आप मानें या न माने पर अंदरखाने भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष के लिए शिवराज सिंह की ग्रूमिंग शुरू हो चुकी है। इसका पूरा ब्लूप्रिंट भाजपा की कोर टीम यानी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह के पास है और उस पर तेजी से काम हो रहा है।
विश्व की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष के तौर पर वर्तमान में वरिष्ठ राज्यसभा सांसद जगत प्रकाश नड्डा कार्यरत हैं। 1975 में जेपी आंदोलन में भाग लेने के बाद चर्चा में आए जगत प्रकाश नड्डा का राजनीतिक सफर बिहार में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से शुरू हुआ था और वे 20 जनवरी 2020 से इस पद पर हैं। 3 साल का उनका कार्यकाल एक साल बाद जनवरी 2023 में पूरा होगा।
1980 में जनता पार्टी के विघटन के बाद भारतीय जनसंघ के पदचिन्हों को पुनर्संयोजित करते हुए भारतीय जनता पार्टी का गठन हुआ। इसके पहले अध्यक्ष के रूप में अटल बिहारी वाजपेई 1980 से 86 तक पद पर रहे। उसके बाद लालकृष्ण आडवाणी, फिर मुरली मनोहर जोशी ने अध्यक्ष पद संभाला। 1993 में लालकृष्ण आडवाणी को एक बार फिर पार्टी की कमान दी गई। इसके बाद 1998 में कुशाभाऊ ठाकरे, 2000 में बंगारू लक्ष्मण, 2001 में जन कृष्णमूर्ति, 2002 में वेंकैया नायडू को पार्टी की कमान सौंपी गई।
2004 से 2006 तक लालकृष्ण आडवाणी को एक बार फिर पार्टी की कमान सौंपी गई। इसके बाद राजनाथ सिंह, नितिन गडकरी ने पार्टी का नेतृत्व किया। 2013 में राजनाथ सिंह को एक बार फिर कमान सौंपी गई और उन्होंने 2014 में मोदी सरकार को प्रचंड बहुमत दिलाया। इसके बाद अमित शाह ने मोर्चा संभाला और 2019 के आम चुनाव में दूसरी बार मोदी सरकार के लिए मार्ग प्रशस्त किया।
पार्टी में अभी इस पर गहन मंथन जारी है कि 2024 का आम चुनाव वर्तमान अध्यक्ष जेपी नड्डा के दूसरे कार्यकाल में उन्हीं के नेतृत्व में चुनाव लड़ा जाए या नए अध्य़क्ष के नेतृत्व में। वर्तमान राजनीतिक खींचतान व ध्रुवीकरण के माहौल में पार्टी अध्यक्ष के लिए तीसरी बार भी मोदी सरकार बनवाने का काम आसान नहीं होगा।
भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष दल के चुने हुए प्रमुख होते हैं। पूर्व में अध्यक्ष पद पर नियुक्ति 2 सालों के लिए हुआ करती थी और लगातार 2 सत्रों तक की हो सकती थी। 2012 में इस नियम में संशोधन कर अध्यक्षीय कार्यकाल 3 साल का और लगातार दो सत्रों तक ही हो सकता है।
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान इन दिनों जिस तरह से राष्ट्रीय क्षितिज पर प्रक्षेपित किए जा रहे हैं, उससे इस धारणा को काफी बल मिल रहा है। मार्च 2020 में जब ज्योतिरादित्य सिंधिया की टीम की मदद से कमलनाथ की सरकार को अल्पमत में कर के प्रदेश में एक बार फिर भाजपा की सरकार बनी थी तो केंद्रीय नेतृत्व 2018 में सरकार बनाने में असफल रहे शिवराज सिंह चौहान को पुन: कमान सौंपने में थोड़ा हिचक रहा था पर सर्वमान्य विकल्प की गैर मौजूदगी में मौका एक बार फिर शिवराज सिंह चौहान को ही मिला था।
