जहाँ तक खर्च की बात है राजनीतिक दलों को ही नहीं , देश के लाखों मतदाताओं – करदाताओं का का करोड़ों रुपया बच जाएगा |भारत के प्रतिष्ठित शोध संसथान सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज की एक रिपोर्ट के अनुसार 2019 के लोक सभा चुनाव में करीब साठ हजार करोड़ रूपये खर्च हुए | जरा सोचिये लोकसभा के पहले तीन चुनावों यानी 1952 , 1957 और 1962 में केवल दस करोड़ रूपये खर्च होते थे | उदार अर्थ व्यवस्था आने के बाद पार्टियों और उम्मीदवारों के पंख आकाश को छूने वाले सोने चांदी हीरे मोती से जड़े दिखने लगे | अदालतों और चुनाव आयोग ने उनके वैधानिक चुनावी खर्च की सीमा बढाकर सत्तर लाख और विधान सभा क्षेत्र के लिए अट्ठाइस लाख रूपये कर दी , लेकिन व्यावहारिक जानकारी रखने वाले हर पक्ष को मालूम है कि पार्टी और निजी हैसियत वाले नेता लोक सभा चुनाव में पांच से दस करोड़ रूपये खर्च करने में नहीं हिचकते | कागजी खानापूर्ति के लिए उनके चार्टर्ड अकाउंटेंट हिसाब बनाकर निर्वाचन आयोग में जमा कर देते हैं | महाराष्ट्र के एक बहुत बड़े नेता ने तो सार्वजनिक रूप से स्वीकार कर लिया था कि लोक सभा चुनाव में आठ करोड़ खर्च हो जाते हैं | पिछले चुनाव में तमिलनाडु के कुछ उम्मीदवारों ने लगभग तीस से पचास करोड़ रूपये तक बहा दिए | आंध्र में कुछ उम्मीदवारों ने हर मतदाता को दो दो हजार रूपये दे दिए | वहीँ चुनावी व्यवस्था करने वाले आयोग को सरकारी खजाने से करीब बारह हजार करोड़ खर्च करने पद रहे हैं | इस तरह विशेषज्ञों का आकलन है कि लोक सभा के एक निर्वाचन क्षेत्र पर औसतन एक सौ करोड़ रूपये खर्च हो जाते हैं | विधान सभा चुनावों में खर्च केवल अधिक सीटों की संख्या के अनुसार बंट जाता है | यह ठीक है कि लोक सभा के चुनाव सामान्यतः पांच साल में होते हैं , लेकिन राजय विधान सभाओं में अस्थिरतया की वजह से पिछले दशकों में उनके चुनावी वर्ष अलग अलग होने लगे | नतीजा यह है कि हर तीसरे चौथे महीने किसी न किसी विधान सभा , स्थानीय नगर निगमों – पालिकाओं या पंचायतों के चुनाव होते हैं | इस तरह देश और मीडिया में ऐसा लगता है मानो पुरे साल चुनावी माहौल बना हुआ है | इसके साथ ही सरकारों पर आचार संहिता लगने से विकास खर्चों पर अंकुश और विश्राम के दरवाजे लग जाते हैं | राजनीतिक लाभ किसी को हो , सर्वाधिक नुक्सान सामान्य नागरिकों का होता है |

भगवान् की तरह पूजा जाता है , लेकिन प्राकृतिक प्रकोप – बाढ़ , भू स्खलन , प्रदूषण यानी पर्यावरण और ब्रिटिश राज से चली आ रही बाबुओं की लाल फीताशाही और पुराने कानून बदलने को सर्वोच्च प्राथमिकता वाले चुनावी मुद्दे नहीं बनाए जाते हैं | अधिकांश राजनीतिक पार्टियां जाति , धर्म के आधार पर उम्मीदवारों के चयन और उनके प्रभाव को महत्व देती हैं | घोषणा पत्रों में विचार सिद्धांत वायदे बड़े बड़े होते हैं , लेकिन कई उम्मीदवारों को अपना पूरा घोषणा पत्र भी याद नहीं होता है और अगले चुनाव में उनको थोड़ी हेर फेर के साथ रख दिया जाता है |हाल के वर्षों में पानी बिजली मुद्दा बना तो बस मुफ्त देने पर जोर है | गरीबों के लिए पानी बिजली अनाज मकान शिक्षा स्वास्थय निश्चित रूप से निशुल्क देना जरुरी है , लेकिन कुछ वर्षों में उन्हें सही काम काज के लायक और आत्म निर्भर बनाना अधिक आवश्यक है |पूर्वी जर्मनी सहित कई देशों के कम्युनिस्ट राज में आर्थिक प्रगति इसीलिए नहीं हो पाई , क्योंकि लोग सत्ता की दया और कथित श्रम अधिकारों के नाम पर आलसी हो गए थे | भारत में आज़ादी के बाद समाजवादी विचारों के प्रभाव का कुछ लाभ हुआ , लेकिन गरीब के बजाय मध्यम वर्ग और यहाँ तक कि सुविधा संपन्न लोग भी सरकार की निशुल्क या रियायतों का अधिक लाभ उठाते हैं | उन्हें घरेलु गैस या बिजली गरीब लोगों को मिलने वाले दामों पर चाहिए |

इसी तरह आर्थिक प्रगति , उद्योगों और रोजगार के लिए राजनीतिक पार्टियां अथवा अन्य संगठन बात करते हैं , लेकिन सड़क , पुल , कारखाने लगाने के लिए जमीन देने पर भयानक विरोध करते हैं | कई जगह वर्षों काम लटका रहता है | आधुनिकीकरण में यदि औद्योगिक व्यावसायिक कम्पनियाँ देश विदेश तक प्रभावशाली होने लगे तो उनके लाभ को लेकर सरकारों पर प्रश्न उठाने लगते हैं | आखिर सरकार स्वयं कितने रोजगार दे सकती है | रोजगार मुद्दा बने तो फिर कौशल विकास यानी स्कील डेवलपमेंट के लिए स्थानीय चुनावों में आवाज क्यों नहीं उठाई जाती | यूरोप से मुकाबले के लिए कृषि कानूनों में सुधार हो तो एक वर्ग विरोध में खड़ा हो गया | तमन्ना किसान को हवाई जहाज में बैठने की रखवाएं और उससे बैलगाड़ी और आढ़तियों पर निर्भर रहने के लिए अभियान चलाएं | बहरहाल , जर्मनी ही नहीं यूरोप , अमेरिका , जापान और खड़ी के देश बड़े पैमाने पर भारत में पूंजी लगा रहे हैं और लगाएंगे | कम से कम शेयर मार्केट तो यही संकेत दे रहा है | चुनाव होते रहें , लोकतंत्र तभी मजबूत होगा जब मतदाता और नेता भी अपनी सही प्राथमिकताएँ रखेंगे , उन्हें मुद्दे बनाकर सफलता हासिल करेंगें | किसी भी लोकतान्त्रिक व्यवस्था में प्रशानिक अधिकारी या न्यायाधीश भी उसी समाज और क्षेत्र विशेष के ज्ञान अनुभव के आधार पर आते हैं | सी बी आई में अधिकांश अधिकारी राज्यों से प्रतिनियुक्ति पर रखे जाते हैं | उन्हें कोई एक पार्टी या देवदूत नहीं लाते हैं | वकील जज बन सकते हैं या नेता और मंत्री भी | संसद या विधान सभा में कितने ही वकील आते हैं | उनमें से कोई मंत्री भी बनते हैं और पद से हटने के बाद फिर वकालत करने लगते हैं | क्या मंत्री रहते उनके निर्णयों से कम्पनियाँ प्रभावित होती हैं | लेकिन अपेक्षा यह होती है कि उनके काम में निष्पक्षता रहेगी | आख़िरकार कोई भी पद जिम्मेदार व्यक्ति को अपने कर्तव्य का ईमानदारी से पालन की अपेक्षा बढ़ाता है | कुछ लोग अपवाद हो सकते हैं | लेकिन 75 वर्षों में कर्तव्यनिष्ठ लोगों से ही लोकतंत्र की जड़ें मजबूत हुई हैं और होती रहेंगी |