2014 के पहले तक वरिष्ठ भाजपा नेता लाल कृष्ण आडवाणी के पसंदीदा पीएम कैंडीडेट होने के कारण शिवराज सिंह चौहान और मोदी कैंप में तनातनी का माहौल सा बन गया था पर तारीफ करनी होगी शिवराज सिंह चौहान के राजनीतिक रण कौशल की कि इतने कम समय में अब वे मोदी कैंप के खासमखास बन गए हैं। चाहे बंगाल के या असम को चुनाव हों, पार्टी ने उनको स्टार प्रचारक के तौर पर प्रोजेक्ट किया और महत्वपूर्ण मौकों पर आगे भी रखा गया।
पिछले कुछ समय से वे पार्टा के लिए संकटमोचक के तौर पर हर जगह देखे जा सकते हैं। आजकल वे लगातार दूसरे राज्यों का दौरा कर रहे हैं। फरवरी में होने वाले विधानसभा चुनावों में भी उनकी अहम भूनिका रहेगी, खासतौर उत्तर प्रदेश में। अभी हाल ही में शिवराज सिंह उत्तर प्रदेश के बलिया में भाजपा की संकल्प यात्रा में दिखे। इसके अलावा दिसंबर में वे हरिद्वार में थे वहां पर उन्होंने उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी से मुलाकात की। महाराष्ट्र और तमिलनाडु की उनकी धार्मिक यात्राओं के भी राजनितिक मायने निकाले जा रहे हैं जो गलत भी नहीं हैं।
पिछले दिनों मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने हैदराबाद के दौरे में तेलंगाना के मुख्यमंत्री केसीआर पर जिस तरह जमकर निशाना साधा, उसकी गूंज पार्टी के भीतर महसूस की जा सकती है। सीएम शिवराज सिंह ने कहा कि मैं समझता था कि केसीआर दमदार मुख्य़मंत्री हैं लेकिन वो तो दुमदार निकले। केसीआर डरे हुए हैं। ये कायर हैं जो हमारे अध्यक्ष को जेल में डाला है। साथ ही ओवैसी के गढ़ में शिवराज ने ऐलान किया कि हम संघर्ष का ऐलान करने आए हैं क्योंकि धर्मयुद्ध शुरू हो चुका है।
बीच में वे दिल्ली भी काफी आते-जाते रहते हैं। शिवराज सिंह के मूवमेंट को लेकर उनका विरोधी खेमा लगातार यह बात उछालता रहता है कि वे अब जाने वाले हैं। वैसे भी मध्य प्रदेश के चार बार मुख्यमंत्री होने का रिकार्ड बनाने के बाद शिवराज पांचवी बार फिर प्रदेश का सीएम बनेंगे, इसकी संभावनाएं बहुत ही क्षीण दिखती हैं। उनकी वरिष्ठता, अनुभव, रणनीतिक कौशल, वरिष्ठों व कार्यकत्ताओं को साथ लेकर चलने की क्षमता और सबसे ऊपर उनके सरल व सहज स्वभाव के चलते उनके लिए केंद्र में पार्टी अध्यक्ष की भूमिका की सबसे अधिक संभावना बनती है।
इसी के साथ, दूसरी तरफ मध्यप्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया के लिए भी फील्डिंग जम जाएगी। मध्य प्रदेश में ऐसी सुनियोजित चर्चा जरूर है कि प्रदेश की सियासत में जिस तरह से ज्योतिरादित्य सिंधिया हावी होते जा रहे हैं उससे शिवराज सिंह ज्यादा खुश नहीं हैं। शिवराज चौहान भी जानते व समझते हैं कि अब मध्यप्रदेश में ज्यादा लंबी इनिंग खेलने की गुंजाइश नहीं बची है।
इसी बात को ध्यान में रखते हुए पार्टा नेतृत्व भी चाहता है कि वे मध्यप्रदेश से बाहर निकल कर राष्ट्रीय फलक पर काम करें। हाल ही में निगम मंडलों में नियुक्ति के मामले में शिवराज चौहान ने सिंधिया के हारे हुए समर्थकों का जिस तरह से पुनर्वास किया है, उससे स्पष्ट है कि पार्टी की सहमति से दोनों नेता (शिवराज और सिंधिया) मिलकर सत्ता हस्तांतरण कर लेंगे और छींका टूटने और मलाई खाने का इंतजार करने वाले बिलाव एक बार फिर टापते रह जाएंगे।